ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स॒नेम॒ तेऽव॑सा॒ नव्य॑ इन्द्र॒ प्र पू॒रवः॑ स्तवन्त ए॒ना य॒ज्ञैः। स॒प्त यत्पुरः॒ शर्म॒ शार॑दी॒र्दर्द्धन्दासीः॑ पुरु॒कुत्सा॑य॒ शिक्ष॑न् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठस॒नेम॑ । ते । अव॑सा । नव्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र । पू॒रवः॑ । स्त॒व॒न्ते॒ । ए॒ना । य॒ज्ञैः । स॒प्त । यत् । पुरः॑ । शर्म॑ । शार॑दीः । दर्त् । हन् । दासीः॑ । पु॒रु॒ऽकुत्सा॑य । शिक्ष॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनेम तेऽवसा नव्य इन्द्र प्र पूरवः स्तवन्त एना यज्ञैः। सप्त यत्पुरः शर्म शारदीर्दर्द्धन्दासीः पुरुकुत्साय शिक्षन् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठसनेम। ते। अवसा। नव्यः। इन्द्र। प्र। पूरवः। स्तवन्ते। एना। यज्ञैः। सप्त। यत्। पुरः। शर्म। शारदीः। दर्त्। हन्। दासीः। पुरुऽकुत्साय। शिक्षन् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! तेऽवसा वयं सप्त पुरः सनेम यथा पूरव एनाऽवसा यज्ञैः स्तवन्ते तेन नव्यस्त्वं तैः स्तुहि यद्यः शर्म शारदीर्दासीः प्राप्य पुरुकुत्साय शिक्षन् सन् दुःखानि प्र दर्त्, शत्रून् हन्त्स सर्वैः सत्कर्तव्यः ॥१०॥
पदार्थः
(सनेम) विभजेम (ते) तव (अवसा) रक्षणादिना (नव्यः) नवीनेषु भवः (इन्द्र) परमैश्वर्यसुखप्रद (प्र) (पूरवः) मनुष्याः (स्तवन्ते) (एना) एनेन (यज्ञैः) सद्व्यवहारमयैः (सप्त) (यत्) यः (पुरः) नगरीः (शर्म) गृहम् (शारदीः) शरदि भवाः (दर्त्) विदृणाति (हन्) हन्ति (दासीः) सेविकाः (पुरुकुत्साय) बहुशस्त्राय (शिक्षन्) ॥१०॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा राजा विनयेन वर्तते तथैव सर्वे वर्त्तन्ताम्, पुरुषार्थेन सुन्दराणि पुराणि च निर्माय तेषु सर्वर्त्तु सुप्रखदेषु निवसन्तो दुःखानि दूरे प्रक्षिपन्तु ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य और सुख के देनेवाले ! (ते) आपके (अवसा) रक्षण आदि से हम लोग (सप्त) सात (पुरः) नगरियों का (सनेम) विभाग करें और जैसे (पूरवः) मनुष्य (एना) इस (अवसा) रक्षण आदि से और (यज्ञैः) श्रेष्ठ व्यवहाररूप यज्ञों से (स्तवन्ते) स्तुति करते हैं इससे (नव्यः) नवीनों में हुए आप उनसे स्तुति करिये और (यत्) जो (शर्म) गृह और (शारदीः) शरत्काल में हुई (दासीः) सेविकाओं को प्राप्त होके (पुरुकुत्साय) बहुत शस्त्रवाले के लिये (शिक्षन्) शिक्षा देता हुआ दुःखों को (प्र, दर्त्) नष्ट करता है और शत्रुओं को (हन्) मारता है, वह सब से सत्कार करने योग्य है ॥१०॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे राजा विनय से वर्त्तमान है, वैसे ही सब वर्त्तमान होवें और पुरुषार्थ से सुन्दर पुरों का निर्माण करके उन सब ऋतुओं में सुख देनेवालों में निवास करते हुए दुःखों को दूर फेंकें ॥१०॥
विषय
उत्तम सैन्यशिक्षा।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुओं को मारने हारे ! ( यत् ) जो तू ( सप्त) सात ( शारदी: ) हिंसक शत्रु की ( पुरः ) नगरियों को ( शर्म दर्त्) अपने बल से विनाश करता है, और ( पुरुकुत्साय ) बहुत से शस्त्र समूहों को धारण करने वाले सेनापति की ( दासीः ) शत्रु नाशकारिणी सेनाओं को ( शिक्षन् ) उत्तम युद्ध शिक्षा देता और वेतनादि देता हुआ शत्रुओं को ( हन् ) दण्ड देता है, उस ( ते ) तेरे ( अवसा ) रक्षा सामर्थ्य से हम ( नव्यः ) सदा उत्तम से उत्तम सम्पदाओं को (सनेम ) प्राप्त करें । और ( पूरवः ) मनुष्यगण ( यज्ञैः ) उत्तम आदर सत्कारों द्वारा ( एना ) इन नाना सम्पदाओं की ( प्र स्तवन्त ) खूब स्तुति, प्रशंसा, चर्चा किया करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
स्तोत्रों व यज्ञों से प्रभु का उपासन
