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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भूय॑सा व॒स्नम॑चर॒त्कनी॒योऽवि॑क्रीतो अकानिषं॒ पुन॒र्यन्। स भूय॑सा॒ कनी॑यो॒ नारि॑रेचीद्दी॒ना दक्षा॒ वि दु॑हन्ति॒ प्र वा॒णम् ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूय॑सा । व॒स्नम् । अ॒च॒र॒त् । क॒नी॒यः । अवि॑ऽक्रीतः । अ॒का॒नि॒ष॒म् । पुनः॑ । यन् । सः । भूय॑सा । कनी॑यः । न । अ॒रि॒रे॒ची॒त् । दी॒नाः । दक्षाः॑ । वि । दु॒ह॒न्ति॒ । प्र । वा॒णम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूयसा वस्नमचरत्कनीयोऽविक्रीतो अकानिषं पुनर्यन्। स भूयसा कनीयो नारिरेचीद्दीना दक्षा वि दुहन्ति प्र वाणम् ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूयसा। वस्नम्। अचरत्। कनीयः। अविऽक्रीतः। अकानिषम्। पुनः। यन्। सः। भूयसा। कनीयः। न। अरिरेचीत्। दीनाः। दक्षाः। वि। दुहन्ति। प्र। वाणम् ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ज्येष्ठकनिष्ठव्यवहारविषयमाह ॥

    अन्वयः

    योऽविक्रीतो भूयसा कनीयो वस्नमचरत् स पुनर्यन् भूयसा कनीयो नारिरेचीद्ये दीना दक्षा वाणं वि प्र दुहन्ति तानहमकानिषं कामयेयम् ॥९॥

    पदार्थः

    (भूयसा) बहुना (वस्नम्) हट्टस्रस्तरम् (अचरत्) (कनीयः) अतिशयेन कनिष्ठम् (अविक्रीतः) न विक्रीतः (अकानिषम्) प्रदीपयेयम् (पुनः) (यन्) गच्छन् (सः) (भूयसा) बहुना (कनीयः) (न) निषेधे (अरिरेचीत्) रिक्तङ्कुर्यात् (दीनाः) क्षीणाः (दक्षाः) चतुराः (वि) (दुहन्ति) पूरिताङ्कुर्वन्ति (प्र) (वाणम्) वाणीम्। वाण इति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) ॥९॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या विविधव्यापारकारिणो निरभिमानाः प्राज्ञाः सन्तो विद्याशिक्षाभ्यां पूर्णां वाचं कुर्वन्ति ते कनीयसः पालयितुं शक्नुवन्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ज्येष्ठ-कनिष्ठ के व्यवहार विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (अविक्रीतः) नहीं बेचा गया (भूयसा) बहुत प्रकार से (कनीयः) अत्यन्त अल्प (वस्नम्) हट्टस्रस्तर अर्थात् हटिया में बिछाने का (अचरत्) आचरण करे (सः) वह (पुनः) फिर (यन्) जाता हुआ (भूयसा) बहुत भाव से (कनीयः) अत्यन्त न्यून कर्म को (न) नहीं (अरिरेचीत्) रीता करे और जो (दीनाः) क्षीण (दक्षाः) चतुर जन (वाणम्) वाणी को (वि, प्र, दुहन्ति) अच्छे प्रकार पूरित करते हैं, उनको मैं (अकानिषम्) प्रदीप्त करूँ और कामना करूँ ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अनेक प्रकार के व्यापार करनेवाले, अभिमानरहित, बुद्धिमान् हुए, विद्या और शिक्षा से पूर्ण वाणी को करते हैं, वे छोटों को पाल सकते हैं ॥९॥

