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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तं शि॑शीता सुवृ॒क्तिभि॑स्त्वे॒षं सत्वा॑नमृ॒ग्मिय॑म् । उ॒तो नु चि॒द्य ओज॑सा॒ शुष्ण॑स्या॒ण्डानि॒ भेद॑ति॒ जेष॒त्स्व॑र्वतीर॒पो नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । शि॒शी॒त॒ । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । त्वे॒षम् । सत्वा॑नम् । ऋ॒ग्मिय॑म् । उ॒तो इति॑ । नु । चि॒त् । यः । ओज॑सा । शुष्ण॑स्य । आ॒ण्डानि॑ । भेद॑ति । जेष॑त् । स्वः॑ऽवतीः । अ॒पः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं शिशीता सुवृक्तिभिस्त्वेषं सत्वानमृग्मियम् । उतो नु चिद्य ओजसा शुष्णस्याण्डानि भेदति जेषत्स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । शिशीत । सुवृक्तिऽभिः । त्वेषम् । सत्वानम् । ऋग्मियम् । उतो इति । नु । चित् । यः । ओजसा । शुष्णस्य । आण्डानि । भेदति । जेषत् । स्वःऽवतीः । अपः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With hymns and holy actions adore and glorify Indra, resplendent lord who commands the purity and truth of reality, who is adorable, who with his power and brilliance, dries up and roots out the origins and products of drought, greed and exploitation and sets aflow the liberal streams of joy and prosperity. May all poverty, exploitation, greed and unhappiness vanish from the world of humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    क्षात्रबलाच्या ओजस्वितेमुळे शत्रूंची संताने गर्भावस्थेतच नष्ट होतात. साधकाच्या दु:खवर्जक कर्मांद्वारे हे बल अधिक कार्यक्षम बनते. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    उस उपरोक्त क्षात्रबल रूपी इन्द्र को, जो (त्वेषम्) शत्रुओं तथा शत्रु भावनाओं के लिये भयानक और तेजस्वी है; (सत्वानम्) शुद्धान्तःकरण एवं बलिष्ठ है; (ऋग्मियम्) स्तुति के योग्य है; (उतो नु चित्) और (यः) जो (ओजसा) अपनी ओजस्विता से ही (शुष्णस्य) शोषक शत्रु रोग या दुर्भावना आदि (आण्डानि) गर्भस्थ सन्तान को (भेदति) छिन्न-भिन्न करता है और इस तरह (स्वर्वतीः) सुखप्रापक (अपः) कर्मों को (जेषन्) जीतता है; (तम्) उस इन्द्र को (सुवृक्तिभिः) शुभ दुःखवर्जक क्रियाओं के द्वारा (शिशीत) अधिक तीक्ष्ण, कार्यसक्षम बनाओ॥१०॥

    भावार्थ

    क्षात्रबल की ओजस्विता के फलस्वरूप ही शत्रु सन्तानें गर्भावस्था में ही नष्ट होती हैं; साधक के दुःखवर्जक कर्मों के द्वारा यह बल अधिक समर्थ बनता है॥१०॥

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    विषय

    सूर्यादि के तेज से रोगों के तुल्य दुष्टों का नाश।

    भावार्थ

    ( उतो नु चित्) और ( यः ) जो सूर्य या विद्युत्मय इन् (शुष्णस्य) शोषणकारी ताप वाले सूर्य के (ओजसा) बल पराक्रम या तेज सेक (आण्डानि भेदति) रोगकारी संयोगी अंशों को छिन्न भिन्न करता है, अथवा—वह (शुष्णस्य आण्डानि) शरीर के शोषण करनेवाले यक्ष्मादि के रोगांशों को छिन्न भिन्न करता है और ( स्वर्वती: अपः ) शब्द, या गर्जन करने वाले मेघस्थ जनों को ( जेषत् ) विजय करता है ( तं ) उस ( त्वेषं ) अति तीक्ष्ण, तेजस्वी, ( सत्वानम् ) बलवान् ( ऋग्मियम् ) स्तुति योग्य पुरुष को ( सु-वृक्तिभिः ) उत्तम योजनाओं स्तुतियों से ( शिशीत ) तीक्ष्ण करो। उसके बल को अधिक बढ़ावो। इसी प्रकार विद्युत्वत् तीक्ष्ण, तेजस्वी, बलवान् स्तुत्य पुरुष को भी बढ़ावें जो अपने शोषणकारी बल पराक्रम से दुःखदायक परसैन्यों को नाश करे, और सुखप्रद प्रजाओं को विजय करे। ( अन्यके समे नभन्ताम् ) समस्त अन्य, शत्रुगण नाश को प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    अमन्ति रोगान् कुर्वन्ति इत्याण्डानि। अमेरौणादिको डः। १।११४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    जेषत् स्वर्वतीः अपः

    पदार्थ

    [१] (तं) = उस प्रभु को (सुवृक्तिभिः) = पापवर्जन की हेतुभूत उत्तम स्तुतियों से (शिशीत) = [संस्कुरुत] अपने अन्दर तीक्ष्ण व संस्कृत करो, अर्थात् प्रभु की भावना को अपने अन्दर बढ़ाने का प्रयत्न करो। जो प्रभु त्वेषं दीप्त हैं, (सत्वानम्) = शक्तिशाली हैं व (ऋग्मियम्) = ऋचाओं से स्तुति के योग्य हैं। [२] उन प्रभु को अपने अन्दर प्रादुर्भूत करो (उत उ नु चित्) = और निश्चय से (यः) = जो (ओजसा) = शक्ति के द्वारा (शुष्णस्य आण्डानि) = शोक कामदेव के अपत्यों को भी [अण्डात् जातानि] (भेदति) = विदीर्ण कर देते हैं, अर्थात् प्रभु कामदेव को भस्म कर देते हैं। काम को नष्ट करके प्रभु ही (स्वर्वती:) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले (अपः) = रेतः कणरूप जलों का (जेषत्) = विजय करते हैं। कामाग्नि की रेत: कणरूप जलों को विनष्ट करती है, इस कामाग्नि के विध्वंस से रेतःकणों का रक्षण होता ही है और ऐसा होने पर (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ। वीर्यरक्षण के होने पर सब रोग व वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- हम स्तुति के द्वारा प्रभु को अपने में दीप्त करें। प्रभु की शक्ति हमारी वासना का विनाश करती है और वीर्यरक्षण द्वारा प्रकाश व सुख को प्राप्त कराती है।

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