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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं वृ॒ध इ॑न्द्र पू॒र्व्यो भू॑र्वरिव॒स्यन्नु॒शने॑ का॒व्याय॑। परा॒ नव॑वास्त्वमनु॒देयं॑ म॒हे पि॒त्रे द॑दाथ॒ स्वं नपा॑तम् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । वृ॒धः । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्व्यः॑ । भूः॒ । व॒रि॒व॒स्यन् । उ॒शने॑ । का॒व्याय॑ । परा॑ । नव॑ऽवास्त्वम् । अ॒नु॒ऽदेय॑म् । म॒हे । पि॒त्रे । द॒दा॒थ॒ । स्वम् । नपा॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं वृध इन्द्र पूर्व्यो भूर्वरिवस्यन्नुशने काव्याय। परा नववास्त्वमनुदेयं महे पित्रे ददाथ स्वं नपातम् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। वृधः। इन्द्र। पूर्व्यः। भूः। वरिवस्यन्। उशने। काव्याय। परा। नवऽवास्त्वम्। अनुऽदेयम्। महे। पित्रे। ददाथ। स्वम्। नपातम् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! पूर्व्यस्त्वं वृधो वरिवस्यन्नुशने काव्याय दाता भूः स्वं नपातमनुदेयं नववास्त्वं महे पित्रे ददाथ न पराऽऽददाथ ॥११॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (वृधः) वर्धकान् (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त (पूर्व्यः) पूर्वैः कृतो विद्वान् (भूः) भवेः (वरिवस्यन्) सेवमानः (उशने) कामयमानाय (काव्याय) कविभिः सुशिक्षिताय (परा) (नववास्त्वम्) नवीनं निवासम् (अनुदेयम्) अनुदातुं योग्यम् (महे) महते (पित्रे) पालकाय (ददाथ) देहि (स्वम्) स्वकीयम् (नपातम्) पातरहितम् ॥११॥

    भावार्थः

    यो राजा सर्वेषां यथायोग्यं सत्कारं करोति स पितृवद् भवति ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त (पूर्व्यः) प्राचीन से किये गये विद्वान् (त्वम्) आप (वृधः) वृद्धि करनेवालों की (वरिवस्यन्) सेवा करते हुए (उशने) कामना करते हुए (काव्याय) विद्वानों से उत्तम प्रकार शिक्षित के लिये दाता (भूः) हूजिये (स्वम्) अपने (नपातम्) पतन से रहित (अनुदेयम्) पश्चात् देने योग्य (नववास्त्वम्) नवीन निवास को (महे) बड़े (पित्रे) पालन करनेवाले के लिये (ददाथ) दीजिये और नहीं (परा) पीछे लीजिये अर्थात् न लौटाइये ॥११॥

    भावार्थ

    जो राजा सब का यथायोग्य सत्कार करता है, वह पिता के तुल्य होता है ॥११॥

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    विषय

    राजा के पितातुल्य कर्त्तव्य

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं ) तू ( उशने काव्याय ) कामना करने वाले विद्वान् या अति पूज्य ( पित्रे ) पिता के तुल्य ज्ञानदाता पुरुष के उपकारार्थ, ( स्वं नपातम् ) कभी नष्ट न होने वाला, अपना धन और ( नववास्त्वं ) उत्तम से उत्तम नवीन रहने का घर और पहरने का वस्त्र और ( अनुदेयं ) बाद में भी देने योग्य विदाई ( पराददाथ ) दान दिया कर । इस प्रकार ( वृधः वरिवस्यन् ) अपने से बड़ों की सेवा करता हुआ, ( त्वं ) तू ( पूर्व्यः भूः ) अपने पूर्व विद्यमान विद्या और वयस में वृद्ध जनों का हितकारी और श्रेष्ठ पुरुष हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    प्रभु-दत्त धन को प्रभु का ही जानें

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप उशने (काव्याय) = आपकी प्राप्ति की कामनावाले ज्ञानी पुरुष के लिए (वृध:) = [वर्धकः] वृद्धि को करनेवाले व (पूर्व्यः) = पालन व पूरण करनेवाले (भू:) = होते हैं । (वरिवस्यन्) = इसके लिए उत्तम धनों को चाहते हैं [वरिवः इच्छति]। [२] हे उपासक ! तू इस (नववास्त्वम्) = [नु स्तुतौ] स्तुत्य निवास के साधनभूत (अनुदेयम्) = अनुदातव्य धन को (महे पित्रे) = उस महान् पिता के लिए (पराददाथ) = वापिस लौटा देता है। इस प्रकार इस धन को ('स्वं नपातम्') = अपने को न गिरने देनेवाला बनाता है। वस्तुतः प्रभु से दत्त ऐश्वर्य को प्रभु का ही समझें और इस प्रकार उसका विलास में व्यय न कर, लोकहित में ही विनियोग करें तो यह धन हमारे पतन का कारण नहीं बनता। हम अपने को धन का केवल ट्रस्टी [रक्षक] समझें, धन को प्रभु का ही जानें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें धनों को देकर बढ़ाते व पालते हैं। हम इस प्रभु से अनुदातव्य धन को प्रभु का ही जानें। अपने को केवल उसका रक्षक समझें, इस प्रकार यह धन हमारे पतन का कारण न होगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा सर्वांचा यथायोग्य सत्कार करतो तो पित्याप्रमाणे असतो. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler of honour and excellence, knowledge, wisdom and generosity, be the first and foremost leader in the service of the great advancing human nation, specially for the inspired and ambitious pioneer of art, science and culture. Give the best and latest home and infrastructure worthy of being granted to the great father figure of future development which must not be self-destructive or self-defeating in any way.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (King)! endowed with know- ledge and wealth, taught by the experienced old teachers, serving those who are increasers of your wisdom and knowledge, you give new built house which is strong and firm and which can be given for other's use -to a scholar trained well by the sage poets and desiring it (on account of necessity) being himself a nourisher of the people and having given it willingly do not seek its return.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king who respects all duly is regarded by all as a father.

    Translator's Notes

    It is, therefore, wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson Griffith and others to take Ushana Kavya and Nuwavastvam as the names of particular persons. It is not only against the fundamental principles of the Vedic Terminology, but also against Sayanancharya's on "Introduction to his commentary" in which he has established the eternity of the Vedas. The meanings of these words are quite clear.

    Foot Notes

    (उशने) कामयमानाय । (उशन) वशकान्तौ (अदा०) कान्तिः-कामत्व वास्तुर्वसतार्निवास कर्मणइति (NKT 1,2,17)। = For a person desiring well. (काव्याय) कविभि: सुशिक्षिताय । = Well trained by the poet-sages, (नववास्त्वम् ) नवीनं निवासम् । तस्माद्वास्तु-निवास स्थानम्। = New house.

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