ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 11
ऋषिः - नाभाकः काण्वः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं शि॑शीता स्वध्व॒रं स॒त्यं सत्वा॑नमृ॒त्विय॑म् । उ॒तो नु चि॒द्य ओह॑त आ॒ण्डा शुष्ण॑स्य॒ भेद॒त्यजै॒: स्व॑र्वतीर॒पो नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । शि॒शी॒त॒ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । स॒त्यम् । सत्वा॑नम् । ऋ॒त्विय॑म् । उ॒तो इति॑ । नु । चि॒त् । यः । ओह॑ते । आ॒ण्डा । शुष्ण॑स्य । भेद॑ति । अजैः॑ । स्वः॑ऽवतीः । अ॒पः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं शिशीता स्वध्वरं सत्यं सत्वानमृत्वियम् । उतो नु चिद्य ओहत आण्डा शुष्णस्य भेदत्यजै: स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । शिशीत । सुऽअध्वरम् । सत्यम् । सत्वानम् । ऋत्वियम् । उतो इति । नु । चित् । यः । ओहते । आण्डा । शुष्णस्य । भेदति । अजैः । स्वःऽवतीः । अपः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Adore and glorify the lord of love, non-violence and holy yajnic action, who is ever true and eternal, who rewards acts of truth and piety and inspires us to think and meditate on piety and divinity, who breaks down the roots and fruits of impiety and exploitation and conquers the streams of joy and prosperity to set them aflow. May impiety, illiberality, untruth and exploitation, all vanish from the world.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्राह्मबल साधकाला विवेकशीलता प्रदान करते. क्षात्रबलामध्ये आक्रमकता व ओज प्रबल असते. दोन्हींच्या सहयोगानेच शत्रूचा पराभव होतो. ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
जिस ब्राह्मबल के क्रियान्वयन (स्वध्वरम्) शोभन अहिंसा आदि हैं; (सत्यम्) जो कभी विपरीत फल प्रदान नहीं करता [अव्यभिचारी है]; (सत्वानम्) सत्त्वगुण विशिष्ट तथा बलवान् है; (ऋत्वियम्) जो नियमपूर्वक फल देता है; (उतो नु चित्) और (यः) जो (ओहते) तर्क-वितर्क करता है, विवेकशील है और (शुष्णस्य) शोषक की (आण्डा) गर्भस्थ सन्तान को (भेदति) भेद देता है। (स्वर्वतीः) सुख प्रापिका (अपः) क्रियाओं को (अजैः) जीतता है--(तम्) उस ब्राह्मबल को (शिशीत) कार्यक्षम बनाओ॥११॥
भावार्थ
ब्राह्मबल साधना करने वाले को विवेकशीलता देता है; जब कि क्षात्रबल में आक्रामकता और ओज प्रबल होता है। दोनों के सहयोग से ही शत्रुओं की हार होती है॥११॥
विषय
सूर्यादि के तेज से रोगों के तुल्य दुष्टों का नाश।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य अपने (शुष्णस्य) शोषक ताप के बल से (आण्डा ओहते) रोगकारी जन्तुओं को नाश करता है ( भेदति ) छिन्न भिन्न करता है और ( स्वर्वतीः अपः अजैः ) गर्जना वा सुखप्रद जलों को अपने वश करता है उसी प्रकार जो पुरुष ( शुष्णस्य आण्डा ) शोषकवत् यक्षादि रोगों, शत्रु के अण्डों वा मर्मस्थलों को भेदता, और सुखप्रद आप्त जनों को अपने गुणों से अपने वश करता है ( तं ) उस (सु-अध्वरं) उत्तम अहिंसनीय (सत्यं) सत्याचरण से युक्त, सज्जनों में उत्तम, (सत्वानम्) बलवान् (ऋत्वियम्) ऋतुओं के स्वामी सूर्यवत् ऋतु अर्थात् ज्ञानी सदस्यों के स्वामी पुरुष को ( शिशीत ) तीक्ष्ण करो, उसके बल को बढ़ाओ।
टिप्पणी
( नभन्तां० ) पूर्ववत् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
आण्डा शुष्णस्य भेदति
पदार्थ
[१] (तं) = उस प्रभु को (शिशीत) = अपने अन्दर तीक्ष्ण करो-स्तुतियों से संस्कृत करो, जो प्रभु (सत्यं) = सत्यस्वरूप हैं, (सत्वानम्) = शक्तिसम्पन्न हैं। (स्वध्वरं) = उत्तम यज्ञ आदि कर्मों के सिद्ध करनेवाले हैं। जिनकी शक्ति से उपासक यज्ञ आदि कर्मों को कर पाता है, अतएव (ऋत्वियम्) = प्रभु ऋतु-ऋतु में अर्थात् सदा उपासना के योग्य हैं। [२] (उत उ नु चित्) = और निश्चय से (यः) = जो प्रभु (ओहते) = स्तुति किये जाते हैं वे (शुष्णस्य आण्डा) = कामदेव के अपत्यों को भी (भेदति) = विदीर्ण कर देते हैं-वासना के मूल को ही विनष्ट कर देते हैं और (स्वर्वती:) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले (अपः) = रेतः कणों को (अजै:) = जीतते हैं। इस प्रकार काम विनाश से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = विनष्ट हों।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु 'स्वध्वर- सत्य - सत्वा-ऋत्विय' हैं। इनकी स्तुति जब उपासक करता है, तो प्रभु काम का समूल विनाश कर देते हैं और हमारे रेतःकणों का रक्षण कर के हमारे सब वासना व रोगरूप शत्रुओं का विनाश कर देते हैं।
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