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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तवा॒यं सोम॒स्त्वमेह्य॒र्वाङ् श॑श्वत्त॒मं सु॒मना॑ अ॒स्य पा॑हि। अ॒स्मिन्य॒ज्ञे ब॒र्हिष्या नि॒षद्या॑ दधि॒ष्वेमं ज॒ठर॒ इन्दु॑मिन्द्र॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । अ॒यम् । सोमः॑ । त्वम् । आ । इ॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । सु॒ऽमनाः॑ । अ॒स्य । पा॒हि॒ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । ब॒र्हिषि । आ । नि॒ऽसद्य॑ । द॒धि॒ष्व । इ॒मम् । ज॒ठरे॑ । इन्दु॑म् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तवायं सोमस्त्वमेह्यर्वाङ् शश्वत्तमं सुमना अस्य पाहि। अस्मिन्यज्ञे बर्हिष्या निषद्या दधिष्वेमं जठर इन्दुमिन्द्र॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। अयम्। सोमः। त्वम्। आ। इहि। अर्वाङ्। शश्वत्ऽतमम्। सुऽमनाः। अस्य। पाहि। अस्मिन्। यज्ञे। बर्हिषि। आ। निऽसद्य। दधिष्व। इमम्। जठरे। इन्दुम्। इन्द्र॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! तव योऽयमर्वाङ् सोमस्तं शश्वत्तमं त्वमेहि। अस्मिन्बर्हिषि यज्ञे निषद्य सुमनाः सन्निमं पाहि। अस्य सकाशात् प्राप्तमिन्दुं जठर आ दधिष्व ॥६॥

    पदार्थः

    (तव) (अयम्) (सोमः) ऐश्वर्य्ययोगः (त्वम्) (आ) (इहि) प्राप्नुहि (अर्वाङ्) अधस्ताद्वर्त्तमानः (शश्वत्तमम्) अतिशयेनाऽनादिभूतम् (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः (अस्य) बोधस्य (पाहि) (अस्मिन्) (यज्ञे) शिल्पसम्पाद्ये व्यवहारे (बर्हिषि) अत्युत्तमे (आ) समन्तात् (निषद्य) नितरां स्थित्वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (दधिष्व) धेहि (इमम्) (जठरे) उदरे (इन्दुम्) सार्द्रपदार्थम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यमिच्छुक ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या अस्मिन्त्सर्वोत्तमे शिल्पसाध्ये व्यवहारे निपुणा भूत्वाऽनादिभूतं पूर्वैर्विद्वद्भिः प्राप्तमैश्वर्य्यं विधाय सर्वस्यास्य जगतो रक्षणे निधाय युक्ताहारविहारेणाऽऽनन्दं भुङ्क्त ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के इच्छा करनेवाले ! (तव) आपका जो (अयम्) यह (अर्वाङ्) अधोभाग में विद्यमान (सोमः) ऐश्वर्य्य का संयोग उस (शश्वत्तमम्) अत्यन्त अनादि काल से सिद्ध ऐश्वर्य्य संयोग को (त्वम्) आप (आ) (इहि) प्राप्त हूजिये (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) अतिउत्तम (यज्ञे) शिल्प विद्या से होने योग्य व्यवहार में (निषद्य) निरन्तर स्थिर होकर (सुमनाः) प्रसन्नचित्त हुए (इमम्) इसकी (पाहि) रक्षा करो और (अस्य) इस ज्ञान की उत्तेजना से प्राप्त (इन्दुम्) गीले पदार्थ को (जठरे) उदर में (आ) सब प्रकार (दधिष्व) धारण कीजिये ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इस सबसे उत्तम शिल्पविद्या से साध्य व्यवहार में चतुर होके अनादि काल से उत्पन्न और प्राचीन विद्वानों से प्राप्त ऐश्वर्य्य को सिद्ध कर इस संसार की रक्षा के लिये स्थित करके योग्य आहार और विहार से आनन्द भोगो ॥६॥

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    विषय

    सुमना:

