ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 13
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तव॑ ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ विश्व॑मा॒जौ स॒स्तो धुनी॒चुमु॑री॒ या ह॒ सिष्व॑प्। दी॒दय॒दित्तुभ्यं॒ सोमे॑भिः सु॒न्वन्द॒भीति॑रि॒ध्मभृ॑तिः प॒क्थ्य१॒॑र्कैः ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । विश्व॑म् । आ॒जौ । स॒स्तः । धुनी॒चुमु॑री॒ इति॑ । या । ह॒ । सिस्व॑प् । दी॒दय॑त् । इत् । तुभ्य॑म् । सोमे॑भिः । सु॒न्वन् । द॒भीतिः॑ । इ॒ध्मऽभृ॑तिः । प॒क्थी । अ॒र्कैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव ह त्यदिन्द्र विश्वमाजौ सस्तो धुनीचुमुरी या ह सिष्वप्। दीदयदित्तुभ्यं सोमेभिः सुन्वन्दभीतिरिध्मभृतिः पक्थ्य१र्कैः ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठतव। ह। त्यत्। इन्द्र। विश्वम्। आजौ। सस्तः। धुनीचुमुरी इति। या। ह। सिस्वप्। दीदयत्। इत्। तुभ्यम्। सोमेभिः। सुन्वन्। दभीतिः। इध्मऽभृतिः। पक्थी। अर्कैः ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 8
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! तव या धुनीचुमुरी आजौ विश्वं पालयतो यः सस्तो ह सिष्वब्दीदयद्यो दभीतिरिध्मभृतिः पक्थ्यर्कैः सोमेभिः सुन्वँस्तुभ्यमित् सुखं प्रयच्छेत्त्यद्ध तान्त्सर्वान्त्सदा सत्कुर्याः ॥१३॥
पदार्थः
(तव) (ह) किल (त्यत्) तत् (इन्द्र) सुखधर्तः (विश्वम्) समग्रम् (आजौ) सङ्ग्रामे (सस्तः) श्यानः (धुनीचुमुरी) ध्वनिः शब्दश्चुमुरिर्भोगश्च तौ (या) यौ (ह) (सिष्वप्) स्वपन् (दीदयत्) प्रकाशयति (इत्) एव (तुभ्यम्) (सोमेभिः) ऐश्वर्यौषध्यादिभिः (सुन्वन्) निष्पादयन् (दभीतिः) हिंसकः (इध्मभृतिः) इध्मानां धारकः (पक्थी) पाचकः (अर्कैः) अन्नैः ॥१३॥
भावार्थः
हे राजँस्त्वं वावदूकान् भोक्तॄन् वीराञ्जनान् सत्कृत्य सेनाः प्रबलाः कुर्याः ॥१३॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति विंशतितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय को कहते हैं
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुख के धारण करनेवाले (तव) आपके (या) जो (धुनीचुमुरी) शब्द और भोग (आजौ) संग्राम में (विश्वम्) सम्पूर्ण का पालन करते हैं ओर जो (सस्तः) शयन करता हुआ (ह) निश्चय से (सिष्वप्) सोता हुआ (दीदयत्) प्रकाश करता है और जो (दभीतिः) हिंसा करने और (इध्मभृतिः) काष्ठ का धारण करनेवाला (पक्थी) पाचक (अर्कैः) अन्नों से और (सोमेभिः) ऐश्वर्य और ओषधि आदिकों से (सुन्वन्) उत्पन्न करता हुआ (तुभ्यम्) आपके लिये (इत्) ही सुख को देवे (त्यत्) उसको (ह) निश्चय से और उन सबों को सदा सत्कार करिये ॥१३॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप बहुत बोलनेवाले, भोक्ता, वीर जनों का सत्कार करके सेनाओं को प्रबल करिये ॥१३॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बीसवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
राजा का आदर। धुनि, चुमुरि के हनन का रहस्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! (तव ह त्यत् विश्वम् ) यह सब तेरा ही सामर्थ्य है कि ( आजौ ) युद्ध काल में भी जो तेरी ( धुनी चुमुरी ) शत्रु को कंपा देने और राष्ट्र को भोग करने वाले सामर्थ्य हैं तू उन दोनों को ( सस्तः ) सुला देते अर्थात् उनको मन्द कर देते हो । और जो ( दभीतिः ) नाश करने हारा, होकर ( इध्म-भृतिः ) लकड़ी से अपना भरण पोषण करने वाला, अग्नि के समान तेज मात्र धारण करने वाला, ( पक्थी ) परिपाक करने वाला, तेजस्वी पुरुष ( अर्कैः सोमेभिः ) अन्नों और जलों से ( तुभ्यं ) तेरा ( सुन्वन् ) सत्कार करता हुआ (दीदयत्) प्रकाशित करे तू उसको सुखी कर । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
कौन चमकता है ?
