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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उपा॑जि॒रा पु॑रुहू॒ताय॒ सप्ती॒ हरी॒ रथ॑स्य धू॒र्ष्वा यु॑नज्मि। द्र॒वद्यथा॒ संभृ॑तं वि॒श्वत॑श्चि॒दुपे॒मं य॒ज्ञमा व॑हात॒ इन्द्र॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । अ॒जि॒रा । पु॒रु॒ऽहू॒ताय॑ । सप्ती॒ इति॑ । हरी॒ इति॑ । रथ॑स्य । धूः॒ऽसु । आ । यु॒न॒ज्मि॒ । द्र॒वत् । यथा॑ । सम्ऽभृ॑तम् । वि॒श्वतः॑ । चि॒त् । उप॑ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । आ । व॒हा॒तः॒ । इन्द्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपाजिरा पुरुहूताय सप्ती हरी रथस्य धूर्ष्वा युनज्मि। द्रवद्यथा संभृतं विश्वतश्चिदुपेमं यज्ञमा वहात इन्द्रम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। अजिरा। पुरुऽहूताय। सप्ती इति। हरी इति। रथस्य। धूःऽसु। आ। युनज्मि। द्रवत्। यथा। सम्ऽभृतम्। विश्वतः। चित्। उप। इमम्। यज्ञम्। आ। वहातः। इन्द्रम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथाऽहं याविमं यज्ञमिन्द्रमावहातो विश्वतो द्रवत्सम्भृतं चिदप्युपावहातस्तौ पुरुहूताय वर्त्तमानावजिरा सप्ती हरी रथस्य धूर्षु युनज्मि तौ यूयमपि युङ्ग्ध्वम् ॥२॥

    पदार्थः

    (उप) (अजिरा) यानानां प्रक्षेप्तारौ (पुरुहूताय) बहुभिराहूताय (सप्ती) सद्यः सर्पन्तौ। अत्र वाच्छन्दसीति गुणे कृते रेफलोपः। (हरी) हरणशीलौ (रथस्य) यानस्य (धूर्षु) रथाधारावयवेषु (आ) समन्तात् (युनज्मि) (द्रवत्) द्रवं प्राप्नुवत् (यथा) (सम्भृतम्) सम्यग्धृतम् (विश्वतः) सर्वतः (चित्) अपि (उप) (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) शिल्पविद्यासाध्यम् (आ) (वहातः) वहेताम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् ॥२॥

    भावार्थः

    ये यानेषु विद्युदादिपदार्थान्संयोज्य चालयन्ति ते कं कं देशं न गच्छेयुः? तेषां किमैश्वर्य्यमप्राप्तं स्यात् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे मैं जो (इमम्) इस प्रत्यक्ष (यज्ञम्) शिल्प विद्या से होने योग्य (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवान् काम को सब प्रकार चलाते (विश्वतः) वा सब ओर से (द्रवत्) पिघलने को प्राप्त होते हुए (सम्भृतम्) उत्तम प्रकार धारण किये गये पदार्थ को (चित्) भी (उप) समीप में (आ, वहातः) वहाते उन (पुरुहूताय) बहुतों ने बुलाये गये के लिये वर्त्तमान (अजिरा) वाहनों के फेंकने (सप्ती) शीघ्र चलने (हरी) और यान को ले जानेवाले का (रथस्य) वाहन की (धूर्षु) धुरियों में जिनको (उप, आ, युनज्मि) जोड़ता हूँ, उनको आप लोग भी जोड़िये ॥२॥

    भावार्थ

    जो लोग वाहनों में बिजुली आदि पदार्थों को संयुक्त करके चलाते हैं, वे किस-किस देश को न जा सकैं ? और उनको कौनसा ऐश्वर्य्य है जो न प्राप्त होवै ? ॥२॥

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    विषय

    इन्द्रियाश्वों को शरीर-रथ में जोतना

    पदार्थ

    [१] मैं (पुरुहूताय) = बहुतों से पुकारे जानेवाले उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए (अजिरा) = गतिशील हरी हमें मार्ग पर आगे ले चलनेवाले (सप्ती) = इन्द्रियाश्वों को (रथस्य धूर्षु) = शरीर रथ की धुराओं में (उपायुनज्मि) = जोतता हूँ। (यथा) = जिससे यह रथ (द्रवत्) = शीघ्रता से प्रभु की ओर गतिवाला होता है। वस्तुत: कर्मों में लगे रहना ही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है, कर्मों द्वारा ही प्रभु की अर्चना होती है। [२] हमारे ये इन्द्रियाश्व (विश्वतः) = सब दृष्टिकोणों से (संभृतं चित्) = सम्यक् भरण किये गये (इमं यज्ञम्) = इस जीवनयज्ञ में (इन्द्रम्) = उस प्रभु को (उप) = समीपता से (आवहातः) = प्राप्त कराते हैं। जिस समय इस जीवनयज्ञ में आवश्यक सब सामग्रियों को उपस्थित किया जाता है, तो हम अवश्य प्रभु को प्राप्त करनेवाले होते हैं। 'इन्द्रियों की शक्ति, मन की पवित्रता, बुद्धि की तीव्रता' ये बातें ऐसी हैं, जो कि जीवनयज्ञ को पूर्ण बनाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- क्रियाशीलता से प्रभु प्राप्त होते हैं। जीवनयज्ञ को हम पूर्ण बनाएँ, तो अवश्य प्रभु की प्राप्ति होती है।

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    विषय

    युद्ध रथ।

    भावार्थ

    मैं (पुरुहूताय) बहुत सी प्रजाओं द्वारा बुलाये जाने योग्य पुरुष के लिये (रथस्य) रथ को (हरी) वेग से ले जाने में समर्थ (सप्ती) उत्तम (अजिरा) वेग से जाने वाले अश्वों को (धूर्षु) रथ को धारण करने वाले धुराओं में (उप युनज्मि) लगावें (यथा) जिससे वह रथ (द्रवत्) वेग से चले। और वे दोनों अश्व (विश्वतः) सब प्रकार से (सम्भृतं) उत्तम युद्धादि साधनों से सुसज्जित (इमं यज्ञम्) इस उत्तम संग्राम और सुसंगति युक्त राष्ट्र-यज्ञ को (इन्द्रम्) शत्रुहन्ता पुरुष को (चित्) उत्तम रीति से (उप आवहातः) ले जावें और प्राप्त करावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक वाहनात विद्युत इत्यादी पदार्थांना संयुक्त करून चालवितात ते कोणत्या देशाला जाऊ शकणार नाहीत? व त्यांना कोणते ऐश्वर्य प्राप्त होणार नाही? ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I yoke the fastest horses, fast as sun-rays, to the centre pole of the chariot of Indra, lord universally invoked, praised and called upon for action, so that they may rush, bear him and carry wealth and honour from all round and bring it to this yajna of knowledge and science.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men are further defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! harness (use) water and fire which are carriers of the vehicles to distant places. Quick going they lead people to the Yajna in the form of technology or industrial work and great, wealth. When methodically used, it carries all things whether liquid or solid. They are in fact meant for Indra (King or President invoked by many) and his subjects. So you should also harness them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those why use electricity and other requisites in the vehicles, can go to distant places. Indeed, they can attain all kinds of wealth.

    Foot Notes

    (अजिरा) यानानां प्रक्षेप्तारी | = Takers of the vehicles to distant places. (यज्ञम् ) शिल्पविद्यासाध्यम् । = Yajna in the form of industrial work. ( इन्द्रम् ) परमैश्वर्य्यंम् । इदिपरमैश्वर्ये:। = Great wealth, prosperity.

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