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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्ती॒र्णं ते॑ ब॒र्हिः सु॒त इ॑न्द्र॒ सोमः॑ कृ॒ता धा॒ना अत्त॑वे ते॒ हरि॑भ्याम्। तदो॑कसे पुरु॒शाका॑य॒ वृष्णे॑ म॒रुत्व॑ते॒ तुभ्यं॑ रा॒ता ह॒वींषि॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्ती॒र्णम् । ते॒ । ब॒र्हिः । सु॒तः । इ॒न्द्र॒ । सोमः॑ । कृ॒ताः । धा॒नाः । अत्त॑वे । ते॒ । हरि॑ऽभ्याम् । तत्ऽओ॑कसे । पु॒रु॒ऽशाका॑य । वृष्णे॑ । म॒रुत्व॑ते । तुभ्य॑म् । रा॒ता । ह॒वींषि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तीर्णं ते बर्हिः सुत इन्द्र सोमः कृता धाना अत्तवे ते हरिभ्याम्। तदोकसे पुरुशाकाय वृष्णे मरुत्वते तुभ्यं राता हवींषि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तीर्णम्। ते। बर्हिः। सुतः। इन्द्र। सोमः। कृताः। धानाः। अत्तवे। ते। हरिऽभ्याम्। तत्ऽओकसे। पुरुऽशाकाय। वृष्णे। मरुत्वते। तुभ्यम्। राता। हवींषि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ते स्तीर्णं बर्हिस्सुतस्सोमः कृता धाना हरिभ्यां युक्ते याने स्थिता यत्ते तदोकसे पुरुशाकाय वृष्णे मरुत्वते तुभ्यमत्तवे यानि हवींषि राता सन्ति तानि भुङ्क्ष्व ॥७॥

    पदार्थः

    (स्तीर्णम्) आच्छादितम् (ते) तव (बर्हिः) वृद्धमुदकम्। बर्हिरित्युदकना०। निघं० १। १२। (सुतः) निष्पादितः (इन्द्र) दारिद्र्यविदारक (सोमः) ऐश्वर्य्ययोगः (कृताः) निष्पन्नाः (धानाः) पक्वान्नविशेषाः (अत्तवे) अत्तुम् (ते) (हरिभ्याम्) (तदोकसे) तद्यानमोकः स्थानं यस्य तस्मै (पुरुशाकाय) बहुशक्तये (वृष्णे) वर्षणशीलाय (मरुत्वते) मरुतो बहवो मनुष्याः कार्य्यसाधका विद्यन्ते यस्य तस्मै (तुभ्यम्) (राता) दत्तानि (हवींषि) अत्तुमर्हाण्यन्नादीनि ॥७॥

    भावार्थः

    सर्वे मनुष्या निमृष्टपदार्थभोक्तारस्स्युर्नैवाऽन्यायेनोपार्जितं किञ्चिदपि भुज्जीरन्नेवं वर्त्तमाने कृते धनशक्तिविद्याऽऽयूंषि वर्धन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दरिद्रता के नाश करनेवाले ! (ते) आपका (स्तीर्णम्) ढंपा और (बर्हिः) बढ़ा हुआ जल वा (सुतः) उत्पन्न किया गया (सोमः) ऐश्वर्य्य का संयोग वा (कृताः) सिद्ध किये गये (धानाः) पके हुए अन्न विशेष वा (हरिभ्याम्) घोड़ों से संयुक्त वाहन पर बैठे हुए जो (ते) आपके जन और (तदोकसे) वाहनरूप स्थानवाले (पुरुशाकाय) अनेक प्रकार की शक्ति से (वृष्णे) वृष्टि करानेवाले (मरुत्वते) कार्य्य करानेवाले बहुत मनुष्यों के सहित विराजमान (तुभ्यम्) आपके लिये (अत्तवे) भोजन करने को जो (हवींषि) भोजन करने के योग्य अन्न आदि (राता) वर्त्तमान उनको भोगो ॥७॥

    भावार्थ

    सम्पूर्ण जन उत्तम पदार्थों के भोजन करनेवाले हों और अन्याय से इकट्ठे किये हुए किसी भी पदार्थ का भोग न करैं, इस प्रकार वर्त्ताव करने पर धनसामर्थ्य, विद्या और आयु बढ़ते हैं ॥७॥

