ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्। इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो॥
स्वर सहित पद पाठशु॒ष्मिन्ऽत॑मम् । न । ऊ॒तये॑ । द्यु॒म्निन॑म् । पा॒हि॒ । जागृ॑विम् । इन्द्र॑ । सोम॑म् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुष्मिन्तमं न ऊतये द्युम्निनं पाहि जागृविम्। इन्द्र सोमं शतक्रतो॥
स्वर रहित पद पाठशुष्मिन्ऽतमम्। न। ऊतये। द्युम्निनम्। पाहि। जागृविम्। इन्द्र। सोमम्। शतक्रतो इति शतऽक्रतो॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 37; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे शतक्रतो इन्द्र ! त्वं न ऊतये शुष्मिन्तमं द्युम्निनं जागृविं सोमं च पाहि ॥८॥
पदार्थः
(शुष्मिन्तमम्) प्रशंसितं बहुविधं वा बलं विद्यते यस्य तमतिशयितम् (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (द्युम्निनम्) यशस्विनं श्रीमन्तम् (पाहि) (जागृविम्) जागरूकम् (इन्द्र) सर्वाभिरक्षक राजन् (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ बहुकर्मन् वा ॥८॥
भावार्थः
सर्वैः प्रजाराजजनैः सर्वाधीशं राजानमन्यानध्यक्षान्प्रति चैवं वाच्यं भवन्तोऽस्माकं रक्षकाणामैश्वर्य्यस्य च रक्षायामनलसा उद्यता भवन्तु ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (शतक्रतो) बहुत बुद्धि वा बहुत कर्मयुक्त (इन्द्र) सबके रक्षक राजन् ! आप (नः) हम लोगों की (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (शुष्मिन्तमम्) प्रशंसित वा बहुत प्रकार का बल जिसके उस अतीव (द्युम्निनम्) यशस्वी लक्ष्मीवान् और (जागृविम्) जागनेवाले जन और (सोमम्) ऐश्वर्य्य की (पाहि) रक्षा करो ॥८॥
भावार्थ
सब प्रजा और राजजनों को चाहिये कि सबके अधीश राजा और अन्य अध्यक्षों के प्रति ऐसा कहैं कि आप लोग हम लोगों के रक्षक पुरुषों की और ऐश्वर्य्य की रक्षा में निरालस और उद्यत होवैं ॥८॥
विषय
'शुष्मिन्तम, द्युम्नी व जागृवि' सोम
पदार्थ
[१] हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञ ! (इन्द्र) = शत्रुविदारक प्रभो ! (नः) = हमारे ऊतये रक्षण के लिए (सोमम्) = इस सोम शक्ति का [वीर्य का] (पाहि) = रक्षण करिए। आपका स्मरण करते हुए हम वासनाओं से बचकर इस सोम को अपने में सुरक्षित कर पाएँ । [२] यह सोम ही हमें (शुष्मन्तमम्) = अधिक से अधिक शत्रुशोषक बल को प्राप्त करानेवाला है। (द्युम्निनम्) = हमारी ज्ञानज्योति को बढ़ानेवाला है तथा (जागृविम्) = हमें सदा जागरित व सावधान रखनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ– हे प्रभो ! हम सोम का रक्षण करते हुए बल, ज्ञान व जागरणशीलता [अप्रमत्तता] = को प्राप्त करें ।
विषय
पञ्चजन का स्पष्टीकरण
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुओं के दलन करने वाले ! सूर्य के समान प्रतापिन् ! तू (नः) हमारे (ऊतये) रक्षा के लिये (शुष्मिन्तमम्) सबसे अधिक बलवान्, शत्रुशोषणकारी, (द्युम्निनं) यश और ऐश्वर्य वाले (जागृविम्) सदा जागने वाले अत्यन्त सावधान (सोमम्) अभिषिक्त पदाधिकारी, ज्ञानवान् ऐश्वर्यवान् पुरुष को (पाहि) रख। उसको रक्षार्थं नियुक्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३, ७ निचृद्गायत्री। २, ४-६,८-१० गायत्री। ११ निचृदनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व प्रजा व राजजनांनी सर्वाधीश राजा व इतर अध्यक्षांना असे म्हणावे की तुम्ही आमच्या रक्षकांचे व ऐश्वर्याचे रक्षण करण्यास सदैव तत्पर असावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler of the world, protector of life and humanity, leader of a hundred noble actions and master of knowledge, for our protection and progress, protect, defend, govern and promote the strongest and most prosperous, most brilliant and honourable, and the most wakeful and vigilant powers and people, and thus defend and safeguard the honour, happiness and excellence of the nation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again more attributes of the king are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (king)! you are protector of all. For our protection, maintain and grow the economic health of the nation, which should be invigorating, glorious, and should ever be watched closely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All people and officers of the State should make submissions to the king and other authorities: You should be ever vigilant in our protection as well as the protection of our (nations') wealth.
Foot Notes
(शुष्मिन्तमम् ) प्रशंसितं बहुविधं वा बलं विद्यते यस्य तमतिशयितम् । शुष्मम् इति बलनाम (NG_2,9}। = Invigorating. (सोमम् ) ऐश्वर्यम् । सीमम्- षु प्रसर्वश्वर्ययो: (स्वा० ) = Wealth, prosperity. Here the second meaning of the verb has been taken by the commentator.
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