ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
द्यौर्न य इ॑न्द्रा॒भि भूमा॒र्यस्त॒स्थौ र॒यिः शव॑सा पृ॒त्सु जना॑न्। तं नः॑ स॒हस्र॑भरमुर्वरा॒सां द॒द्धि सू॑नो सहसो वृत्र॒तुर॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठद्यौः । न । यः । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि । भूम॑ । अ॒र्यः । त॒स्थौ । र॒यिः । शव॑सा । पृ॒त्ऽसु । जना॑न् । तम् । नः॒ । स॒हस्र॑ऽभरम् । उ॒र्व॒रा॒ऽसाम् । द॒द्धि । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । वृ॒त्र॒ऽतुर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यौर्न य इन्द्राभि भूमार्यस्तस्थौ रयिः शवसा पृत्सु जनान्। तं नः सहस्रभरमुर्वरासां दद्धि सूनो सहसो वृत्रतुरम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठद्यौः। न। यः। इन्द्र। अभि। भूम। अर्यः। तस्थौ। रयिः। शवसा। पृत्ऽसु। जनान्। तम्। नः। सहस्रऽभरम्। उर्वराऽसाम्। दद्धि। सूनो इति। सहसः। वृत्रऽतुरम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे सहसः सूनो इन्द्र ! यो द्यौर्न रयिरस्त्यस्यार्यः शवसा पृत्सु जनानभि तस्थौ तं सहस्रभरं वृत्रतुरमुवर्रासां मध्ये श्रेष्ठं विजयं नो दद्धि येन वयं श्रीमन्तो भूम ॥१॥
पदार्थः
(द्यौः) विद्युत् सूर्यो वा (न) इव (यः) (इन्द्र) परमपूजित धनयुक्त (अभि) आभिमुख्ये (भूम) भवेम (अर्यः) स्वामी (तस्थौ) तिष्ठेत् (रयिः) धनम् (शवसा) बलेन (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (जनान्) (तम्) (नः) अस्मभ्यम् (सहस्रभरम्) यः सहस्रमसङ्ख्यं बिभर्त्ति तम् (उर्वरासाम्) बहुश्रेष्ठानां भूमीनाम् (दद्धि) देहि (सूनो) सत्पुत्र (सहसः) बलात् (वृत्रतुरम्) वृत्रानिव शत्रूंस्तुर्वति हिनस्ति येन तम् ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः ये मनुष्या विद्युद्वत्पराक्रमिणोऽर्कवद्दीप्तिमन्तः सङ्ग्रामेषु साहसिकाः स्युस्ते विजयवन्तो भवेयुः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तेरह ऋचावाले बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहसः) बल से (सूनो) श्रेष्ठ पुत्र (इन्द्र) अत्यन्त श्रेष्ठ धन से युक्त ! (यः) जो (द्यौः) बिजुली वा सूर्य के (न) समान प्रकाशित (रयिः) धन है इस का (अर्यः) स्वामी (शवसा) बल से (पृत्सु) सङ्ग्रामों में (जनान्) मनुष्यों के प्रति (अभि) सम्मुख (तस्थौ) वर्त्तमान होवे (तम्) उस (सहस्रभरम्) असंख्य को धारण करनेवाले (वृत्रतुरम्) जैसे मेघों को, वैसे शत्रुओं को नाश करता है जिससे उस तथा (उर्वरासाम्) बहुत श्रेष्ठ भूमियों में श्रेष्ठ विजय को (नः) हम लोगों के लिये (दद्धि) दीजिये जिससे हम लोग लक्ष्मीवान् (भूम) होवें ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य बिजुली के सदृश पराक्रमी और सूर्य के सदृश प्रतापयुक्त हुए सङ्ग्रामों में साहसिक होवें, वे विजयवान् होवें ॥१॥
विषय
राजा के गुण।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! ( यः ) जो ( रयिः ) दानशील, सुखप्रद ऐश्वर्य वा ऐश्वर्यवान् पुरुष ( शवसा ) बल से (पृत्सु), संग्रामों में ( अर्यः जनान् ) शत्रु लोगों के (अभि तस्थौ ) मुक़ाबले पर खड़ा हो सके ( अर्यः ) स्वामी, ( द्यौः न ) सूर्य के समान तेजस्वी और ( भूम ) पृथिवी के समान बलवान् हो । हे ( सहसः सूनो ) बलवान् सैन्य के सञ्चालक तू ऐसे ( वृत्र-तुरम् ) दुष्ट विघ्नकारी शत्रु जन के नाशक ( सहस्र-भरम् ) सहस्रों धनों के लाने वाले, सहस्रों पुरुषों के भरण पोषण करने में समर्थ ( उर्वरासाम् ) अन्नादि के उत्पादक, उर्वरा उत्तम भूमियों के भोक्ता ( तं ) उस ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( नः दद्धि ) हमें दे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
कैसा धन ?
