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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॒ पिब॑ स्व॒धया॑ चित्सु॒तस्या॒ग्नेर्वा॑ पाहि जि॒ह्वया॑ यजत्र। अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ प्रय॑तं शक्र॒ हस्ता॒द्धोतु॑र्वा य॒ज्ञं ह॒विषो॑ जुषस्व॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । पिब॑ । स्व॒धया॑ । चि॒त् । सु॒तस्य॑ । अ॒ग्नेः । वा॒ । पा॒हि॒ । जि॒ह्वया॑ । य॒ज॒त्र॒ । अ॒ध्व॒र्योः । वा॒ । प्रऽय॑तम् । श॒क्र॒ । हस्ता॑त् । होतुः॑ । वा॒ । य॒ज्ञम् । ह॒विषः॑ । जु॒ष॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र पिब स्वधया चित्सुतस्याग्नेर्वा पाहि जिह्वया यजत्र। अध्वर्योर्वा प्रयतं शक्र हस्ताद्धोतुर्वा यज्ञं हविषो जुषस्व॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। पिब। स्वधया। चित्। सुतस्य। अग्नेः। वा। पाहि। जिह्वया। यजत्र। अध्वर्योः। वा। प्रऽयतम्। शक्र। हस्तात्। होतुः। वा। यज्ञम्। हविषः। जुषस्व॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे यजत्र शक्रेन्द्र ! त्वमग्नेर्ज्वालेव जिह्वया स्वधया वा चित्सुतस्य रसं पिब अध्वर्योर्वा प्रयतं यज्ञं पाहि। होतुर्हस्ताद्धविषो वा यज्ञं जुषस्व ॥१०॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) ऐश्वर्य्यवन् (पिब) (स्वधया) अन्नेन (चित्) अपि (सुतस्य) निष्पन्नस्य (अग्नेः) पावकस्य (वा) (पाहि) (जिह्वया) ज्वालेव वर्त्तमानया (यजत्र) पूजनीय (अध्वर्योः) य आत्मनोऽध्वरमिच्छति तस्य (वा) (प्रयतम्) प्रयत्नेन सिद्धम् (शक्र) शक्तिमन् (हस्तात्) (होतुः) दातुः (वा) (यज्ञम्) (हविषः) साकल्यात् (जुषस्व) सेवस्व ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यैर्मनुष्यैः सुसाधितस्याऽन्नस्य भोजनं रसस्य पानं कृत्वाऽरोगा भूत्वा विद्वद्भिः सह सङ्गत्य यज्ञः सेव्येत ते सदा सुखिनः स्युः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (यजत्र) आदर करने योग्य (शक्र) शक्तिमान् (इन्द्र) ऐश्वर्य्यवाले ! आप (अग्नेः) अग्नि की (जिह्वया) ज्वाला के सदृश वर्त्तमान लपट से (वा) वा (स्वधया) अन्न से (चित्) भी (सुतस्य) सिद्ध हुए रस का (पिब) पान करिये (अध्वर्योः) आत्मसम्बन्धी यज्ञ की इच्छा करते हुए पुरुष के (वा) अथवा (प्रयतम्) प्रयत्न से सिद्ध (यज्ञम्) यज्ञ का (पाहि) पालन करो (होतुः) देनेवाले के (हस्तात्) हाथ और (हविषः) हवन की सामग्री से (वा) अथवा यज्ञ का (जुषस्व) सेवन करो ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिन मनुष्यों से उत्तम प्रकार सिद्ध किये हुए अन्न का भोजन और रस का पान कर रोगरहित हो और विद्वानों के साथ मेल करके यज्ञ का सेवन किया जाय, वे सदा सुखी होवैं ॥१०॥

