ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
आ द्वाभ्यां॒ हरि॑भ्यामिन्द्र या॒ह्या च॒तुर्भि॒रा ष॒ड्भिर्हू॒यमा॑नः। आष्टा॒भिर्द॒शभिः॑ सोम॒पेय॑म॒यं सु॒तः सु॑मख॒ मा मृध॑स्कः॥
स्वर सहित पद पाठआ । द्वाभ्या॑म् । हरि॑ऽभ्याम् । इ॒न्द्र॒ । या॒हि॒ । आ । च॒तुःऽभिः॑ । आ । ष॒ट्ऽभिः । हू॒यमा॑नः । आ । अ॒ष्टा॒भिः । द॒शऽभिः॑ । सो॒म॒ऽपेय॑म् । अ॒यम् । सु॒तः । सु॒ऽम॒ख॒ । मा । मृधः॑ । क॒रिति॑ कः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ द्वाभ्यां हरिभ्यामिन्द्र याह्या चतुर्भिरा षड्भिर्हूयमानः। आष्टाभिर्दशभिः सोमपेयमयं सुतः सुमख मा मृधस्कः॥
स्वर रहित पद पाठआ। द्वाभ्याम्। हरिऽभ्याम्। इन्द्र। याहि। आ। चतुःऽभिः। आ। षट्ऽभिः। हूयमानः। आ। अष्टाभिः। दशऽभिः। सोमऽपेयम्। अयम्। सुतः। सुऽमख। मा। मृधः। करिति कः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र हूयमानस्त्वं द्वाभ्यां हरिभ्यां युक्तेन यानेना याहि चतुर्भिर्युक्तेनायाहि। षड्भिर्युक्तेना याहि। अष्टाभिर्दशभिश्च युक्तेन योऽयं सुतः सोमस्तं सोमपेयमायाहि। हे सुमख त्वं सज्जनैस्सह मृधो मा कः ॥४॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (द्वाभ्याम्) (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां पदार्थाभ्याम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (याहि) गच्छ (आ) समन्तात् (चतुर्भिः) (आ) (षड्भिः) (हूयमानः) (आ) (अष्टाभिः) (दशभिः) (सोमपेयम्) सोमानां पदार्थानां पातुं योग्यम् (अयम्) (सुतः) निष्पन्नः (सुमख) शोभना मखा यज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ (मा) निषेधे (मृधः) अभिकाङ्क्षितान् सङ्ग्रामान् (कः) कुर्य्याः ॥४॥
भावार्थः
येऽनेकैर्वह्न्यादिभिः पदार्थैर्जनितैर्यन्त्रैश्चालितेषु यानेषु स्थित्वा गच्छन्त्यागच्छन्ति ते स्तुत्या जायन्ते ये धार्मिकैः सह विरोधं न कुर्वन्ति ते विजयिनो भवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (हूयमानः) बुलाये हुए आप (द्वाभ्याम्) दो (हरिभ्याम्) हरणशील पदार्थों से युक्त यानसे आओ, छः पदार्थों से युक्त यानसे आओ (अष्टाभिः) आठ वा (दशभिः) दश पदार्थों से युक्त यान से आओ, जो (अयम्) यह (सुतः) उत्पन्न किया हुआ पदार्थों का पीने योग्य रस है उस (सोमपेयम्) पदार्थों के रस के पीने के लिये आओ, हे (सुमख) सुन्दर यज्ञोंवाले आप सज्जनों के साथ (मृधः) अभीष्ट संग्रामों को (मा,कः) मत करो ॥४॥
भावार्थ
जो अनेक अग्नि आदि पदार्थों से उत्पन्न किये हुए यन्त्रों से चलाये हुए यानों में स्थित होकर जाते आते हैं, वे स्तुति के साथ प्रकट होते हैं। जो धार्मिकों के साथ विरोध नहीं करते, वे विजयी होते हैं ॥४॥
विषय
ब्रह्म की ओर
पदार्थ
१. प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (द्वाभ्यां हरिभ्याम्) = इन दो ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों से (आयाहि) = हमारे समीप प्राप्त होनेवाला हो। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति में लगी रहें तथा कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों में व्याप्त रहें तो हम उस प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। (चतुर्भिः) = शरीर के चारों अंगों से 'शं मे परस्मै गात्राय शमस्त्ववराय मे। शं मे चतुर्भ्यो अंगेभ्यो शमस्तु तन्वै मम' [अथर्व] (आ) = तू हमारे समीप प्राप्त होनेवाला हो । (हूयमानः) = सदा प्रभु को पुकारता हुआ है। तू (षड्भि:) = [मन: षष्ठानि०] मनसहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों (आ) = तू हमारे समीप प्राप्त हो । २. (अष्टाभिः) = पाँचों महाभूत तथा मन, बुद्धि और अहंकार से तू (सोमपेयम्) = सोमपान को (आ) = प्राप्त हो। सोमपान से ही ये सब स्वस्थ व सशक्त बने रहते हैं। (दशभिः) = दशों प्राणों से तू सोमपान के लिए आनेवाला हो । प्राणसाधना से सोम सुरक्षित रहता है और सुरक्षित सोम प्राणशक्ति को बढ़ाता है। 