ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
ऋषिः - नाभाकः काण्वः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - स्वराट्शक्वरी
स्वरः - धैवतः
न॒हि वां॑ व॒व्रया॑म॒हेऽथेन्द्र॒मिद्य॑जामहे॒ शवि॑ष्ठं नृ॒णां नर॑म् । स न॑: क॒दा चि॒दर्व॑ता॒ गम॒दा वाज॑सातये॒ गम॒दा मे॒धसा॑तये॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । वा॒म् । व॒व्रया॑महे । अथ॑ । इन्द्र॑म् । इत् । य॒जा॒म॒हे॒ । शवि॑ष्ठम् । नृ॒णाम् । नर॑म् । सः । नः॒ । क॒दा । चि॒त् । अर्व॑ता । गम॑त् । आ । वाज॑ऽसातये । गम॑त् । आ । मे॒धऽसा॑तये । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि वां वव्रयामहेऽथेन्द्रमिद्यजामहे शविष्ठं नृणां नरम् । स न: कदा चिदर्वता गमदा वाजसातये गमदा मेधसातये नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । वाम् । वव्रयामहे । अथ । इन्द्रम् । इत् । यजामहे । शविष्ठम् । नृणाम् । नरम् । सः । नः । कदा । चित् । अर्वता । गमत् । आ । वाजऽसातये । गमत् । आ । मेधऽसातये । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We do not shrink from you, Indra and Agni, nor do we in any way neglect you both. Indeed we invoke and invite Indra, strongest leader of the strong, to be with us. When, for sure, would the lord come to us, come with Agni at the speed of lightning to inspire us with strength for struggle and victory, to bless us with piety, wisdom and intelligence for corporate action with the spirit of yajna? May all negativities, adversities, alienations and enmities vanish.
मराठी (1)
भावार्थ
बलवान नेत्याच्या आश्रयाने व संगतीनेही कधी कधी विद्वान भेटतात. या प्रकारे या दोन्हीची संगती मिळाल्यावरच आम्हाला शत्रूंपासून व शत्रूभावनेपासून दूर होता येते. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे इन्द्र अग्नि। यदि हम (वाम्) आप दोनों को (नहि) नहीं (वव्रयामहे) मिल पाते (अथ) तो फिर (नृणां नरम्) मानवों में से नेतृत्व गुण विशिष्ट (शविष्ठम्) सबसे अधिक बलवान् (इन्द्रम् इत्) ऐश्वर्यवान् की ही (यजामहे) प्रतिष्ठा तथा संगति करते हैं। (सः) वह (कदाचित्) कभी तो (अर्वता) ज्ञानवान् के साथ [अग्निर्वा अर्वा। तै० १। ३। ६। ४] (वाजसातये) शारीरिक बलार्थ नितान्त उत्तम अन्नादि भोगों का विभागपूर्वक प्रदान करने हेतु (आगमत्) आ जाये और (मेधसातये) विचारशक्ति के लिए धारणावती बुद्धि का विभागपूर्वक प्रदान करने हेतु आ जाय और इस प्रकार हमारे (समे) सभी (अन्यके) हम से अनजाने शत्रुभाव (नभन्ताम्) नष्ट हो जायें॥२॥
भावार्थ
बलशाली नेता के आश्रय तथा संगति में भी यदा-कदा विद्वान् की प्राप्ति हो जाती है। इस तरह इन दोनों की संगति प्राप्त होने पर हमें शत्रुओं से व शत्रु भावनाओं से मुक्ति मिलती है॥२॥
विषय
इन्द्र, अग्नि, वायु, आग के समान विद्वानों के ज्ञान और तेजस्वी नायक के तेज, पराक्रम से दुष्टों का नाश।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्यवत् शत्रुहन्तः ! हे अग्ने विद्वन् ! हम (वां नहि वव्रयामहे) आप दोनों से कुछ याचना नहीं करते। ( अथ ) प्रत्युत (नृणां) मनुष्यों के बीच (नरम्) नायक (शविष्ठं) सब से अधिक बलशाली, (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता ऐश्वर्यप्रद की (यजामहे) प्रतिष्ठा और सत्संगति करते हैं। (सः नः कदाचित्) वह कभी हमें (अर्वता आगमत्) अश्व, या शत्रुहन्ता सैन्यसहित, (वाज-सातये) ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये प्राप्त हो और कभी (मेधसातये आगमत्) अन्न, यज्ञ और संग्रामादि के लिये प्राप्त हो। इस प्रकार उसके ( समे अन्यके नभन्ताम् ) समस्त शत्रु नाश को प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वाजसातये+मेधसातये
पदार्थ
[१] हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्नि देवो ! हम (वां) = आप से (नहि वव्रयामहे) = कुछ याचना नहीं करते हैं। हम तो (अथ) = अब (इन्द्रं इत्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (यजामहे) = पूजते हैं, अपने साथ संगत करते हैं। जो प्रभु (शविष्ठं) = सर्वाधिक शक्तिशाली हैं तथा (नृणां नरम्) = उन्नतिपथ पर चलनेवालों को आगे ले चलनेवाले हैं। [२] (सः) = वे प्रभु (कदाचित्) = कभी तो (नः) = हमें (अर्वता) = कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के द्वारा (आगमत्) = प्राप्त होते हैं और (वाजसातये) = शक्ति के लाभ के लिए होते हैं और कभी इन ज्ञानेन्द्रियरूप अश्वों से [इन्द्रियाश्वों से] [सा] (गमदा) = प्राप्त होते हैं और (मेध-सातये) = हमारे साथ यज्ञों को संभक्त करने के लिए होते हैं। प्रभु प्रदत्ता इस वाज [शक्ति] व मेध [यज्ञ] के द्वारा (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम किसी भी वस्तु की याचना न करते हुए प्रभु का ही पूजन करें। प्रभु हमें आगे ले चलेंगे। प्रभु हमें इन्द्रियाश्वों के द्वारा शक्ति व यज्ञों को प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हैं।
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