ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमिन्नरो॒ वि ह्व॑यन्ते समी॒के रि॑रि॒क्वांस॑स्त॒न्वः॑ कृण्वत॒ त्राम्। मि॒थो यत्त्या॒गमु॒भया॑सो॒ अग्म॒न्नर॑स्तो॒कस्य॒ तन॑यस्य सा॒तौ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इत् । नरः॑ । वि । ह्व॒य॒न्ते॒ । स॒म्ऽई॒के । रि॒रि॒क्वांसः॑ । त॒न्वः॑ । कृ॒ण्व॒त॒ । त्राम् । मि॒थः । यत् । त्या॒गम् । उ॒भ्या॑सः । अग्म॑न् । नरः॑ । तो॒कस्य॑ । तन॑यस्य । सा॒तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्नरो वि ह्वयन्ते समीके रिरिक्वांसस्तन्वः कृण्वत त्राम्। मिथो यत्त्यागमुभयासो अग्मन्नरस्तोकस्य तनयस्य सातौ ॥३॥
स्वर रहित पद पाठतम्। इत्। नरः। वि। ह्वयन्ते। सम्ऽईके। रिरिक्वांसः। तन्वः। कृण्वत। त्राम्। मिथः। यत्। त्यागम्। उभयासः। अग्मन्। नरः। तोकस्य। तनयस्य। सातौ ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे रिरिक्वांसो नरः ! समीके यद्यं विद्वांसो वि ह्वयन्ते तमिदेव तन्वस्त्रां कृण्वत। हे नरस्तोकस्य तनयस्य साता उभयासो दुःखस्य त्यागङ्कुर्वन्तो मिथः शत्रून् घ्नन्तोऽग्मँस्तान् सेवध्वम् ॥३॥
पदार्थः
(तम्) (इत्) एव (नरः) नायकाः (वि) विशेषेण (ह्वयन्ते) स्पर्द्धन्ते (समीके) सम्यक् प्राप्ते सङ्ग्रामे। समीक इति सङ्ग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (रिरिक्वांसः) रेचनङ्कारयन्तः (तन्वः) शरीरस्य (कृण्वत) कुरुत (त्राम्) रक्षकम् (मिथः) अन्योऽन्यम् (यत्) यम् (त्यागम्) (उभयासः) उभयत्र वर्त्तमानाः (अग्मन्) प्राप्नुत (नरः) राज्यस्य नेतारः (तोकस्य) सद्यो जातस्याऽपत्यस्य (तनयस्य) कुमाराऽवस्थां प्राप्तस्य (सातौ) संविभक्ते ॥३॥
भावार्थः
हे सेनाजना ! यो भृत्यानां रक्षक उत्साहक शूरवीरो भवेत्तं सत्कृत्य ये सङ्ग्रामङ्कृत्वा पलायन्ते तानसत्कृत्य भृशं दण्डयित्वा विजयं प्राप्नुत ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (रिरिक्वांसः) रेचन कराते हुए (नरः) नायक लोगो ! (समीके) उत्तम प्रकार प्राप्त सङ्ग्राम में (यत्) जिसकी विद्वान् लोग (वि) विशेष करके (ह्वयन्ते) स्पर्द्धा करते हैं (तम्) उसको (इत्) ही (तन्वः) शरीर का (त्राम्) रक्षक (कृण्वत) करिये और हे (नरः) राज्य के नायको ! (तोकस्य) शीघ्र उत्पन्न हुए और (तनयस्य) कुमारावस्था को प्राप्त बालक के (सातौ) उत्तम प्रकार विभाग में (उभयासः) दोनों ओर वर्त्तमान और दुःख का (त्यागम्) त्याग तथा (मिथः) परस्पर शत्रुओं को नष्ट करते हुए जन (अग्मन्) प्राप्त हों, उनका सेवन करो ॥३॥
भावार्थ
हे सेना के जनो ! जो भृत्यों का रक्षक, उत्साहयुक्त और शूरवीर होवे, उसका सत्कार करके और जो सङ्ग्राम को छोड़के भागते हैं, उनका नहीं सत्कार करके और अत्यन्त दण्ड देकर विजय को प्राप्त होओ ॥३॥
विषय
परस्पर त्याग से उत्तम सन्तान की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (नरः) = युद्ध में शत्रु के प्रति आगे बढ़नेवाले लोग (समीके) = संग्राम में (तं इत्) = उस प्रभु को ही (विह्वयन्ते) = विशेषरूप से पुकारते हैं। प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर ही वे विजयी बनते हैं। [२] (रिरिक्वांसः) = तप द्वारा सब मलों का विरेचन करनेवाले पुरुष प्रभु को ही (तन्वः) = शरीर का (त्राम्) = रक्षक (कृण्वत) = करते हैं। प्रभुस्मरण के साथ जीवन को तपस्वी बनाते हुए हम प्रभु को ही अपना शरीर रक्षक बनाते हैं। [२] एक घर में (यत्) = जब (उभयासः नरः) = दोनों