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रु विनाशक प्रभो ! (ह) = निश्चय से (त्यत् विश्वम्) = वह सब (तव) = आपका ही कार्य है कि (आजौ) = संग्राम में (धुनी) = कम्पित कर देनेवाला क्रोधासुर तथा (चुमुरी) = आचमन कर जानेवाला, शक्ति को चूस लेनेवाला कामासुर (सस्तः) = सोये पड़े हैं, (या) = जिनको (ह) = निश्चय से (सिष्वप्) = आपने ही सुलाया, मारकर इन्हें आपने ही धराशायी किया । [२] (तुभ्यम्) = हे प्रभो ! आपकी प्राप्ति के लिए (सोमेभिः) = सोमरक्षणों के द्वारा (सुन्वन्ति) = आपका अभिणव करता हुआ, हृदय में आपका दर्शन करता हुआ, (दभीतिः) = वासनाओं का हिंसन करनेवाला (इध्मभृतिः) = पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक के पदार्थों के ज्ञानरूप तीन समिधाओं का भरण करता हुआ (अर्कैः पक्थी) = स्तुतिसाधन मन्त्रों के द्वारा ज्ञान का परिपाक करनेवाला व्यक्ति (दीदयत् इत्) = निश्चय से ही होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही हमारे क्रोध व काम का संहार करते हैं। 'सोमरक्षक-वासनारूप शत्रुओं का नाशक-ज्ञान-समिधाओं का धारक, मन्त्रों द्वारा ज्ञान का परिपाक करनेवाला' व्यक्ति ही संसार में चमकता है। अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! वाक्पटू, भोक्ते, वीर लोक यांचा सत्कार करून सेना प्रबल कर. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord sustainer and giver of peace and joy, in the business of life, all that roaring action or sufferance or consumption, all is your world, for you : the idle, the restful, the sleeping, the shining, the violent, the faithful bearing holy fuel, the cook, whether preparing soma with sacred work or doing homage with songs and prayers of adoration, everything is yours, all is for you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a man do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! upholder of happiness your sound and legitimate enjoyment that protects all in the battle, the man who even when going to sleep enlightens people, he who being destroyer of enemies, upholder of the fuel for the performance of the Yajnas and who looks with various kinds of food materials, and extracting the juice of Soma and other plants or herbs or earning money, gives you happiness, you should honor all of them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should make your armies strong by taking in it powerful orators, (exhorters or inspirers), eaters of good and nourishing food (for strength) and brave persons.
Foot Notes
(धुनीचुमुरी) ध्वनिः शब्दश्चुमुरिर्भोगश्च तौ ध्वन शब्दे चमु-अदने (भ्वा.)। = Sound and legitimate enjoyment. (सस्तः) शयानः । स्वात्ति स्वपितिकर्मा (NG 3, 22 )। = Sleeping. (दभीति:) हिंसक:। दभ्नोति वधकर्मा (NG 2,19)। = Destroyer of the wicked. (आजौ) सङ्ग्रामे । आजौ इति संग्रामनामम् (NG 2,17)। = In THE Battle.
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