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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    याँ आभ॑जो म॒रुत॑ इन्द्र॒ सोमे॒ ये त्वामव॑र्ध॒न्नभ॑वन्ग॒णस्ते॑। तेभि॑रे॒तं स॒जोषा॑ वावशा॒नो॒३॒॑ग्नेः पि॑ब जि॒ह्वया॒ सोम॑मिन्द्र॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यान् । आ । अभ॑जः । म॒रुतः॑ । इ॒न्द्र॒ । सोमे॑ । ये । त्वाम् । अव॑र्धन् । अभ॑वन् । ग॒णः । ते॒ । तेभिः॑ । ए॒तम् । स॒ऽजोषाः॑ । वा॒व॒शा॒नः । अ॒ग्नेः । पि॒ब॒ । जि॒ह्वया॑ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याँ आभजो मरुत इन्द्र सोमे ये त्वामवर्धन्नभवन्गणस्ते। तेभिरेतं सजोषा वावशानो३ग्नेः पिब जिह्वया सोममिन्द्र॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यान्। आ। अभजः। मरुतः। इन्द्र। सोमे। ये। त्वाम्। अवर्धन्। अभवन्। गणः। ते। तेभिः। एतम्। सऽजोषाः। वावशानः। अग्नेः। पिब। जिह्वया। सोमम्। इन्द्र॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वं सोमे यान् विदुषो मरुत इवाभजो ये सोमे त्वामवर्धन् यस्ते गणस्तं प्राप्याऽऽनन्दिता अभवँस्तेभिः सह हे इन्द्र सजोषा वावशानः सन्नग्नेर्जिह्वयैतं सोमं पिब ॥९॥

    पदार्थः

    (यान्) विदुषः (आ) (अभजः) सेवेथाः (मरुतः) प्राणानिव प्रियानाप्तान् (इन्द्र) सकलैश्वर्यप्रद (सोमे) ऐश्वर्य्ये (ये) (त्वाम्) (अवर्धन्) वर्धयेयुः (अभवन्) भवेयुः (गणः) समूहः (ते) तव (तेभिः) तैस्सह (एतम्) (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (वावशानः) भृशं कामयमानः (अग्नेः) पावकस्य (पिब) (जिह्वया) ज्वालेव वर्त्तमानया (सोमम्) रसम् (इन्द्र) दुःखविदारक ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि प्राणानिव प्रियानाप्तान् विदुषो मनुष्याः सेवेरन् तर्ह्येतांस्ते सर्वतो वर्धयेयुर्यथाऽग्निर्ज्वालया सर्वान् रसान् पिबति तथैव तीव्रक्षुधा सह वर्त्तमानोऽन्नं भुञ्जीत पेयं पिबेच्च ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! आप ऐश्वर्य्य में (यान्) जिन विद्वानों को (मरुतः) प्राणों के सदृश प्रिय और श्रेष्ठ जान के (आ, अभजः) सेवन करो (ये) जो लोग (सोमे) ऐश्वर्य्य में (त्वाम्) आपकी (अवर्धन्) वृद्धि करैं जो (ते) आपका (गणः) समूह उसको प्राप्त होके आनन्दित (अभवन्) होवें (तेभिः) उन लोगों के साथ हे (इन्द्र) दुःख के नाश करनेवाले ! (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवनकर्त्ता (वावशानः) अत्यन्त कामना करते हुए आप (अग्नेः) अग्नि की (जिह्वया) ज्वाला के सदृश वर्त्तमान गुण से (एतम्) इस (सोमम्) सोम रस का (पिब) पान करो ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्राण के सदृश प्रिय और श्रेष्ठ विद्वान् जनों की मनुष्य लोग सेवा करैं तो इन मनुष्यों की वे विद्वान् लोग सब प्रकार वृद्धि करैं और जैसे अग्नि ज्वाला से सम्पूर्ण रसों का पान करता है, वैसे ही तीक्ष्ण क्षुधा के सहित वर्त्तमान पुरुष अन्न का भोजन करै और पान करने योग्य वस्तु का पान करै ॥९॥