लोग, अर्थात् पति-पत्नी (मिथ:) = परस्पर (त्यागं अग्मन्) = त्याग को प्राप्त होते हैं, जब 'पति' पत्नी के लिए तथा 'पत्नी' पति के लिए अधिक से अधिक त्याग करने को तैयार होता है तो वे (तोकस्य) = पुत्रों के तथा (तनयस्य) = पौत्रों के (सातौ) = लाभ को प्राप्त करते हैं। इनके उत्तम सन्तान होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- जीवनसंग्राम में प्रभुस्मरण द्वारा प्रभु को अपना रक्षक बनाएँ। परस्पर त्यागवृत्ति से चलते हुए हम उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें।
विषय
सर्व शर काम्य प्राप्य, प्रभु ।
भावार्थ
(यत्) जिस (त्यागम्) दानशील पुरुष को लक्ष्य कर (नरः) नायक लोग और साधारण जन (उभयासः) दोनों ही एवं पक्ष प्रतिपक्ष दोनों लोग (तोकस्य तनयस्य सातौ) पुत्र पौत्र के निमित्त धन, वेतनादि लाभ और परस्पर न्यायानुकूल विभाग के निमित्त (मिथः) परस्पर सह सम्मति करके (अग्मन्) जाते हैं । (रिरिक्वांसः) देहों और करादि धनों का त्याग करने वाले (नरः) वीर और प्रजाजन भी, (समीके) संग्राम में (तम् इत्) उसको ही (वि ह्वयन्ते) विविध प्रकारों से पुकारें और (तन्वः) अपने शरीर का (त्राम्) रक्षक भी उसी को (कृणुत) करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप । २, ८ भुरिक् पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । १० निचृदनुष्टुप् ॥ इत्येकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे सेनेतील लोकांनो! जो नोकरांचा रक्षक, उत्साही व शूरवीर असेल त्याचा सत्कार करा. जे युद्धातून पलायन करतात त्यांचा धिक्कार करा व दंड द्या आणि विजय प्राप्त करा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
People and leaders both call upon him in their battles of life in search of freedom, those who seek release and those who look to him for the protection of their bodies. Together, men and women, men and leaders, go to him for freedom from suffering as well as for the well being of their children and grand children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The outcome of study of military science is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leading men ! keeping away your selves and others from all evils, it is Indra (Prosperous king or Commander-in-Chief of the army) whom all learned persons invoke in the battles. You also make him the preserver of your bodies. O leaders of the State! serve those persons, both officers and the people, in the task of preservation of wealth for the sake of already born infants and grown up children by alleviating their sufferings, and destroying the enemies attacking you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O military people! honor that brave person who is the guardian of the public servants and exhorts them. Dishonor and punish those who run away from the battle-field. In this way, you would ever be victorious.
Foot Notes
(समीके) सम्यक् प्राप्ते सङ्ग्रामे । समीक इति सङ्ग्रामनाम (NG 2, 17) = In the battle. (रिरिक्वांसः ) रेचनङ्कारयन्तः । = Separating. (तोकस्य ) सद्यो जातस्यापत्यस्य । = Of the new born infant.
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