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    विषय

    तदोकस्-पुरुशाक

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते) = आपके लिए (बर्हिः) = यह वासनाशून्य हृदयरूप आसन (स्तीर्णम्) = बिछाया गया है। मैंने हृदय को वासनाशून्य करके निर्मल किया है। इसी हृदय में आपकी स्थिति होती है। आपकी प्राप्ति के लिए ही (सोमः सुतः) = सोम का (वीर्यशक्ति का) सम्पादन हुआ है। इस सोम के रक्षण से ही ज्ञानाग्नि दीप्त होती है। ते आपके दिये हुए (हरिभ्याम्) = इन इन्द्रियाश्वों के (अत्तवे) = खाने के लिए (धानाः कृताः) = भुने हुए जौ किए गये हैं। इस सात्त्विक भोजन के परिणाम स्वरूप मेरी इन्द्रियाँ व मन सात्त्विक वृत्तिवाले बने हैं। [२] इस जीव से प्रभु कहते हैं कि (तदोकसे) = [तत्=That वह सर्वव्यापक प्रभु] प्रभु को अपना घर बनानेवाले, (पुरुशाकाय) = पालक व पूरक शक्तिवाले, (वृष्णे) = शक्तिशाली (मरुत्वते) = प्रशस्त प्राणोंवाले-प्राणसाधना में प्रवृत्त होनेवाले (तुभ्यम्) = तेरे लिए (हवींषि राता) = हवि दी गई हैं। दानपूर्वक अदन ही 'हवि' है 'हु दानादनयोः' । इस हवि का सेवन करनेवाला ही प्रभु का उपासक होता है। यही 'तदोकस्'=प्रभुरूप गृहवाला बनता है-प्रभु में निवास करता है। यही वासनाओं में न फँसने के कारण 'पुरुशाक' =अत्यन्त शक्तिशाली बनता है। यह अपनी शक्ति द्वारा सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला 'वृषा' बनता है। ऐसा बनने के लिए ही यह प्राणसाधना में प्रवृत्त होकर 'मरुत्वान्' होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदय को वासनाशून्य बनाएँ, सोम (वीर्य) का रक्षण करें और जौ आदि सात्त्विक भोजनों को ही करें। सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले यज्ञशेष का सेवन करनेवाले हों।

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    विषय

    सूर्य वत् राष्ट्र के प्रबन्धक अधीन शासकों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य के समक्ष (बर्हिः) यह महान् आकाश या भूलोक (स्तीर्ण) विस्तृत रहता है। (सुतः सोमः) जल निषिक्त होता है। सूर्य के (हरिभ्यां) प्रकाश ताप जलादि लेने और लाने वाले किरणों से ही (अत्तवे) संसार के खाने योग्य (धानाः कृताः) अन्न, दाना उत्पन्न होते हैं, सूर्य का अपना स्थान दूर भी है तो भी वह (पुरुशाकाय) बहुत शक्तिशाली या बहुतसे हरे शाकादि उत्पन्न करने वाला (वृष्णे मरुत्वते) वर्षणशील वायुओं का सञ्चालक होता है ये अन्न भी उसी के दिये होते हैं, उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! (ते) तेरा यह (बर्हिः) वृद्धिशील प्रजामय राष्ट्रलोक (स्तीर्ण) अति विस्तृत हो। (ते) तेरे लिये (सोमः) ऐश्वर्य वा अभिषेक भी (सुतः) किया जाय। (ते) तेरे (हरिभ्याम्) उत्तम नायकों द्वारा (अत्तवे) उपभोग के लिये (धानाः) राष्ट्र को धारण करने वाले पुरुष वा पालने योग्य प्रजाएं भी (कृताः) अच्छी प्रकार सुशासित हों, वे अन्नादि के समान उपभोग योग्य हों। (तदोकसे) उस उत्तम स्थान या गृह में निवास करने वाले (पुरुशाकाय) बहुत से सामर्थ्यों से सम्पन्न (वृष्णे) बलवान् राज्यप्रबन्धक (मरुत्वते) वायु तुल्य वीर सैनिकों के स्वामी (तुभ्यं) तेरे और तेरे लिये ही ये (हवींषि) ग्रहण करने और देने योग्य अन्नादि ऐश्वर्य (राता) दिये और तुझे ही दिये जाने योग्य हैं। (२) अध्यात्म में—प्राणों का स्वामी आत्मा ‘मरुत्वान्’ है। उसके भोजन के लिये ये अन्नादि, धान्य, सोम ओषधिरस और (बर्हिः) प्रजा सन्तानादि हैं। यह गृह ‘ओक्स्’ है, इन्द्रियगण शक्ति है अतः ‘पुरुशाक’ है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व लोकांनी उत्तम पदार्थांचे भोजन करावे. अन्यायाने एकत्र केलेल्या कोणत्याही पदार्थांचा भोग करू नये. अशा प्रकारचे आचरण करण्याने धन, सामर्थ्य, विद्या व आयुष्य वाढते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The liquid fuel, distilled and packed, is ready for you. The foods for the consumption of your motive forces are prepared and ready. All the inputs for you too are ready and reserved for the lord of the chariot, mighty helpful, creative and generous, lord of the wings of winds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties for men are extensively dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ( annihilator of poverty) ! a good seat has been prepared for you a large quantity of distilled (purified) water has been kept for your bath and drink along with other things discooked. Fried meals have been prepared for you to eat and fooder for the use of your vigorous steeds. Virions kinds of good edibles have been prepared and are offered to you, seated in a good car. You are very mighty and shower happiness, assisted by many good and brave men. Take and eat them gladly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The people should eat only very good edibles. They should not take anything which has been acquired unjustly. By so doing, wealth, power, knowledge and longevity all grow.

    Foot Notes

    (इन्द्र) दारिद्रयविदाराक्। = Annihilator of poverty. (बर्हिः) वृद्धमुदकम् । वर्हिरित्युदकनाम । (NG1, 12 ) = Water in large quantity. (पुरुशाकाय) बहुशक्रये । = Very powerful. (मरुत्वते) मरुतो बहवो मनुष्या: कार्य्यसाधका विद्यन्ते यस्य तस्मै । मरुत: मित राविणो, वा मितरोचनो, वा महद् द्रवन्तीतिवा। NRT 11.2.14. One who has many good and brave men to accomplish his work. It means brave and powerful men.

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