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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स वे॑त॒सुं दश॑मायं॒ दशो॑णिं॒ तूतु॑जि॒मिन्द्रः॑ स्वभि॒ष्टिसु॑म्नः। आ तुग्रं॒ शश्व॒दिभं॒ द्योत॑नाय मा॒तुर्न सी॒मुप॑ सृजा इ॒यध्यै॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वे॒त॒सुम् । दश॑ऽमायम् । दश॑ऽओणिम् । तूतु॑जिम् । इन्द्रः॑ । स्व॒भि॒ष्टिऽसु॑म्नः । आ । तुग्र॑म् । शश्व॑त् । इभ॑म् । द्योत॑नाय । मा॒तुः । न । सी॒म् । उप॑ । सृ॒ज॒ । इ॒यध्यै॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वेतसुं दशमायं दशोणिं तूतुजिमिन्द्रः स्वभिष्टिसुम्नः। आ तुग्रं शश्वदिभं द्योतनाय मातुर्न सीमुप सृजा इयध्यै ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। वेतसुम्। दशऽमायम्। दशऽओणिम्। तूतुजिम्। इन्द्रः। स्वभिष्टिऽसुम्नः। आ। तुग्रम्। शश्वत्। इभम्। द्योतनाय। मातुः। न। सीम्। उप। सृज। इयध्यै ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यः स्वभिष्टुसुम्न इन्द्रस्स त्वं द्योतनाय वेतसुं दशमायं दशोणिं तूतुजिं तुग्रमिभमियध्यै मातुर्न सीं शश्वदोप सृजा ॥८॥

    पदार्थः

    (सः) (वेतसुम्) व्यापनशीलम् (दशमायम्) दशाङ्गुलय इव माया मानं यस्य तम् (दशोणिम्) दशधोणिः परिहाणं यस्य तम् (तूतुजिम्) बलवन्तम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (स्वभिष्टिसुम्नः) सुष्ठु अभिष्टि सुम्नं सुखं यस्य यस्माद्वा (आ) (तुग्रम्) आदातारम् (शश्वत्) निरन्तरम् (इभम्) हस्तिनमिव (द्योतनाय) प्रकाशनाय (मातुः) जनन्याः (न) इव (सीम्) सर्वतः (उप) (सृजा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (इयध्यै) एतुं प्राप्तुम् ॥८॥

    भावार्थः

    स एव राजा श्रीमान् भवेद्यो दशोन्द्रियैरुत्तमं कर्मविज्ञानं वर्धयित्वाऽभीष्टसुखं सततमुन्नयेन् मातृवत्प्रजाः पालयेत् ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जो (स्वभिष्टिसुम्नः) उत्तम प्रकार अभीष्ट सुखवाले (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त राजा (सः) वह आप (द्योतनाय) प्रकाश के लिये (वेतसुम्) व्यापनशील (दशमायम्) दश अङ्गुलियों के तुल्य प्रमाण जिसका उस (दशोणिम्) दश प्रकार से परित्याग जिसका और (तूतुजिम्) बल से युक्त (तुग्रम्) ग्रहण करनेवाले (इभम्) हाथी को (इयध्यै) प्राप्त होने के लिये (मातुः) माता से (नः) जैसे वैसे (सीम्) सब ओर से (शश्वत्) निरन्तर (आ, उप, सृजा) समीप प्रकट कीजिये ॥८॥

    भावार्थ

    वही राजा धनवान् होवे कि जो दश इन्द्रियों से उत्तम कर्म और विज्ञान को बढ़ा के अभीष्ट सुख की निरन्तर उन्नति करे और माता के सदृश प्रजाओं का पालन करे ॥८॥

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    विषय

    राष्ट्रमाता का बालकवत् सुपुत्र राजा। शासनार्थ उत्तम उपकरण, दशावरा, हस्ती यान, सैन्य बल, आदि का ग्रहण।

