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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ विं॑श॒त्या त्रिं॒शता॑ याह्य॒र्वाङा च॑त्वारिं॒शता॒ हरि॑भिर्युजा॒नः। आ प॑ञ्चा॒शता॑ सु॒रथे॑भिरि॒न्द्रा ष॒ष्ट्या स॑प्त॒त्या सो॑म॒पेय॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । विं॒श॒त्या । त्रिं॒शता॑ । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । आ । च॒त्वा॒रिं॒शता॑ । हरि॑ऽभिः । यु॒जा॒नः । आ । प॒ञ्चा॒शता॑ । सु॒ऽरथे॑भिः । इ॒न्द्र॒ । आ । ष॒ष्ट्या । स॒प्त॒त्या । सो॒म॒ऽपेय॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ विंशत्या त्रिंशता याह्यर्वाङा चत्वारिंशता हरिभिर्युजानः। आ पञ्चाशता सुरथेभिरिन्द्रा षष्ट्या सप्तत्या सोमपेयम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। विंशत्या। त्रिंशता। याहि। अर्वाङ्। आ। चत्वारिंशता। हरिऽभिः। युजानः। आ। पञ्चाशता। सुऽरथेभिः। इन्द्र। आ। षष्ट्या। सप्तत्या। सोमऽपेयम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र युजानस्त्वं विंशत्या त्रिंशत्या च हरिभिश्चालितेन यानेनार्वाङ् सोमपेयमायाहि चत्वारिंशता युक्तेन चायाहि। पञ्चाशता हरिभिर्युक्तैः सुरथेभिः षष्ठ्या सप्तत्या च हरिभिर्युक्तैः सुरथेभिरायाहि ॥५॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (विंशत्या) एतत्संख्यया संख्यातैः (त्रिंशता) (याहि) (अर्वाङ्) योऽधोऽञ्चति सः (आ) (चत्वारिंशता) (हरिभिः) हरणशीलैः पदार्थैः (युजानः) युक्तः सन् (आ) (पञ्चाशता) (सुरथेभिः) शोभनैर्यानैः (इन्द्र) असंख्यैश्वर्यप्रद (आ) (षष्ट्या) (सप्तत्या) (सोमपेयम्) सोमेष्वोषधीषु यः पेयो रसस्तम् ॥५॥

    भावार्थः

    यथा विंशतिस्त्रिंशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत्षष्टिः सप्ततिश्च बलिष्ठा अश्वा युगपद्युक्त्वा यानं सद्यो गमयन्ति ततोऽप्यधिकवेगेन वह्न्यादयो गमयन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) असंख्य ऐश्वर्य देनेवाले (युजानः) युक्त होते हुए आप (विंशत्या) बीस (त्रिंशता) और तीस (हरिभिः) हरनेवाले पदार्थों से चलाये हुए यान से (अर्वाङ्) जो नीचे को जाता उस (सोमपेयम्) सोमादि ओषधियों में पीने योग्य रसको (आ,याहि) प्राप्त होओ आओ (चत्वारिंशता) चालीस पदार्थों से युक्त रथसे (आ) आओ (पञ्चाशता) पचास हरणशील पदार्थों से युक्त (सुरथेभिः) सुन्दर रथों से (आ) आओ (षष्ट्या) साठ वा (सप्तत्या) सत्तर हरणशील पदार्थों से युक्त सुन्दर रथों से आओ ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे बीस-तीस-चालीस-पचास-साठ-सत्तर बलवान् घोड़े एक साथ जोड़कर यान को शीघ्र चलाते हैं, उससे अधिक वेग से अग्नि आदि पदार्थ यान को ले जाते हैं ॥५॥