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    विषय

    अविक्रीत

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में जीवन को एक दीर्घ संग्राम के रूप में चित्रित किया था। एक मार्ग विषयप्रवृत्ति का है, दूसरा विषयों से निवृत्ति का । विषयों का सुख क्षणिक होता है और उसके लिए बहुत अधिक मूल्य देना पड़ जाता है। मन्त्र में कहते हैं कि (भूयसा) = बहुत अधिक हानि से बहुत अधिक अपने द्रव्य को देकर (कनीयः वस्नमचरत्) = अत्यल्प मूल्य को पाता है। स्वास्थ्य व शक्ति को विनष्ट करके क्षणिक सुख को लेना ऐसा ही तो है । (पुन:) = फिर, इसके विपरीत (अविक्रीतः) = [न विक्रीतं येन] 'जिसने विषयों के लिए अपने को नहीं बेचा' ऐसा मैं (यन्) = मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ (अकानिषम्) = [कन् दीप्तौ] चमक उठता हूँ। प्रभु के समीप पहुँचता हुआ अधिकाधिक तेजस्वी होता जाता हूँ। [२] (सः) = वह उपर्युक्त प्रकार से सोचनेवाला व्यक्ति (भूयसा) = बहुत अधिक द्रव्य देकर (कनीयः) = अत्यल्प मूल्य को (न अरिरेचीत्) = नहीं प्राप्त करता [न लभते सा०], अर्थात् यह वैषयिक सुख के लिए वीर्य को विनष्ट नहीं करता। ये (दीना:) = हृदय में नम्रता को धारण करनेवाले [humble, meek] (दक्षा:) = कार्यकुशल पुरुष (प्रवाणम्) = प्रभु से दी गई इस प्रकृष्ट वेदवाणी को (विदुहन्ति) = विशेषरूप से दोहते हैं। दीन शब्द लोक में 'दुःखी' इस अर्थ में प्रयुक्त होता है। वेद में 'दी' का अर्थ to shine =चमकना अथवा to appear good=अच्छा प्रतीत होना है। इस प्रकार 'दीन' शब्द ज्ञान से दीप्त होनेवाला अथवा नम्रता से उत्तम प्रतीत होनेवाला है। ये व्यक्ति वीर्य को विनष्ट करके वैषयिक सुख की ओर नहीं झुकते ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने को विषय सुख के लिए न बेच डालें।

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    विषय

    राजा की राष्ट्र के प्रत्येक अंग से देहांगवत् प्रीति । कर संग्रह और कर्त्तव्य-परायणता ।

    भावार्थ

    राजा (भूयसा) बहुत बड़े भारी कार्य से भी (कनीयः) अति स्वल्प (वस्नम् अचरत्) मूल्य प्रजा से प्राप्त करे । वह (पुनः यन्) वार २ प्रयाण करता हुआ भी (अविक्रीतः) प्रजा से वेतन द्वारा अपने आप न बेचा जाकर (अकानिषम्) अति दीप्तियुक्त होवे । (सः) वह प्रजा का रक्षक, राजा (भूयसा) बहुत से बल या त्याग से (कनीयः) राष्ट्र के छोटे से छोटे अंश को भी (न अरिरेचीत्) त्याग न करे, अथवा-- प्रजा के बहुत बड़े भाग से अति अल्प अंश को बढ़ने न दे । क्योंकि (दीनाः) गरीब और (दक्षाः) चतुर अमीर लोग सभी उसके (वाणम्) ऐश्वर्य वा आज्ञा को (विप्र दुहन्ति) विविध प्रकारों से भरते, पूर्ण करते रहते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप । २, ८ भुरिक् पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । १० निचृदनुष्टुप् ॥ इत्येकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे अनेक प्रकारचा व्यापार करणारी, अभिमानरहित, बुद्धिमान, विद्या व शिक्षणाने वाणीचा वापर चांगल्या प्रकारे करतात. ती लहानांचे पालन करू शकतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The poor ignorant trader buys the pleasure of glitter and sense at the great price of the spirit. Drained out, exhausted and disvalued, he goes back: “I want back what I had parted with in exchange for what I had got.” No, not now. With all that he can surrender, he cannot redeem even a little of what he has lost. The poor as well as the intelligent get back only what they bargain for in word and action.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Importance of nice behavior and commitment is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The business man or trader who conducts or behaves nicely with his clients in order to dispose off his stock of goods, he does not apply mean ways, and is not ever defamed or condemned and dipsomania vanity. I would always seek assistance of and exhort persons who ever speak balanced language and are wise and intelligent (Editor).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who are engaged in various kinds of business should be free from vanity and be intelligent and use speech full of wisdom and education. They can help the poor.

    Foot Notes

    (अकानिषम् ) प्रदीपयेयम् । = May I kindle. (वाणाम् ) वाणीम् । वाण इति वाङ्नाम (NG 1, 11) = The speech.

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