'प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय' ये दस के दस प्राण सोमरक्षण से ही शक्तिशाली बनते हैं । २. (अयं सुतः) = यह सोम तेरे अन्दर उत्पन्न किया गया है। हे सुमख उत्तम यज्ञों में व्याप्त रहनेवाले पुरुष ! तू इस सोम का (मृधः) = हिंसन (मा कः) = मत कर। इस सोम को सर्वथा सुरक्षित करने का प्रयत्न कर। इस सोमरक्षण से ही तू मुझे [ब्रह्म को] प्राप्त करेगा ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने सब अंगों से इस प्रकार क्रियाओं को करें कि ब्रह्म के समीप पहुँचते जाएं। सोमरक्षण द्वारा सब प्राणों को सशक्त बनाएँ, ताकि ब्रह्म को प्राप्त कर पाएँ ।
विषय
सूर्यवत् जीवात्मा का वर्णन-परमेश्वर वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार कोई ऐश्वर्यवान् राजा द्वाभ्यां चतुर्भिः, षड्भिः, अष्टाभिः दशभिः ) दो, चार, छः, आठ या दश अश्वों से ( सोमपेयम् ) ऐश्वर्य भोग या पालन करने योग्य पद को प्राप्त होता है और वह राज्यैश्वर्य का पद प्राप्त करके युद्धादि नहीं करता उसी प्रकार हे परमेश्वर ! तू भी ( स्तूयमानः ) स्तुति द्वारा अभ्यर्थना किया जाकर ( द्वाभ्याम् हरिभ्याम् ) प्राण अपान रूप दो साधनों से (चतुर्भिः) चार वेदों से, ( षड्भिः ) पड् दर्शनों से अथवा ४ चार अन्तः करणों और मन सहित इन्द्रियों से ( अष्टाभिः ) आठों प्रमाणों और ( दशभिः ) दश यमों और नियमों से ( सोमपेयम् ) ब्रह्मास्वाद में ईश्वर के ऐश्वर्यवान् करने लिये ही (आयाहि ) प्राप्त हो, साक्षात् हो, हम तेरा पुनःअभ्यास करके साक्षात् करें । हे ( सुमख ) उत्तम धनैश्वर्य के स्वामिन् ! ( अयं सुतः ) समस्त अग्नि के द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य तुझे ही दिया जाता है ( तू मृधः ) संग्रामों को ( माः कः ) मत कर ( २ ) राजा दो, चार छः, आठ, दश विद्वानों से मिलकर पालनीय ऐश्वर्य पद को प्राप्त हो । तब वह युद्ध न करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे अग्नी इत्यादी पदार्थांनी उत्पन्न झालेल्या यंत्राद्वारे चालविलेल्या यानांमध्ये स्थित होऊन जातात येतात ते स्तुतीस पात्र असतात. जे धार्मिकांना विरोध करीत नाहीत ते विजयी होतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of knowledge and power, come conducted by two, four, and six powers of motion, even by eight or ten for a drink of soma of success which, O high priest of noble yajna, is ready right here. Pray do not engage in any programme of violence and war.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of vehicle again moves on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O technologist ! you possess great prosperity. We invite you to come in your vehicle equipped with power of holding and extraction. We also invite you to visit us travelling in a vehicle which is double, four-times, eight-times and even ten-times in power and speed. After coming with your associate, you take extracted juice of Soma and other herbal plants in order to perform the Yajnas (non-violent sacrificial acts). You never pick up dispute or battles with noble persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who come in their own energy-operated vehicle/transport, they are always received with admirations. Those who do not appose the pious people, they always become victorious.
Foot Notes
(हरिभ्याम् ) हरणशीलाभ्यां पदार्थाभ्याम् = Equipped with holding and extraction powers. (सोमपेयम् ) सोमानां पदार्थानां पातुं योग्यम् । = Juices of the Soma and medicinal plants. (सुमख ) शोभना मजा यज्ञा यस्य ततसम्बुद्दौ|= In the company of those who perform the Yajnas nicely. (मृधः) अभिकन्क्षितान् सङ्गमान् = The desired struggle or battles.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal