ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 37/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अग॑न्निन्द्र॒ श्रवो॑ बृ॒हद्द्यु॒म्नं द॑धिष्व दु॒ष्टर॑म्। उत्ते॒ शुष्मं॑ तिरामसि॥
स्वर सहित पद पाठअग॑न् । इ॒न्द्र॒ । श्रवः॑ । बृ॒हत् । द्यु॒म्नम् । द॒धि॒ष्व॒ । दु॒स्तर॑म् । उत् । ते॒ । शुष्म॑म् । ति॒रा॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अगन्निन्द्र श्रवो बृहद्द्युम्नं दधिष्व दुष्टरम्। उत्ते शुष्मं तिरामसि॥
स्वर रहित पद पाठअगन्। इन्द्र। श्रवः। बृहत्। द्युम्नम्। दधिष्व। दुस्तरम्। उत्। ते। शुष्मम्। तिरामसि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 37; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र यद्बृहद्दुष्टरं श्रवो द्युम्नं शुष्मं विद्वांसोऽगन् यत्ते वयमुत्तिरामसि तत्सर्वं त्वं दधिष्व ॥१०॥
पदार्थः
(अगन्) प्राप्नुवन्ति (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (बृहत्) महत् (द्युम्नम्) यशो धनं वा (दधिष्व) धर (दुष्टरम्) शत्रुभिर्दुःखेन तरितुमुल्लङ्घयितुं योग्यम् (उत्) उत्कृष्टे (ते) तव (शुष्मम्) बलम् (तिरामसि) तराम ॥१०॥
भावार्थः
तावदैश्वर्य्यं राज्ञा धर्त्तव्यं यावत्सेनायै प्रजापालनायाऽमात्यरक्षणायाऽलं स्यादेवं जाते सति महद्यशो वर्धेत ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त ! जिस (बृहत्) बड़े (दुष्टरम्) शत्रुओं से दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य (श्रवः) अन्न वा श्रवण (द्युम्नम्) यश वा धन और (शुष्मम्) बल को विद्वान् लोग (अगन्) प्राप्त होते हैं वा जिस (ते) आपके पूर्वोक्त अन्न श्रवण यश धन और बल को हम लोग (उत्) उत्तम प्रकार (तिरामसि) तरे उल्लंघें अर्थात् उससे अधिक सम्पादन करें उस सबको आप (दधिष्व) धारण करो ॥१०॥
भावार्थ
उतना ही ऐश्वर्य्य राजा को धारण करना चाहिये कि जितना सेना और प्रजा के पालन के और मन्त्रियों की रक्षा के लिये पूरा होवै, ऐसा करने से बड़ा यश बढ़ै ॥१०॥
विषय
श्रवस्-द्युम्न- शुष्म
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवाले प्रभो! आपकी कृपा से हमें (बृहत्) = वृद्धि का कारणभूत (श्रवः) = सौम्य अन्न (अगन्) = प्राप्त हो। हम सोमरक्षण की अनुकूलतावाले ही अन्न का सेवन करें। [२] आप हमारे में इस सात्त्विक अन्न के सेवन के परिणामस्वरूप (दुष्टरम्) = काम आदि शत्रुओं से अभिभूत न करने योग्य (द्युम्नम्) = ज्ञान-ज्योति को (दधिष्व) = धारण करिए। [३] इस ज्ञान ज्योति को प्राप्त करके हम (ते शुष्मम्) = आपसे दिये जानेवाले इस शत्रुशोषक बल को (उत् तिरामसि) = अत्यन्त ही बढ़ानेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम सात्त्विक अन्न के प्रयोग से ज्ञान का वर्धन करते हुए शत्रुशोषक बल को बढ़ाएँ।
विषय
राजा की राष्ट्र के धनैश्वर्य की आशंसा।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तुझे (श्रवः) अन्न, ज्ञान, यश और (बृहत्) बड़ा भारी (द्युम्नं) ऐश्वर्य (अगन्) प्राप्त हों, तु (दुस्तरम्) दुस्तर, अपार ज्ञान, ऐश्वर्य और बल को (दधिष्व) धारण कर। हम भी (ते शुष्मं) तेरे शत्रुशोषणकारी बल को (उत् तिरामसि) उत्तम कोटि तक पहुंचा देवें, बढ़ावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३, ७ निचृद्गायत्री। २, ४-६,८-१० गायत्री। ११ निचृदनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
तितकेच ऐश्वर्य राजाने धारण केले पाहिजे ज्यामुळे सेना व प्रजा यांचे पालन व मंत्र्यांचे रक्षण व्हावे त्यामुळे महद् यश वाढते. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler and protector of the world, the assets of the dominion are high and rising. Hold and govern this formidable wealth, honour and excellence of the nation. And let us all, we pray, raise and exalt your courage and power, honour and glory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of duties and functions of a ruler is described
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (opulent ruler)! your great glory, and wealth can not be easily surpassed by your foes with regard to your food stocks, which any learned persons can only achieve your vigor that we augment. May you uphold or maintain all that firmly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A ruler should possess and properly maintain only that much wealth as may be adequate for the armed strength in order to support and protect the people in all ways; and for the protection or sustenance of the ministers.
Foot Notes
(दुष्टरम् ) शत्रुभिर्दुःखेन तारितुमुल्लङ्घयितुं योग्यम् (दुष्टरम्) दु: + तृ प्लवन सन्तरणयोः (भ्वा ) = Which may not be easily surpassed by the enemies. (दयुम्नम् ) यशो धनं वा । द्युम्नम् इति धननाम (NG 2, 10) दयुम्नं द्योततेर्यशोवा अन्नम् वा (NKT 5,15) = Glory (renown) or wealth. Here Yaskachary adds two more meanings of the word दयुम्न Dyumn-glory (renown) or food.
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