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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य इन्द्रा॑य सु॒नव॒त्सोम॑म॒द्य पचा॑त्प॒क्तीरु॒त भृ॒ज्जाति॑ धा॒नाः। प्रति॑ मना॒योरु॒चथा॑नि॒ हर्य॒न्तस्मि॑न्दध॒द्वृष॑णं॒ शुष्म॒मिन्द्रः॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । इन्द्रा॑य । सु॒नव॑त् । सोम॑म् । अ॒द्य । पचा॑त् । प॒क्तीः । उ॒त । भृ॒ज्जाति॑ । धा॒नाः । प्रति॑ । म॒ना॒योः । उ॒चथा॑नि । हर्य॑न् । तस्मि॑न् । दध॑त् । वृष॑णम् । शुष्म॑म् । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इन्द्राय सुनवत्सोममद्य पचात्पक्तीरुत भृज्जाति धानाः। प्रति मनायोरुचथानि हर्यन्तस्मिन्दधद्वृषणं शुष्ममिन्द्रः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। इन्द्राय। सुनवत्। सोमम्। अद्य। पचात्। पक्तीः। उत। भृज्जाति। धानाः। प्रति। मनायोः। उचथानि। हर्यन्। तस्मिन्। दधत्। वृषणम्। शुष्मम्। इन्द्रः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    य इन्द्रो राजाद्येन्द्राय सोमं सुनवत् पक्तीः पचादुतापि धाना भृज्जाति मनायोरुचथानि हर्य्यन् सँस्तस्मिन् वृषणं शुष्मं प्रति दधत् स पुष्कलां विजयिनीं सेनां प्राप्नुयात् ॥७॥

    पदार्थः

    (यः) (इन्द्राय) सुखप्रदात्रे द्रव्यैश्वर्य्याय (सुनवत्) निष्पादयेत् (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (अद्य) (पचात्) पचेत् (पक्तीः) पाकान् (उत) (भृज्जाति) भृज्जेत् (धानाः) यवाः (प्रति) (मनायोः) प्रशंसां कामयमानस्य (उचथानि) रुचिकराणि (हर्य्यन्) कामयमानः (तस्मिन्) (दधत्) धरेत् (वृषणम्) बलकरम् (शुष्मम्) बलिष्ठम् (इन्द्रः) राजा ॥७॥

    भावार्थः

    ये राजपुरुषा राज्यायैश्वर्य्यं बलाय सेनायै च भोजनादिसामग्रीर्दध्युस्ते रुचितानि सुखानि लभेरन् ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (इन्द्रः) राजा (अद्य) आज (इन्द्राय) सुख देनेवाले द्रव्य और ऐश्वर्य्ययुक्त के लिये (सोमम्) ऐश्वर्य्य को (सुनवत्) उत्पन्न करे (पक्तीः) पाकों को (पचात्) पकावे (उत) और (धानाः) यवों को (भृज्जाति) भूँजे (मनायोः) प्रशंसा की कामना करनेवाले की (उचथानि) रुचि करनेवालों की (हर्य्यन्) कामना करता हुआ (तस्मिन्) उसमें (वृषणम्) बल करनेवाले (शुष्मम्) बलयुक्त पुरुष को (प्रति, दधत्) धारण करे, वह बहुत जीतनेवाली सेना को प्राप्त होवे ॥७॥

    भावार्थ

    जो राजपुरुष राज्य के लिये ऐश्वर्य्य को बल और सेना के लिये भोजन आदि सामग्रियों को धारण करें, वे प्रीतिकारक सुखों को प्राप्त होवें ॥७॥

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    विषय

    शत्रुशोषक बल की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (इन्द्राय) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (अद्य) = आज (सोमं सुनवत्) = सोम का सवन करता है इस सोम से ज्ञानाग्नि को दीप्त करके प्रभु का दर्शन करता है। (पक्ती:) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों से होनेवाले पाँच ज्ञान के ओदनों को पचात् पकाता है [पञ्चौदन: पञ्चधा विक्रमताम्] । उत और इन ज्ञानौदनों के परिपाक के साथ (धाना:) = धारणशक्तियों को (भृञ्जाति:) = परिपक्व करता है [२] इस (मनायोः) = विचारशील पुरुष के [मन्, इ] - विचारपूर्वक कर्मों को करनेवाले के (उचथानि) = स्तोत्रों को (प्रतिहर्यन्) = चाहता हुआ व प्राप्त होता हुआ (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (तस्मिन्) = उस उपासक में (वृषणम्) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (शुष्मम्) = शत्रुशोषक बल को (दधत्) = धारण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुप्राप्ति के लिए हम [क] सोम का सवन करें, [ख] ज्ञानौदनों का परिपाक करें और [ग] धारणात्मक कर्मों को करनेवाले हों। प्रभु हमें शत्रुशोषक बल प्राप्त कराएँगे ।

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    विषय

    प्रभु शक्ति और बल प्राप्ति

    भावार्थ

    (यः) जो प्रजाजन (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा वा सेनापति के लिये (अद्य) आज के समान सदा (सोमम्) अन्नादि ओषधिरस, ऐश्वर्य (सुनवत्) उत्पन्न करता है, (पक्तीः पचात्) परिपक्व करने योग्य बलवीर्य, विद्या, ज्ञान एवं अन्नादि भी उसी के लिये परिपक्व करे, (उत) और (धानाः) खीलों के समान राष्ट्र को धारण पोषण करने वाली शक्तियों को (भृज्जाति) और भी परिपक्व करता और पीड़ादायकों का सन्तप्त करता है, और (मनायोः) प्रशंसा की कामना करने वाले के (उचथानि) कहने योग्य वचनों की (प्रतिहर्यन्) कामना करता हुआ (इन्द्रः) वह शत्रुहन्ता, वीर पुरुष (तस्मिन्) प्रजाजन में, उसके आश्रय पर ही (वृषणं) अपने प्रबन्धकारी और ऐश्वर्य सुखों के देने वाले (शुष्मं) बल को धारण करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप । २, ८ भुरिक् पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । १० निचृदनुष्टुप् ॥ इत्येकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजपुरुष राज्यासाठी ऐश्वर्य, बल व सेनेसाठी भोजन इत्यादी सामग्री धारण करतात त्यांना इच्छित सुख मिळावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whoever for Indra, today, distils and ripens the soma of honour and excellence, confirms and consolidates the gains of victory over darkness, evil and want, and perfects the production for national consumption: to such a person Indra responds, loving and listening to his songs of praise arising from the heart, and the lord in-vests him with inner strength of valour and showers of unbounded generosity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The importance of strong administration of the State in order to achieve victory over the enemies is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    For the attainment of wealth and prosperity that gives happiness, the king should organize a conquering great army. He collects revenues and earns money in the state coffer, cooks various kinds of meals like buttered rotis the barley. In order to please the worthy person by praise, he supports a mighty man and he increases the strength of others (by giving proper instructions).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the State get desirable happiness, who uphold wealth for the prosperity of the State and various articles of food etc. for making the State strong and its army.

    Foot Notes

    (हर्य्यंन् ) कामयमानः । = Desiring. (उचथानि) रुचिकराणि । = Tasteful, delicious (शुष्मम्) बलिष्ठम् । = Mightiest person.

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