    भावार्थ

    ( मातुः द्योतनाय न इयध्यै उपसृजे ) माता के प्रकाशित या प्रफुल्लित करने के लिये जिस प्रकार बालक उसके पास आने का यत्न करता है उसी प्रकार ( सः ) वह राजा ( मातुः द्योतनाय ) मातृ समान अपनी राष्ट्र भूमि को चमकाने के लिये और ( इयध्यै ) उसे प्राप्त करने लिये ( वेतसुं ) राज्य को अपने वश करने वाले शासन दण्ड,को (दशमायम् ) दशगुणा वृद्धि देने वाले, दशवरापरिषत् को, ( दशओणिम् ) दशों दिशाओं को वश करने में समर्थ सेनापति को ( तूतुजिम् ) शत्रुओं के नाशकारी ( तुग्रम् ) बल को अपने अधीन करने वाले सैन्य और ( इयध्यै ) गमनागमन के लिये ( इभं ) और हस्ति को ( शश्वत् ) सदा ( उप सृज ) ग्रहण करे, अपना कार्य सम्पादन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    दशमाय दशोणि

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (स्वभिष्टिसुम्नः) = उत्तम अभ्येषणीय [= चाहने योग्य] स्तोत्रोंवाले हैं। ये स्तोत्र ही उपासक के लिए भवसागर को तरानेवाली नौका बनते हैं। (इन्द्रः) = ये परमैश्वर्यशाली प्रभु (वेतसु) = वेतस की तरह नम्र (दशमायम्) = दसों की दसों इन्द्रियों की शक्तिवाले [माया extraordinary power] (दशोणिम्) = दसों इन्द्रियों को विषयों से अवनीत करनेवाले (तूतुजिम्) = शत्रुओं को नष्ट करनेवाले (तुग्रम्) = बलवान् (शश्वत्) = सदा (इभम्) = [अयगत भयं] निर्भयता को धारण करनेवाले पुरुष को (आद्योतनाय) = समन्तात् द्योतित करने के लिए (सीम्) = निश्चय से (मातुः न) = माता के समान इस वेद माता के (उप) = समीप (इयध्यै) = आने के लिए (सृजा) = विसृष्ट करते हैं, निर्मित करते हैं । [२] इस वेद माता के समीप रहता हुआ यह व्यक्ति अपने ज्ञान को दीप्त करके वस्तुत: अपने को श्रेष्ठ बना पाता है। इसके अन्दर यह वेद माता ही 'वेतसुत्व' आदि गुणों का सञ्चार करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वेद माता की गोद में 'नम्रदसों इन्द्रियों को सशक्त व विषयव्यावृत्त बनानेवाले, शत्रु संहारक, सबल व निर्भय' बन पायें । वेद माता से दी गयी ज्ञान ज्योति हमें ऐसा बनाये।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो दहा इंद्रियांनी उत्तम कर्म व विज्ञान वाढवून अभीष्ट सुख निरंतर वर्धित करतो व मातेप्रमाणे प्रजेचे पालन करतो तोच राजा श्रीमंत होतो. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, refulgent ruler commanding noble peace and cherished well being, in order to continuously advance the dominion and raise it to splendour, adopt, nurse and promote the world famous, ten ways versatile, ten ways expansive, powerful and ambitiously receptive and progressive social order as your own family, just as the mother elephant nurses, guides and promotes her calf to maturity without let up.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you who desire to attain happiness, have for enlightening you a man who goes from place to place, who has pure heart which is of the measurement of ten fingers, who refrains from doing unrighteous act with (any of the) ten senses, and who is mighty and accepter of good virtues, and has elephants etc.. for his army. He should nourish his subjects as a mother nourishes her children.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king alone can become truly rich who does righteous deed with his ten senses, increases knowledge and promotes desired happiness, constantly and who nourishes his subjects like mother.

    Translator's Notes

    मायेति प्रज्ञानाम (NG 3, 9 ) So it may also mean whose intellectual power is ten-fold than the intellect of an average person. तुजि-बलादाननिकतेनेषु (भ्वा०) । अत्र आदानार्थंग्रहणण् वी-गति व्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अदा०) अत्र व्याप्त्यर्थंग्रहणम् ।

    Foot Notes

    (दशमायम्) दशाङ्गुलय इव माया मानं यस्य तम् । माङ्-माने । = Who has a pure heart of the measurement of ten fingers. (तुस्रम् ) आदातारम् । = Accepter of good virtues. (वेतसुम् ) व्यापनशीलम्। = Pervading or going from place to place.

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