पदार्थ
[१] (यः रयिः) = जो धन पृत्सु संग्रामों में (अर्यः जनान्) = शत्रुभूत पुरुषों को (शवसा) = बल के द्वारा (अभितस्थौ) = इस प्रकार आक्रान्त करता है, (न) = जैसे कि (द्यौः) = देदीप्यमान सूर्य (भूम) = इस पृथिवी पर अधिष्ठित होता है । हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (तं दद्धि) = उस धन को दीजिए। हम धन को प्राप्त करके शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले हों, न कि शत्रुओं से शीर्ण हो जानेवाले। [२] हे (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज प्रभो! हमें उस धन को दीजिये जो (सहस्त्रभरम्) = हजारों का भरण करनेवाला हो। केवल अपना ही पेट भरने के लिए न हो । (उर्वरासां) = [ उर्वरा + सन् संभक्तौ] सर्वसस्याढ्य [=उपजाऊ] भूमियों का सम्भजन करनेवाला हो । धन का विनियोग हम भूमि को उपजाऊ बनाने में करें। (वृत्रतुरम्) = जो धन ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाला हो । ज्ञान प्राप्ति का साधन बनते हुए यह धन वासनाओं को हमारे से दूर करे ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें वह धन दीजिये जो कि- [क] शत्रुओं को पराजित करे, [ख] हजारों का भरण करे, [ग] भूमि को उपजाऊ बनाने में विनियुक्त हो तथा [घ] वासना संहार करनेवाला हो ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र, विद्वान, राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे विद्युतप्रमाणे पराक्रमी व सूर्याप्रमाणे प्रतापयुक्त असून युद्धात साहसी असतील तर ती विजयी होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of life, creator giver of strength, commander of power and forbearance, give us that wealth and life’s value and that master ruling power vast as skies and bright as sun which, by its intrinsic strength of character can stand by people in the face of hostile forces in our struggle for progress, fight a thousand battles with success, give us lands of fertility and smiling greenery, and overcome the darkness of ignorance, poverty and injustice.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men desire is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good son of a mighty father ! endowed with much admired wealth, you are master of the wealth that is like the lightning or the sun, which overcome the foes in battles with his might. Grant us that sublime victory which nourishes or feeds thousands of people, is destroyer of the foes like the clouds and is the best (seen) on the face of the earth, so that we may become prosperous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile used in the mantra. Those men achieve victory who are mighty like electricity, radiant like the sun and adventurous in the battles.
Foot Notes
(द्यौ:) विद्युत सूर्यो वा । द्योः is from दिव- क्रीडा विजिगीषा व्यवहारद्युतिस्तुति मोदमदस्वप्न कान्तिगतिषु । अत्र द्युत्यर्थमादाय व्याख्या । = Lightning (electricity) or the sun. (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु । षूत्सुइति संग्रामनाम (NG 2.17)। = In the battles. (उर्वरासाम) बहुश्रेष्ठांना भूमीनाम् । = Very good lands.
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