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (अयं सोमः तव) = यह सोम [वीर्यशक्ति] तेरा है। इसके रक्षण के लिए (त्वम्) = तू (अर्वाङ् एहि) = अन्दर की ओर आनेवाला हो- अन्तर्मुखी वृत्तिवाला हो । (शश्वत्तमम्) = [शश प्लुतगतौ] अत्यन्त प्लुत गति से, अर्थात् सदा स्फूर्ति से कार्यों में लगे रहकर, (सुमना:) = उत्तम मनवाला होता हुआ तू (अस्य पाहि) = इस सोम का रक्षण कर। सोमरक्षण के लिए आवश्यक है कि हम सदा कर्मों में लगे रहें और मन में वासनात्मक विचारों को न आने दें। [२] (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में, (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (आनिषद्य) = सब प्रकार से बैठकर (इमं इन्दुम्) = इस सोम को जठरे अपने उदर के अन्दर ही दधिष्व धारण कर। 'सोम को शरीर में व्यप्त करना' ही सब उन्नतियों का मूल है। इस को शरीर में व्याप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम यज्ञात्मक कर्मों में व्याप्त रहें हृदय में से वासनाओं को उखाड़ फेंकें।

    भावार्थ

    भावार्थ– क्रिया में लगे रहकर व मन में वासनाओं को न आने देकर हम सोम का रक्षण -करें।

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    विषय

    स्थायी राजा की नियुक्ति पक्षान्तर में आचार्य का शिष्य पालन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! (अयं सोमः) यह समस्त ऐश्वर्य और शासन (तव) तेरा है। तू (अर्वाङ्) इसके नीचे, आश्रयरूप होकर (सुमनाः) शुभ चित्त और ज्ञान से युक्त होकर (अस्य) इसके (शश्वत्तमम्) अति स्थायी पद को (पाहि) सुरक्षित रख और उसका उपभोग कर। (अस्मिन्) इस (यज्ञे) अतिपूज्य, आदरणीय और सबके प्रति मित्रभाव से वर्त्तने योग्य (बर्हिषि) वृद्धिशील परम आसन और प्रजामय राष्ट्र पर (निषद्य) स्थिरता से विराज कर (इमं) इसके (इन्दुम्) स्नेह से आर्द्र आहार के समान ही (जठरे) अपने उत्पादक शासन के भीतर (दधिष्व) धारण कर। अध्यात्म में—‘सोम’ शिष्य का शुभ चित्त से पालन करे, इस ब्रह्माध्यापन पुण्यदानकार्य में उच्च आसन पर विराज कर (इन्दुम्) स्नेहार्द्र शिष्य का अपने विद्या के गर्भ में लेकर शिष्य को भी, पुत्र को माता के समान उत्पन्न करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! सर्वात उत्तम शिल्पविद्येने साध्य करणाऱ्या व्यवहारात निपुण बनून अनादि काळापासून उत्पन्न झालेले व प्राचीन विद्वानांकडून प्राप्त झालेले ऐश्वर्य घेऊन या जगाच्या रक्षणासाठी ते स्थित ठेवा व योग्य आहार-विहाराने आनंद भोगा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, this soma is yours, come you hither, happy at heart, partake of it, lasting and constant as it is in power and energy. Sit on the holy grass in this yajna and hold it in the strong interior of the chariot.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men are further explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O desirous of attaining prosperity ! the chance of getting wealth or achieving success is under your own heels. This fact or truth has been told to you since times immemorial. Come forward to receive it and follow it carefully and remain always cheerful. Preserve this useful and good knowledge, because you are firmly established in this great Yajna (dealings related to the art and industry). Whatever good and suitable juicy articles you get, put them into your belly, that is lat them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you are expert in the technology and acquire the lasting wealth as done by the ancient learned persons. Thereafter, you enjoy bliss by using this wealth in supporting or upholding the world and leading regular lives. You should fix due time for eating, walking and other daily duties.

    Foot Notes

    (बर्हिषि) अत्युत्तमे । बर्हिषि इति महन्नाम (NG 3.3) = Very good, best. (यज्ञे) शिल्पसाध्ये व्यवहारे,। = In the dealings to be accomplished with the knowledge of technology. (इन्दुम् ) सार्द्रपदार्थम् । इन्दुरिति उदकनाम (NG 1, 12 ) इन्दुरिन्धेरुनत्तर्वेति NKT 10,4,41 ) = Juicy articles like Soma. (सोमः) ऐश्वर्य्ययोग:। = Chance of achieving prosperity.

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