ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 12
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीर्ऋ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः। प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । धुनिः॑ । इ॒न्द्र॒ । धुनि॑ऽमतीः । ऋ॒णोः । अ॒पः । सी॒राः । न । स्रव॑न्तीः । प्र । यत् । स॒मु॒द्रम् । अति॑ । शू॒र॒ । पर्षि॑ । पा॒रय॑ । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् । स्व॒स्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं धुनिरिन्द्र धुनिमतीर्ऋणोरपः सीरा न स्रवन्तीः। प्र यत्समुद्रमति शूर पर्षि पारया तुर्वशं यदुं स्वस्ति ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। धुनिः। इन्द्र। धुनिऽमतीः। ऋणोः। अपः। सीराः। न। स्रवन्तीः। प्र। यत्। समुद्रम्। अति। शूर। पर्षि। पारय। तुर्वशम्। यदुम्। स्वस्ति ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनाः स किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! धुनिस्त्वं धुनिमतीः सीरा अपः स्रवन्तीः समुद्रं न स्वस्त्यृणोः। हे शूर ! यद् यस्त्वं तुर्वशं यदुं प्रति पर्षि स त्वमस्मान् पारया ॥१२॥
पदार्थः
(त्वम्) (धुनिः) शत्रूणां कम्पकः (इन्द्र) सर्वपालक (धुनिमतीः) शब्दायमानाः प्रजाः (ऋणोः) प्रसाध्नुयाः (अपः) जलानि (सीराः) नाड्यः (न) इव (स्रवन्तीः) नद्यः (प्र) (यत्) यः (समुद्रम्) सागरमन्तरिक्षं वा (अति) (शूर) (पर्षि) पालयसि (पारया) दुःखात् परं देशं गमय (तुर्वशम्) सद्यो वशगमनम् (यदुम्) यत्नशीलं मनुष्यम् (स्वस्ति) सुखम् ॥१२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे राजंस्त्वं मङ्गलसुखशब्दयुक्ता आनन्दिताः प्रजाः कुर्या यथा नद्यः समुद्रं प्राप्य स्थिरा भवन्ति तथा प्रजा भवन्तं प्राप्य निश्चलाः स्युरेवं कुर्याः ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सब के पालन करनेवाले (धुनिः) शत्रुओं के कम्पानेवाले (त्वम्) आप (धुनिमतीः) शब्द करती हुई प्रजायें (सीराः) नाडियाँ तथा (अपः) जल और (स्रवन्तीः) नदियाँ (समुद्रम्) समुद्र वा अन्तरिक्ष को (न) जैसे (स्वस्ति) सुख को (ऋणोः) प्रसिद्ध कीजिये और हे (शूर) वीर ! (यत्) जो आप (तुर्वशम्) शीघ्र वश को प्राप्त होनेवाले (यदुम्) यत्नशील मनुष्य का (प्र, अति पर्षि) प्रसिद्ध अत्यन्त पालन करते हो, वह आप हम लोगों को (पारया) दुःख से पार कीजिये ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप मङ्गल और सुख के देनेवाले शब्दों से युक्त और आनन्दित प्रजाओं को करें, जैसे नदियाँ समुद्र को प्राप्त होकर स्थिर होती हैं, वैसे प्रजायें आपको प्राप्त होकर निश्चल होवें, ऐसा करिये ॥१२॥
विषय
जलधारावत् प्रजाओं का सन्मार्ग में प्रवर्त्तन।
भावार्थ
( धुनिः धुनिमती: अपः ऋणोः सीराः न स्रवन्तीः ) मेघों को कंपाने वाला वायु कम्पनकारी विद्युतों से युक्त मेघस्थ जलों को बहती धाराओं के समान बहाता है उसी प्रकार है ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् सेनापते ! ( त्वं ) तू ( धुनिः ) शत्रुओं को कंपाने हारा होकर ( धुनिमती: अपः ) स्तुतिशील आप्त प्रजाओं को (सीराः स्रवन्तीः न ) बहती धाराओं के समान (ऋणोः ) अपने अनुकूल चला । ( यत् ) जो हे वीर ! ( शूर ) शूर तू स्वयं ( समुद्रं पर्षि) समुद्रवत् संकट को पार कर, ( तुर्वंशुं ) शीघ्र वश आने वाले (यदुम् ) यत्नवान् प्रजाजन को भी (स्वस्ति पारय) सुखपूर्वक पार कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
सीराः न स्त्रवन्तीः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं धुनि:) = आप शत्रुओं को कम्पित करनेवाले हैं। (धुनिमती:) = शत्रु-कम्पन शक्तिवाली, (सीराः न स्त्रवन्तीः) = नदियों की तरह बहती हुई, अर्थात् शान्त व नम्रभाव से अपने क्रियाकलाप को करती हुई (अपः) = प्रजाओं को आप (ऋणोः) = प्राप्त होते हैं। वस्तुतः प्रभु हमारे कर्मों से ही पूजित होते हैं, कर्मों द्वारा पूजन करनेवाले व्यक्ति को प्रभु प्राप्त होते हैं। [२] हे शूर शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (समुद्रं अतिपर्षि) [कामो हि समुद्रः] = आप इस कामरूप समुद्र के पार ले जाते हो तो (तुर्वशम्) = इस (त्वरा) = से वश में करनेवाले (यदुम्) = यत्नशील मनुष्य को (स्वस्ति पारया) = कल्याण के लिए भवसागर के पार प्राप्त कराते हो। काम-समुद्र को पार करना ही भवसागर को पार करना है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो नम्र व शान्तभाव से अपने कर्त्तव्य कर्मों में लगे रहें। इन्हीं में शत्रु- कम्पन शक्ति उत्पन्न होती है। ये ही काम-समुद्र को पार करके भवसागर को तैरते हैं और कल्याण को प्राप्त करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! तू कल्याणकारक, सुखदायक शब्दांनी युक्त होऊन प्रजेला आनंदित कर व जशा नद्या समुद्राला मिळतात व स्थिर होतात तशी प्रजा तुला प्राप्त करून निश्चल राहावी असा प्रयत्न कर. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, you are the shaker and arouser of life and passion. Arouse, accelerate and control the roaring streams of the nation’s life and wealth like the pulsating veins and arteries of the human system. O brave hero, you cross the seas and traverse the skies, let there be peace and well being with the industrious, self- controlled and dynamic humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a man do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! protector and nourisher of all, you being shaker of your foes, please and satisfy your subjects, who make sound expressing some discontent. They come to you which are like the nerves as rivers flowing towards the sea, make them happy. Take us across the river of misery, as you take a person who is under your control or obedient to you and an industrious person beyond misery and make them enjoy happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! make your subject always joyous uttering auspicious and happy words. As the rivers become established having reached the sea, so you should endeavor in such a manner that your subjects may become steady and contented having approached you.
Translator's Notes
In spite of these meanings of the words Turvasha and Yadu denoting men, how wrong it is on the part of many translators of the Vedas to take them as the Proper Nouns denoting some particular persons or families.
Foot Notes
(धुनिमतीः) शब्दायमानाः प्रजाः । ध्वन शब्दे (स्वा.)। = The people making sound (of discontent ). (सीराः) नाड्यः । = Nerves. (तुर्वशम्) सद्योवशगमनम् । तुर्वशा इति मनुष्यनाम (NG 2,3) = Under your control or obedient. (यदुम् ) यत्नशीलं मनुष्यम् । यदवः इति मनुष्यनाम् (NG 2,3)। = Industrious man.
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