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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒हो द्रु॒हो अप॑ वि॒श्वायु॑ धायि॒ वज्र॑स्य॒ यत्पत॑ने॒ पादि॒ शुष्णः॑। उ॒रु ष स॒रथं॒ सार॑थये क॒रिन्द्रः॒ कुत्सा॑य॒ सूर्य॑स्य सा॒तौ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हः । द्रु॒हः । अप॑ । वि॒श्वऽआ॑यु । धा॒यि॒ । वज्र॑स्य । यत् । पत॑ने । पादि॑ । शुष्णः॑ । उ॒रु । सः । स॒ऽरथ॑म् । सार॑थये । कः॒ । इन्द्रः॑ । कुत्सा॑य । सूर्य॑स्य । सा॒तौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महो द्रुहो अप विश्वायु धायि वज्रस्य यत्पतने पादि शुष्णः। उरु ष सरथं सारथये करिन्द्रः कुत्साय सूर्यस्य सातौ ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महः। द्रुहः। अप। विश्वऽआयु। धायि। वज्रस्य। यत्। पतने। पादि। शुष्णः। उरु। सः। सऽरथम्। सारथये। कः। इन्द्रः। कुत्साय। सूर्यस्य। सातौ ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! त्वया वज्रस्य पतने यो द्रुहोऽप पादि येन महो विश्वायु धायि यद्य इन्द्रः सारथये सरथं सूर्यस्य सातौ कुत्सायोरु कः स शुष्णः सत्कर्त्तव्यः ॥५॥

    पदार्थः

    (महः) महत् (द्रुहः) द्रोग्धॄन् (अप) (विश्वायु) सर्वं जीवनम् (धायि) (वज्रस्य) शस्त्रास्त्रविशेषस्य (यत्) (पतने) (पादि) पाद्येत (शुष्णः) बलिष्ठस्य (उरु) बहु (सः) (सरथम्) रथेन सह वर्त्तमानम् (सारथये) रथचालकाय (कः) कुर्यात् (इन्द्रः) शस्त्रविदारकसेनेशः (कुत्साय) वज्रप्रहाराय। कुत्स इति वज्रनाम। (निघं०२.२०) (सूर्य्यस्य) सवितुः (सातौ) संविभागे ॥५॥

    भावार्थः

    राज्ञा द्रोहादिदोषान्निवार्य ब्रह्मचर्यादिना सर्वान् चिरायुषः सम्पाद्य रथादीन् सेनाङ्गान्त्सूर्यवत् प्रकाशितान् कृत्वा सत्यासत्ययोर्विभागेन प्रजाः पालयितव्याः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! आप से (वज्रस्य) शस्त्र और अस्त्र विशेष के (पतने) गिरने में जो (द्रुहः) द्रोह करनेवालों को (अप, पादि) दूर करे जिससे (महः) अत्यन्त (विश्वायु) सम्पूर्ण जीवन (धायि) धारण किया जाये और (यत्) जो (इन्द्रः) शत्रुओं का नाशक सेना का स्वामी (सारथये) वाहन चलानेवाले के लिये (सरथम्) वाहन के सहित वर्त्तमान को (सूर्यस्य) सूर्य के (सातौ) उत्तम प्रकार विभाग में (कुत्साय) वज्र के प्रहार के लिये (उरु) बहुत (कः) करे (सः) वह (शुष्णः) बलिष्ठ का सम्बन्धी सत्कार करने योग्य है ॥५॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि द्रोह आदि दोषों का त्याग करके ब्रह्मचर्य आदि से सम्पूर्ण जनों को अधिक अवस्थावाले करके, रथ आदि सेना के अङ्गों को सूर्य के तुल्य प्रकाशित करके, सत्य और असत्य के विभाग से प्रजाओं का पालन करे ॥५॥

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    विषय

    राजा महारथी।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो राजा ( शुष्णः वज्रस्य ) बलवान् शस्त्रबल के ( पतने ) बढ़जाने पर ( द्रुहः ) द्रोही शत्रु के ( महः ) बड़े भारी ( विश्वायु ) समस्त बल को ( अप धायि ) नीचे गिरा देता है, ( सः ) वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् सेनापति या राजा ( सूर्यस्य सातौ ) सूर्य के समान तेजस्वी पढ़ को प्राप्त करने के लिये (सारथये ) अपने सारथी, और ( कुत्साय ) शस्त्रों और शस्त्रबल की रक्षा और वृद्धि के लिये, (उरु सरथं ) एकही रथ पर पर्याप्त उद्योग ( कः ) करे । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    द्रोह से दूर

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (वज्रस्य) = क्रियाशीलतारूप वज्र के (पतने) = गतिमय होने पर (शुष्णः) = यह सुखा देनेवाला कामासुर (पादि) = [अभ्रियत] मृत्यु को प्राप्त होता है, अर्थात् क्रियाशीलता के द्वारा जब वासना का विनाश होता है तो यह जितेन्द्रिय पुरुष (विश्वायु) = सम्पूर्ण जीवन में (महः द्रुहः) = महान् द्रोह की भावना से (अपधायि) = दूर स्थापित होता है। वासना ही विद्रोह की जननी है। वासनाविनाश में वास्तविक प्रेम उपजता है । [२] (सः) = वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (सूर्यस्य सातौ) = उस ज्ञान-सूर्य प्रभु की प्राप्ति के निमित्त (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले (सारथये) = प्रभु रूप सारथि के लिए (उरु) = विशाल (सरथम्) = समान रथ को (कः) = करता है। जीव प्रभु के साथ जब समान रथ में स्थित होता है तो वह वासनाओं से अनाक्रान्त हुआ-हुआ ज्ञान सूर्य को अपने में उत्पन्न कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वासनाओं से ऊपर उठकर द्रोह की भावनाओं से दूर रहें। प्रभु को अपने रथ का सारथि बनाएँ, इसी से वासनाओं से अतिक्रान्त होकर हम ज्ञान-सूर्य के उदय को कर पाएँगे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने द्रोह इत्यादी दोषांचा त्याग करून ब्रह्मचर्य वगैरेने संपूर्ण लोकांना दीर्घायुषी करून रथ इत्यादी सेनेच्या अंगांना सूर्याप्रमाणे तेजस्वी दीर्घायुषी करून सत्य-असत्याचे विभाजन करून प्रजेचे पालन करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When on the fall of the mighty thunderbolt of justice and punishment the demon of darkness and denial is fallen and the sustaining force of all hate, jealousy and enmity is withdrawn, then the mighty Indra, further, opens and extends the field for the positive leaders and pioneers of vision, creativity and power for the nation on the march in the higher battle of light and culture.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of man's ideal areas of desires goes on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you should honor that mighty person who slays all enemies by throwing thunderbolt-like powerful weapon, and the whole life (of good men) is supported. The commander of the army who is the destroyer of the foes, does much for the welfare of a charioteer along with his chariot and for the proper use of the thunderbolt or strong weapon upon the wicked persons at proper time in the light of the sun, making due division of time.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A king should remove animosity and other evils and should make people long-lived by making them observe Brahmacharya (abstinence). He should illuminate like sun, the chariots and other parts of the arms and should protect the people by distinguishing truth from falsehood.

    Foot Notes

    (कुत्साय) वज्रप्रहाराय । कुत्स इति वज्रनाम (NG = 2,20) = For using thunderbolt-like powerful weapon. (सातौ) संविभागे । षण संभक्तौ (भ्वा०) | = In distribution.

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