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    विषय

    जितना जल्दी उतना ठीक

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं हे (इन्द्र) जितेन्द्रिय पुरुष ! (विंशत्या) = बीस वर्ष की आयु तक [by the of 20 years] (अर्वाङ् आयाहि) = अन्तर्मुखवृत्तिवाला होता हुआ हमारी ओर आनेवाला बन । बीस वर्ष तक साधना में कुछ कमी रह जाए तो (त्रिंशता) = तीस वर्ष की आयु तक तो अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बनने का प्रयत्न कर ही । (हरिभिः युजानः) = इन्द्रियाश्वों से शरीररथ को सम्यक् जोतता हुआ तू (चत्वारिंशता) -=चालीस वर्ष की उमर तक तो वृत्ति को अन्तर्मुखी कर ही ले । २. हे इन्द्र ! तू (सुरथेभिः) = इन उत्तम शरीररथों से (पञ्चाशता) = पचास वर्ष की आयु में पहुँचकर के तो (सोमपेयम्) = सोम को शरीर में ही पी लेने की शक्ति को आयाहि प्राप्त करले, यह शरीर में व्याप्त किया हुआ सोम ही तेरे शरीररथों को ठीक बनाएगा। षष्ट्या साठ वर्ष में तो यह तेरी साधना पूर्ण हो ही जाए। साठवें वर्ष में भी कुछ कमी रह जाए तो (सप्तत्या) = सत्तरवें वर्ष के अन्त तक तो इस सोमपान की साधना को पूर्ण कर ही ले । सोमपान की साधना से ही तू प्रभु को प्राप्त करनेवाला होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- बीसवें वर्ष में ही हम प्रभु की ओर झुक जाएँ तो सबसे अच्छा, अन्यथा तीसवें, चालीसवें, पचासवें, साठवें व सत्तरवें वर्ष में तो उसकी ओर झुक ही जाएँ।

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    विषय

    सूर्यवत् जीवात्मा का वर्णन-परमेश्वर वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( विंशत्या ) बीस, (त्रिंशता) तीस, ( चत्वारिंशता ) चालीस, ( हरिभिः ) अश्वों और उनके समान तीव्र बुद्धि वाले विद्वानों से ( युजानः ) मिलकर, जुड़ कर उनको नियुक्त करता हुआ (अर्बाङ् आयाहि ) हमें प्राप्त हो । और इसी प्रकार ( पञ्चाशता ) पचास, ( षष्ट्या, सप्तत्या) साठ और सत्तर ( रथेभिः ) रथ सैन्यों से या ब्रह्म में रमण करने के सुख साधनों से ( सोमपेयम् ) ऐश्वर्य पालक के पद को ( आयाहि ) प्राप्त हो । इत्येकविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे वीस, तीस, चाळीस, पन्नास, साठ, सत्तर बलवान घोडे एकदम जोडून यान शीघ्र चालवितात त्यापेक्षा अधिक वेगाने अग्नी इत्यादी पदार्थ यानाला घेऊन जातात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, come hither equipped with twenty, thirty, forty, fifty, sixty, seventy excellent horse powers of chariot for a drink of soma.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Functions of a good chariot/transport are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you give us unlimited prosperity. You come to us in order to take juice of SOMA and herbal plants riding on a chariot/transport driven by twenty or thirty horses. You are free to come to us in a bigger chariot driven by forty, fifty, sixty or even seventy horses.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When a transport is run with twenty, thirty, forty, fifty, sixty or even seventy horses, they move very fast. (Here the horses mean the power which is the modern standard for measuring the power used in automobile and steam equipment). This is evident from the explanation given in the purport by Swami Dayanand that the horses are symbolic of the energy applied in conveyances and transport. Editor.)

    Foot Notes

    (विशत्या चत्वारिंशता, पंचाशताः, षष्ट्या, सप्तत्या) एतत्संख्यमा संख्यतैः = Numbering twenty, thirty, forty fifty, sixty and seventy. (हरिभिः) हरणशीलै: पदार्थे:।= By the transport being driven by the power or electricity, (सुरथेभिः) शोभनैर्यानै:= By wonderful conveyances.

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