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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न म॒ इन्द्रे॑ण स॒ख्यं वि यो॑षद॒स्मभ्य॑मस्य॒ दक्षि॑णा दुहीत। उप॒ ज्येष्ठे॒ वरू॑थे॒ गभ॑स्तौ प्रा॒येप्रा॑ये जिगी॒वांसः॑ स्याम॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । मे॒ । इन्द्रे॑ण । स॒ख्यम् । वि । यो॒ष॒त् । अ॒स्मभ्य॑म् । अ॒स्य॒ । दक्षि॑णा । दु॒ही॒त॒ । उप॑ । ज्येष्ठे॑ । वरू॑थे । गभ॑स्तौ । प्रा॒येऽप्रा॑ये । जि॒गी॒वांसः॑ । स्या॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न म इन्द्रेण सख्यं वि योषदस्मभ्यमस्य दक्षिणा दुहीत। उप ज्येष्ठे वरूथे गभस्तौ प्रायेप्राये जिगीवांसः स्याम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। मे। इन्द्रेण। सख्यम्। वि। योषत्। अस्मभ्यम्। अस्य। दक्षिणा। दुहीत। उप। ज्येष्ठे। वरूथे। गभस्तौ। प्रायेऽप्राये। जिगीवांसः। स्याम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ईश्वरविद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    यस्यास्य दक्षिणाऽस्मभ्यं ज्येष्ठे वरूथे गभस्तौ प्रायेप्राये उपदुहीत तेनेन्द्रेण मम सख्यं यथा न वियोषत्तथा भवतु येन वयं जिगीवांसः स्याम ॥८॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (मे) मम (इन्द्रेण) परमेश्वरेण तेन विदुषा वा (सख्यम्) मित्रस्य भावः (वि) (योषत्) विनश्येत् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (दक्षिणा) विद्यासुशिक्षादानम् (दुहीत) परिपूर्णा स्यात् (उप) (ज्येष्ठे) प्रशस्ये (वरूथे) अत्युत्तमे (गभस्तौ) विज्ञानप्रकाशे (प्रायेप्राये) कमनीये कमनीये (जिगीवांसः) जेतुं शीलाः (स्याम) भवेम ॥८॥

    भावार्थः

    ये सत्यप्रेम्णा जगदीश्वरमाप्तान् विदुषो वा प्राप्तुं सेवितुञ्च कामयन्ते तद्विरोधं नेच्छन्ति ते विद्वांसो भूत्वा ज्येष्ठा जायन्ते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर और विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा गया है।

    पदार्थ

    जिस (अस्य) इस (दक्षिणा) विद्या और सुन्दर शिक्षा का दान (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (ज्येष्ठे) प्रशंसा योग्य (वरूथे) अतीव उत्तम (गभस्तौ) विज्ञान प्रकाश में (प्रायेप्राये) और मनोहर-मनोहर परमेश्वर वा आप्त विद्वान् में (उप,दुहीत) परिपूर्ण होती हो उस (इन्द्रेण) उक्त परमेश्वर वा आप्त विद्वान् से मेरी (सख्यम्) मित्रता जैसे (न,वियोषत्) न विनष्ट हो वैसे हो जिससे हम लोग (जिगीवांसः) विजयशील (स्याम) हों ॥८॥

    भावार्थ

    जो सत्य प्रेम से जगदीश्वर वा आप्त विद्वानों को प्राप्त होने और सेवन करने की कामना करते हैं और उसके विरोध की इच्छा नहीं चाहते हैं, वे विद्वान् होकर ज्येष्ठ होते हैं अर्थात् अति प्रशंसित होते हैं ॥८॥

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    विषय

    अजर्य संगत [मैत्री]