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    विषय

    प्राणसाधना व सात्त्विक भोजन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (यान् मरुतः) = जिन प्राणों को तूने (सोमे) = सोमरक्षण के निमित्त (आभजः) = सेवन किया है। प्राणसाधना द्वारा ही तो मनुष्य ऊर्ध्वरेता बनता है। प्राणसाधना ही मनुष्य के लिए सोमरक्षण का साधन बनती है। इस प्रकार सोमरक्षण द्वारा ये जो प्राण (त्वां अवर्धन्) = तेरा वर्धन करते हैं। वस्तुत: (ते) = वे मरुत् [प्राण] (गणः अभवन्) = तेरे गण व सहायक बनते हैं । [२] (तेभिः) = उन मरुतों के साथ (सजोषाः) = समानरूप से प्रीतिवाला होता हुआ तू (वावशानः) = प्रबल इच्छावाला होकर, (अग्ने: जिह्वया) = अग्नि की जिह्वा से (एतं सोमम्) = इस सोम को (पिब) = पीनेवाला हो । सोम-रक्षण के दो मुख्य साधन 'प्राणसाधना व सात्त्विक भोजन' ही हैं। प्राणसाधना का संकेत 'तेभिः सजोषाः' इन शब्दों से हो रहा है और सात्त्विक भोजन का संकेत 'अग्ने: जिह्वया' इन शब्दों से किया गया है। अग्नि में अपवित्र पदार्थों को नहीं डाला जाता । मन्त्र का पूर्वार्ध भी प्राणसाधना का प्रबलरूप में प्रतिपादन कर रहा है, उसके बिना किसी प्रकार की उन्नति का सम्भव नहीं।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना व सात्त्विक भोजन द्वारा हम सोम का [वीर्य का] रक्षण करनेवाले बनें । यही उन्नति का मार्ग है।

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    विषय

    सूर्य वत् राष्ट्र के प्रबन्धक अधीन शासकों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यान् मरुतः) जिन वायु के समान बलवान् पुरुषों को तू (सोमे) अपने ऐश्वर्य की प्राप्ति और अभिषेक के कार्य में (आ अभजः) अपने अधीन नियुक्त करे और जो (त्वाम् अवर्धन्) तुझे बढ़ावें वे (ते गणः) तेरा सहायक दल है (तेभिः) उनके साथ (सजोषाः) समान रूप से प्रीतियुक्त होकर (वावशानः) उनको खूब अच्छी प्रकार चाहता हुआ (अग्नेः जिह्वया) अग्नि की ज्वाला के समान अग्रणी नायक विद्वान् पुरुष की वाणी या सब ग्रस जाने वाली शक्ति से (इन्द्र) हे इन्द्र ! ऐश्वर्यवन् ! तू (सोमं पिब) राष्ट्र के ऐश्वर्य को उपभोग और पालन कर। (२) आचार्य शिष्य पक्ष में—अग्नि और इन्द्र आचार्य हैं, मरुद्गण और सोम शिष्य हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्राणासारख्या प्रिय व श्रेष्ठ विद्वान लोकांची माणसांनी सेवा केली तर त्या माणसांची ते विद्वान लोक सर्व प्रकारे वृद्धी करतात व जसा अग्नी संपूर्ण रसांचे पान करतो तसे तीव्र क्षुधा असलेल्या पुरुषांनी अन्नाचे सेवन करावे व पान करण्यायोग्य वस्तूचे पान करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of knowledge, power and glory, the winds and men you engage in your soma project of science and development, who lead you to honour and advancement, and who become your force and allies : with them, celebrating in joy, shining and resounding, drink of the soma with the tongue of fire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties for persons are assigned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! you are giver of much wealth and remover of all miseries. Drink this juice of Soma and other herbs along with the absolutely truthful and enlightened persons because they are dear to like your Pranas (Vital airs). They have encouraged and helped you in the attainment of prosperity, and are delighted when they get your protective umbrella. Drink this invigorating juice for seeking vigor. The loving and serving enlightened persons drink it like the fire consume it with tongue of flames.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men should serve the enlightened persons like their dear Pranas (vital airs) and should help them to grow harmoniously. The fire drinks all juices with its flame, same way a man should eat and drink only when he has good appetite and thirst.

    Foot Notes

    (मरुतः ) प्राणानिव प्रियानाप्तान् । प्राणो वै मरुत: Aitareya 3,16)= Absolutely truthful enlightened persons who are dear like one's Pranas or vital airs. (सजोषाः ) समानप्रीतिसेवी । सजोष: जुषी-प्रीतिसेवनयो: (तुदा० ) = Equally loving and sewing. (वावशान:) भृशं कामयमान:। = Desiring strongly.

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