ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 35/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मं नरः॒ पर्व॑ता॒स्तुभ्य॒मापः॒ समि॑न्द्र॒ गोभि॒र्मधु॑मन्तमक्रन्। तस्या॒गत्या॑ सु॒मना॑ ऋष्व पाहि प्रजा॒नन्वि॒द्वान्प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । नरः॑ । पर्व॑ताः । तुभ्य॑म् । आपः॑ । सम् । इ॒न्द्र॒ । गोभिः॑ । मधु॑ऽमन्तम् । अ॒क्र॒न् । तस्य॑ । आ॒ऽगत्य॑ । सु॒ऽमनाः॑ । ऋ॒ष्व॒ । पा॒हि॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । वि॒द्वान् । प॒थ्याः॑ । अनु॑ । स्वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नरः पर्वतास्तुभ्यमापः समिन्द्र गोभिर्मधुमन्तमक्रन्। तस्यागत्या सुमना ऋष्व पाहि प्रजानन्विद्वान्पथ्या३ अनु स्वाः॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। नरः। पर्वताः। तुभ्यम्। आपः। सम्। इन्द्र। गोभिः। मधुऽमन्तम्। अक्रन्। तस्य। आऽगत्य। सुऽमनाः। ऋष्व। पाहि। प्रऽजानन्। विद्वान्। पथ्याः। अनु। स्वाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 35; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे ऋष्वेन्द्र ! ये नरस्तुभ्यं पर्वता आपश्चेव गोभिरिमं मधुमन्तं समक्रँस्तान्पाहि। सुमनाः प्रजानन् विद्वान्सँस्तस्य स्वाः पथ्या आगत्य सर्वाननुपाहि ॥८॥
पदार्थः
(इमम्) (नरः) नायकाः (पर्वताः) मेघाः (तुभ्यम्) (आपः) जलानि (सम्) (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (गोभिः) पृथिव्यादिभिस्सह (मधुमन्तम्) मधुरादिबहुरसयुक्तम् (अक्रन्) कुर्युः (तस्य) (आगत्य)। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुमनाः) शोभनं निरीर्ष्यकं मनो यस्य सः (ऋष्व) प्राप्तविद्य (पाहि) (प्रजानन्) (विद्वान्) (पथ्याः) पथोऽनपेताः (अनु) (स्वाः) स्वकीया गतीः ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वर्षाभिः सर्वेषां पालनं जायते तथैव विमानादेर्यानस्य निर्मातारो जगत्यां सर्वेषां रक्षका भवन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (ऋष्व) विद्या से पूर्ण (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य की प्राप्ति करानेवाले जो (नरः) प्रधान पुरुष ! (तुभ्यम्) आपके लिये (पर्वताः) मेघ और (आपः) जल के समान (गोभिः) पृथिवी आदि पदार्थों के सहित (इमम्) इस वर्त्तमान (मधुमन्तम्) मधुर आदि बहुत रसों से युक्त पदार्थ को (सम्, अक्रन्) अच्छे प्रकार करें उनका (पाहि) पालन करो (सुमनाः) और ईर्ष्या रहित मनवाले आप (प्रजानन्, विद्वान्) जानते और विद्वान् होते हुए (तस्य) उस काम की (स्वाः, पथ्याः) मार्ग से निज चालियों को (आगत्य) प्राप्त होकर सबका (अनु) पालन करो ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वृष्टियों से सबका पालन होता है, वैसे ही विमान आदि वाहन बनानेवाले जन संसार में सबके रक्षा करनेवाले होते हैं ॥८॥
विषय
ज्ञान- माधुर्य
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (पर्वता:) = अपना पूरण करनेवाले न्यूनताओं को दूर करनेवाले (आपः) = व्यापक, उदार, कर्मों में प्रवृत्त [आप् व्याप्तौ] (नरः) = लोग (इमम्) = इस अपने जीवन को, (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए, (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों से (मधुमन्तम्) = अत्यन्त माधुर्यवाला (तं अक्रन्) = सम्यक्तया करते हैं । वस्तुतः प्रभुप्राप्ति के लिए इस जीवन को परिष्कृत बनाना अत्यन्त आवश्यक है। इसका परिष्कार ज्ञान- माधुर्य से होता है। 'मनुष्य ज्ञानी बने, मधुर व्यवहारवाला हो' तभी वह लोकप्रिय भी होता है और प्रभु प्रिय भी । [२] हे (ऋष्व) = महान् व दर्शनीय प्रभो ! आप (आगत्य) = आकर (सुमना:) = हमारे लिए उत्तम मन को देनेवाले होते हुए [शोभनं मनो यस्मात्] (तस्य पाहि) = उस जीवन का रक्षण करिए। इस रक्षण के लिए ही आप (विद्वान्) = हमारे सब कर्मों को जानते हुए (स्वा पथ्या:) = आत्मप्राप्ति के लिए हितकर मार्गों को (अनु) = लक्ष्य करके (प्रजानन्) = हमें प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करानेवाले होइये । हम आत्मज्ञान को प्राप्त करते हुए प्रकृति में फँसने से बचनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से हमारा जीवन ज्ञान व माधुर्यवाला हो। हम आत्मज्ञान की प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाले हों ।
विषय
सूर्य वत् राष्ट्र के प्रबन्धक अधीन शासकों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(पर्वताः आपः गोभिः इमं मधुमन्तं अक्रन्) मेघ और जल, धाराएं, नदियें जिस प्रकार भूमियों से मिलकर इस लोक को जल और अन्न से युक्त कर देते हैं उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! राजन् ! (नरः) नायकगण (पर्वताः) पालन करने की शक्ति वाले और (आपः) आप्त पुरुष (तुभ्यम्) तेरे लिये, तेरे ही (इमं) इस राष्ट्र को (गोभिः) भूमियों, वाणियों द्वारा हे (ऋष्व) महान् ! (मधुमन्तम्) मधुर अन्न और ज्ञान से युक्त (सम् अक्रन्) सुसंस्कृत करें। तू (स्वाः) अपने (पथ्याः) हितकारी मार्गों को (विद्वान्) जानता हुआ (प्र जानन्) उत्तम ज्ञानवान् और (सुमनाः) उत्तम चित्त से युक्त होकर (तस्य पाहि) उस राष्ट्र का उपभोग और पालन कर (२) पुरुष भी स्वयं (स्वाः पथ्याः पिबेत्) अपने पथ्य हितकारी पदार्थों को ही खावे पीवे। ज्ञानी, विद्वान् और शुभ चित्त वाला होकर रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ विराट्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वृष्टीमुळे सर्वांचे पालन होते, तसेच विमान इत्यादी वाहन बनविणारे लोक जगात सर्वांचे रक्षण करणारे असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of honour and excellence, the best of men, mountains and clouds, waters and vapours in unison have prepared this nectar sweet of soma for you with currents of solar energy and treasures of the earth. Lord of glory, happy at heart, scholar and discoverer, take the soma, and protect and promote the product and your partners on the way.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties are further detailed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (conveyer great prosperity)! protect all those leading men who prepared for you the sweet meals to eat, like the clouds and the waters along with land and other things. You are great because of your learning, humility and other virtues. Moreover, you have noble mind free from jealousy and are extremely wise. Having come here, you protect and carry us on the righteous paths.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the rains nourish all by producing grains etc. so those who manufacture aircrafts and other vehicles are the protectors of all.
Foot Notes
(पर्वताः) मेघाः । पर्वत इति मेघनाम (NG 1.10 ) = Clouds. (ऋष्व) प्राप्तविद्य । ऋष्व इति महन्नाम (NG 3,3) = A learned person who has acquired much knowledge.
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