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अवसा) = रक्षण के हेतु से (ते) = आपके (नव्यः) = [नु स्तुतौ] उत्कृष्ट स्तोत्र का (सनेम) = सेवन करें। आपका यह स्तवन हमें वासनाओं के आक्रमण से बचानेवाला होगा (पूरवः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले लोग (एना) = इस स्तोत्र के साथ (यज्ञैः) = यज्ञों से (प्रस्तवन्त) = शीर्ण करनेवाले 'शरद्' नामक आसुरभाव, कामवासनारूप वृत्र की पुरियों को (शर्म) = [ शृ हिंसायाम्] [शर्मणा] वज्र के द्वारा (दर्त्) = विदीर्ण करते हैं तो इन (दासी:) = कर्मों का उपक्षय करनेवाली सभी वासनाओं को (हन्) = विनष्ट करते हैं और (पुरुकुत्साय) = इस पुरुकुत्स के लिए (शिक्षन्) = धनों को [ऐश्वर्यों को] प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्तोत्र व यज्ञों से प्रभु का उपासन करें। प्रभु ही हमारी वासनाओं को विनष्ट करके हम वास्तविक ऐश्वर्य प्राप्त करायेंगे ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसा राजा विनयी असतो तसेच सर्वांनी व्हावे. पुरुषार्थाने नगरांची निर्मिती करून सर्व ऋतूंत सुख देणाऱ्या गृहात निवास करून दुःख दूर करावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of honour and excellence, by virtue of your protection and promotion, we enjoy the latest gifts of life, and the citizens adore you by these programmes of yajna since you establish seven cities for comfortable living, open out seven abundant autumnal streams against drought and deprivation, and destroy all forms of slavery and impiety for the education and advancement of the heroic wielder of power and weapons of defence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! giver of great wealth, by your protection, let us divide seven cities. As men praise you with Yajnas consisting of good dealings and acts, with this protection etc., so you also should admire good virtues and men with them because they are endowed with new knowledge and power. That man who having obtained attendants to help in the autumn season giving training to the person who has many powerful weapons destroys all miseries and slays enemies, should be respected.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should all behave like a king who deals with all with humility, Throw away all miseries, having built good houses with labor, which give delight in all seasons.
Translator's Notes
It is not correct to take पूरव: used in the mantra as the Proper Noun as Griffith translated it as "purus lands you with their sacrifices," instead of taking it to mean 'men'. Even Sayanacharya and Wilson have done, saying मनुष्या: and men (Wilson). The authority of the Vedic Lexicon Nighantu 2, 3, पूरव:इति मनुष्याणाम् (NG 2,3) is quite clear on the point. But unfortunately all the three Sayanacharya, Wilson and Griffith have committed the mistake of taking पुरुकुत्स,शरत (Purukutsa and Sharad) as Proper Nouns standing for पुरुकुत्साय एतन्नामकायराशे (सा०) शान्नाम्नोऽसुखस्य the name of a king and a demon. Griffith has interpreted शारदीः as autumn but different from Sayana's interpretation. Dayanand Sarasvati's interpretation is based upon the authority of the Vedic Lexicon- Nighantu where we find पूरव ईति मनुष्यनाम (NG 2,3 ) and कुत्स इति वज्रनाम (NG 2,20)।
Foot Notes
(पुरुकुत्साय) बहुशस्त्राय । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2,20)। = For a man possessing many powerful weapons. (पूरव:) मनुष्याः । पूरवः इति मनुष्यनाम (NG 2,3)। = Men. (शर्म) गृहम् । शर्म इति नाम (NG 3, 4 ) । = House. (यज्ञैः) सद्व्यवहारमयैः । यज्ञ-देवपूजासङ्गतिकरणेदानेषु (भ्वा.) । = Full of good dealings.
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