    पदार्थ

    १. जीव प्रार्थना करता है कि (मे) = मेरा इन्द्रेण प्रभु से (सख्यम्) = मित्रभाव (न वियोषत्) = कभी पृथक् न हो। मैं सदा प्रभु का मित्र बना रहूँ। (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (अस्य) = इस प्रभु का (दक्षिणा) = दान (दुहीत) = सब कामनाओं का पूरण करनेवाला हो । यहाँ प्रथम वाक्य में 'मे' एक वचन है। दूसरे वाक्य में 'अस्मभ्यं' बहुवचनान्त है । 'मैं प्रभु की मित्रता से कभी दूर न होऊँ— मेरे में दूषितवृत्ति न उत्पन्न हो' ऐसी प्रार्थना करता हुआ वह औरों की दूषितवृत्ति की कल्पना नहीं करता, परन्तु प्रभु का दान वह केवल अपने लिए नहीं चाहता। २. हम उस प्रभु के (ज्येष्ठे) = श्रेष्ठ (वरूथे) = रक्षण करनेवाली (गभस्तौ) = भुजा में (उप) = समीप रहते हुए-उस प्रभु की भुजच्छाया में रहते हुए- (प्राये प्राये) = [प्रकर्षेण ईयते गम्यते योद्धृभिरत्र सा०] प्रत्येक संग्राम में (जिगीवांसः) = जीतनेवाले (स्याम) = हों । प्रभु की छत्रछाया में हारने का प्रश्न ही नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के मित्र हों । उस मित्र की भुजच्छाया में सदैव विजयी बनें।

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    विषय

    विद्वान् और वीर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( मे ) मेरी ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान् राजा और ज्ञानवान् गुरु और परमेश्वर से ( संख्य ) मैत्री भाव ( न वि योषत् ) कभी न टूटे । ( अस्य ) उसका दिया, ( दक्षिणा ) धन, ज्ञान, और आप्तवर्धक देन ( अस्मभ्यम् ) हमें (दुहीत) गौ के समान नाना सुख प्रदान करे । ( ज्येष्ठे ) अपने से बड़े, ज्येष्ठ भाई के समान प्रिय, ( वरूथे ) दुःखों के दूर करने और करने योग्य ( गभस्तौ ) सूर्य, रश्मि के समान प्रकाशकः वाहु के समान अवलम्बदायक ( प्राये-प्राये ) उत्तम-उत्तम फलदायकः अतिकमनीय, उत्तम २ पद को प्राप्त पुरुष या उपास्य (उप) अधीन रहकर ( जिगीवांसः ) विजयशील स्याम होवे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ४, ८ भुरिक् पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः । ७ निचृत् पङ्क्तिः २, ३, ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे खऱ्या प्रेमाने जगदीश्वर किंवा आप्त विद्वानांना प्राप्त करण्याची किंवा स्वीकार करण्याची इच्छा बाळगतात व विरोधाची इच्छा बाळगत नाहीत ते विद्वान बनून ज्येष्ठ होतात अर्थात् अति प्रशंसित होतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Never may my love and friendship with Indra be snapped, and may his kindness and generosity ever keep it flowing for us abundantly. And may we, closely under his high protection and divine light, be inspired for victory in every project of life at the very start of the expedition.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of God and learned person is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The scholars who impart nice learning to us and at the same time inculcate beautifully the faith and admirable knowledge in our mind. We bow our head before them. We also seek friendship with him, which may be ever-lasting. With it, we shall score victory.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who approach and seek company of Almighty and learned persons with love and truth, they become learned and great and are always admired. They never unnecessarily oppose the right persons.

    Foot Notes

    (इन्द्रोण) परमेश्वरेणाप्तेन विदुषा वा । By Almighty God or learned person. (सख्यम् ) मित्रस्य भावः = Friendship. (दक्षिणा) विद्यासुशिक्षा दानम् । = Imparting of learning (वरुथे ) प्रत्युत्तमे। = In the the excellent. (गभस्तौ ) विज्ञानप्रकाशे = In the light of knowledge. (प्राये प्राये) कमनीये कमनीये = In the inevitably beautiful. (जिगीवांसः) (जेतुं शीला: = Let us score victory.

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