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    विषय

    सोमपान [वीर्यरक्षण] के साधन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (सुतस्य) = इस उत्पन्न हुए-हुए सोम का (स्वधया) = आत्मधारण [स्व- धा] द्वारा (चित्) = निश्चय से (पिब) = पान कर। सोमरक्षण का प्रथम साधन यह है कि हम हृदय में आत्मतत्त्व का चिन्तन करें। यह आत्मतत्त्व का चिन्तन हमें वासनात्मक संसार से दूर करता है और इस प्रकार हमारे सोम का विनाश नहीं होता। [२] हे (यजत्र) = यज्ञों द्वारा अपना त्राण करनेवाले पुरुष! तू (अग्ने: जिह्वया) = अग्नि की जिह्वा से वा निश्चयपूर्वक पाहि इस सोम का रक्षण कर । अग्नि की जिह्वा से का भाव यह है कि जैसे अग्निहोत्र में सात्त्विक पदार्थों का ही प्रयोग होता है, उसी प्रकार तू सात्त्विक पदार्थों का सेवन करता हुआ सोम का रक्षण करनेवाला बन । [३] (वा) = अथवा हे (शक्र) = शक्ति का सम्पादन करनेवाले जीव ! (अध्वर्योः हस्तात्) = अध्वर्यु के हाथ सेहिंसारहित कर्मों को करनेवाले के हाथ से (प्रयतम्) = पवित्र कर्मों को (जुषस्व) = तू सेवन करनेवाला हो। इन पवित्र कर्मों के परिणामस्वरूप तू सोम का रक्षण करनेवाला बनेगा। [३] (वा) = अथवा (होतुः यज्ञम्) = होता के यज्ञ का (जुषस्व) = सेवन कर और यज्ञ का सेवन करते हुए (हविष: जुषस्व) = सदा हवि का सेवन करनेवाला हो। यज्ञशेष का सेवन ही हवि का सेवन है। तू यज्ञशेष को खानेवाला बन। यह यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति कभी भी मनुष्य को विलासी नहीं बनने देती। विलास से बचा हुआ मनुष्य ही सोम का रक्षण कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के साधन ये हैं कि- [क] आत्मतत्त्व का चिन्तन, [ख] सात्त्विक भोजन, [ग] पवित्र कर्मों का सेवन और [घ] यज्ञशेष, अर्थात् हवि का ग्रहण ।

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    विषय

    राजा की तीक्ष्ण वाणी, पक्षान्तर में आत्मा और परमेश्वर आचार्य, का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! राजन् विद्वन् ! अथवा (इन्द्र) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र ! तू (स्वधया) अपने धारण और पोषण करने वाली शक्ति से (सुतस्य) निष्पन्न वा अभिषिक्त मुख्य पुरुष के और (अग्नेः वा) अग्नि के समान (जिह्वया) तीव्र ज्वाला रूप तीक्ष्ण वाणी से (सुतस्य पित्र पाहि) प्राप्त हुए राज्य का उपभोग और पालन कर। हे (यजत्र) आदर सत्कार और मैत्री के योग्य पुरुष ! हे (शक्र) शक्तिशालिन् ! तू (अध्वर्योः) अध्वर अर्थात् प्रजा के हिंसन, पीड़न से रहित योग्य पुरुष के (हस्तात्) हाथ और (होतुः) दानशील और संग्रहशील पुरुष के हाथ से (प्रयतं) अच्छी प्रकार सुसंयत (यज्ञं) और सुसंगत राष्ट्र की रक्षा कर और (हविषः) उत्तम अन्न को (जुषस्व) प्रेम से स्वीकार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे उत्तम प्रकारे सिद्ध केलेल्या अन्नाचे भोजन व रसाचे पान करून रोगरहित होतात व विद्वानांबरोबर यज्ञ करतात ती नेहमी सुखी राहतात. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, glorious ruler of the world, drink of the soma distilled with the tongue of fire. O lord venerable, drink of it and protect it with your strength and power. Lord of power and honour, join and develop the yajna instituted and conducted by the yajamana and the highpriest with oblations of fragrant materials offered with their own hands.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties for men are further detailed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O adorable Indra ! you are mighty possessor of abundant wealth, both mundane and spiritual. Drink the juice of Soma that has been effused, with your tongue (uttered or prayed) like the flame of the fire. Along with feeding to needy, protect the Yajna of a non-violent person accomplished with great labor. Serve the Yajna (donate) with generous and liberal hands.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons always enjoy happiness, who take well-cooked good food and drink good juice and are free from all diseases. Serve or preform the Yajna in association with the enlightened persons.

    Foot Notes

    (स्वधया) अन्नेन । स्वधेति अन्ननाम (NG 2,7) = With food. ( होतुः ) दातुः । (होतुः ) हु-दानादनयोः आदाने च ( जुहो०) Of the donor. Here the first meaning of a or donation has been taken.

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