ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 9
पू॒र्वीष्ट॑ इ॒न्द्रोप॑मातयः पू॒र्वीरु॒त प्रश॑स्तय॒: सूनो॑ हि॒न्वस्य॑ हरिवः । वस्वो॑ वी॒रस्या॒पृचो॒ या नु साध॑न्त नो॒ धियो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्वीः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । उप॑ऽमातयः । पू॒र्वीः । उ॒त । प्रऽश॑स्तयः । सूनो॒ इति॑ । हि॒न्वस्य॑ । ह॒रि॒ऽवः॒ । वस्वः॑ । वी॒रस्य॑ । आ॒ऽपृचः॑ । या । नु । साध॑न्त । नः॒ । धियः॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वीष्ट इन्द्रोपमातयः पूर्वीरुत प्रशस्तय: सूनो हिन्वस्य हरिवः । वस्वो वीरस्यापृचो या नु साधन्त नो धियो नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वीः । ते । इन्द्र । उपऽमातयः । पूर्वीः । उत । प्रऽशस्तयः । सूनो इति । हिन्वस्य । हरिऽवः । वस्वः । वीरस्य । आऽपृचः । या । नु । साधन्त । नः । धियः । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Indra, commanding lord of perceptive and communicative powers of enlightenment, inspirer and rejuvenator of the celebrant, first, foremost and universal are your gifts of generosity, ancient and universal are your acts and songs of adoration. The grace and beneficence of the almighty are givers of settlement which may, we pray, inspire our mind, senses and actions and lead us to fulfilment and salvation. May poverty, suffering, pride and frustration vanish giving way to universal joy and freedom.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर, ऐश्वर्यवान क्षात्रबलयुक्त राजा व स्वत: जीवाला त्या सिद्धी प्राप्त करवितो त्यामुळे तो माणसाच्या विचारधारेला व त्याच्या कर्तृत्वशक्तीला संपन्न बनवितो. हाच भाव या मंत्रात व्यक्त केलेला आहे. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (हरिवः) जीवनयात्रा का भलीभाँति निर्वाह कर सकने वाली ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों की शक्तियों से सम्पन्न (हिन्वस्य) स्तुति के द्वारा सन्तुष्ट करने वाले व्यक्ति के (सूनो) प्रेरक (इन्द्र) क्षात्रबल को धारण करने वाले नेता (ते) तेरे (उपमातयः) दान [सायण] (पूर्वीः) सबसे प्रथम हैं (उत) अतः तेरी (प्रशस्तयः) स्तुतियाँ भी (पूर्वीः) सर्वप्रथम हैं। (वीरस्य) तुझ वीर द्वारा की गई (आपृचः) आपूर्तियाँ उदारता सहित प्रदत्त सिद्धियाँ (वस्वः) बसाने वाली हैं। (याः) और वे आपूर्तियाँ (नः) हमारी (धियः) बुद्धि और कर्मों को--हमारे चिन्तन तथा कृत्यों--दोनों को ही (साधन्त) सिद्ध करें॥९॥
भावार्थ
प्रभु, ऐश्वर्यवान् क्षात्रबलयुक्त राजा तथा स्वयं जीव जो सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं, वे वस्तुतः मनुष्य की विचारधारा तथा उसकी कर्तृत्व शक्ति को संपन्नता प्रदान करते हैं। यही भाव इस मन्त्र में व्यक्त हुआ है॥९॥
विषय
सूर्य, अग्निवत् व्रतपालकों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( हरिवः इन्द्र ) किरणों से युक्त ऐश्वर्यवन् सूर्यवत् तेजस्विन् ! हे ( सूनो) सर्वैश्वर्यवन् ! सर्वोत्पादक ! सर्वप्रेरक ! ( वस्वः ) सबको बसाने वाले, ( आपृचः ) सबसे प्रेम करने वाले ( वीरस्य ) शूरवीर ( हिन्वस्थ ) सबको बढ़ाने वाले ( ते ) तेरी ( उप-मातयः) उपमान ( उत प्रशस्तयः ) और तेरे उत्तम उपदेश ( पूर्वी: पूर्वीः ) सदा पूर्ण और उत्तम हैं। ( याः ) जो (नः धियः साधन्त ) हमारी बुद्धियों और कर्मों को अपने वश करें और उन्नत करें। इस प्रकार ( समे अन्यके नभन्ताम् ) समस्त विघ्नकारी नष्ट हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उपमातयः-प्रशस्तयः
पदार्थ
[१] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले, (सूनो) = उत्तम प्रेरणा को देनेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते) = आपकी (उपमातयः) = देन (पूर्वी:) = बहुत हैं, (उत) = और (प्रशस्तयः) = आपकी प्रशस्तियाँ- स्तुतियाँ (पूर्वी:) = हमारा पालन व पूरण करनेवाली हैं। [पृ पालनपूरणयोः] । [२] हे प्रभो ! (हिन्वस्य) = प्रीणित करनेवाले (वस्वः) = सबको बसानेवाले (वीरस्य) = शक्तिशाली आपके (आपृचः) = सम्पर्क [पृची सम्पर्के] वे हैं (या:) = जो (नु) = निश्चय से (नः) = हमारी (धियः) = बुद्धियों को (साधन्त) = सिद्ध करते हैं। सो आपके सम्पर्कों के द्वारा (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने हमारे लिए सब उन्नति के साधन प्राप्त कराए हैं। प्रभु का स्तवन हमारी बुद्धियों को उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराता है। उस वीर प्रभु का सम्पर्क हमें शक्ति सम्पन्न बनाता है और हम शत्रुओं पर विजय पाते हैं।
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