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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वेन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ पितृ॒वन्नवी॑यो मन्धातृ॒वद॑ङ्गिर॒स्वद॑वाचि । त्रि॒धातु॑ना॒ शर्म॑णा पातम॒स्मान्व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । पि॒तृ॒ऽवत् नवी॑यः । म॒न्धा॒तृ॒ऽवत् । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् । अ॒वा॒चि॒ । त्रि॒ऽधातु॑ना । शर्म॑णा । पा॒त॒म् । अ॒स्मान् । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑यः । र॒यी॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवेन्द्राग्निभ्यां पितृवन्नवीयो मन्धातृवदङ्गिरस्वदवाचि । त्रिधातुना शर्मणा पातमस्मान्वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । इन्द्राग्निऽभ्याम् । पितृऽवत् नवीयः । मन्धातृऽवत् । अङ्गिरस्वत् । अवाचि । त्रिऽधातुना । शर्मणा । पातम् । अस्मान् । वयम् । स्याम । पतयः । रयीणाम् ॥ ८.४०.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus do I sing a new song of adoration in honour of Indra, lord ruler of power, and Agni, lord giver of light and knowledge, as I would sing to glorify the father, the giver of honour and enlightenment, and the lord giver of the breath of life. May Indra and Agni protect and promote us with the joy of threefold gifts of truth, action and stability, and may we, I pray, be masters, protectors and promoters of the wealth, honour and excellence of life on earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    क्षात्रबल व ब्राह्मबल तसेच त्यांचे अधिष्ठाते राजा, विद्वान व सर्वस्वी परमैश्वर्यवान परमेश्वराला पितृस्थानी, बुद्धी व विचारशीलता प्रदान करणारा, प्राणधारक मानून त्यांच्या गुणांचे वर्णन करत त्यांना आपल्या अंत:करणात स्थापित करण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे. माणसाला दु:खरहित सुख याच प्रकारे स्तुतीनेच उपलब्ध होऊ शकते. ॥१२॥

    टिप्पणी

    विशेष - या सूक्ताचे देवता इन्द्र व अग्नी आहेत. त्यांच्याच गुणांचे व कृत्यांचे वर्णन संपूर्ण सूक्तात केले गेलेले आहे.

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एव) इस तरह जिन (इन्द्राग्निभ्याम्) इन्द्र तथा अग्नि के लिए [उन्हें] (पितृवत्) पालक माता-पिता के तुल्य, (मन्धातृवत्) ज्ञानधारण करने वाले एवं ज्ञान का प्रकाश देने वाले के समान और (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य जीवनदाता के समान [पद देते हुए] (नवीयः) अतिशय स्तुतिकारक वचन (अवाचि) कहा, वे इन्द्र एवं अग्नि (त्रिधातुना) तीन धारक तत्त्वों--सत्त्व, रज और तम से युक्त (शर्मणा) दुःख अभाव रूप सुख से (अस्मान्) हम साधकों की (पातम्) रक्षा करें। (वयम्) हम (रयीणाम्) दानशीलता के प्रवर्तक और ऐश्वर्यों के (पतयः) पालक (स्याम) हों॥१२॥

    भावार्थ

    क्षात्र तथा ब्राह्मबल और उनके अधिष्ठाता राजा, विद्वान् और एक सर्वोपरि परम ऐश्वर्यवान् प्रभु को पितृस्थानीय, बुद्धि और विचारशीलता प्रदान करने वाला तथा प्राणधारक मानकर उनके गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें अपने अन्तःकरण में स्थापित करने का प्रयास करना चाहिये। मनुष्य को दुःखरहित सुख इसी प्रकार की स्तुति से प्राप्त हो सकता है।॥१२॥ विशेष--इस सूक्त के देवता हैं--इन्द्र और अग्नि। उन्हीं के गुणों तथा कृत्यों का वर्णन समग्र सूक्त में है। अष्टम मण्डल में चालीसवाँ सूक्त व पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त॥

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    विषय

    सूर्यादि के तेज से रोगों के तुल्य दुष्टों का नाश।

    भावार्थ

    (एव) इस प्रकार (पितृवत्) माता पिताओं के तुल्य, पालक पोषक, (मन्धातृवत्) ज्ञानधारक उसके समान ज्ञानप्रकाशक ( अंगिरस्वत् ) अग्नि वा प्राणों के समान जीवनप्रद ( इन्द्राग्नीभ्यां ) इन्द्र विद्युत् और अग्नि वा ऐश्वर्यवान् और ज्ञानवान् पुरुषों के यह ( नवीयः ) अति स्तुत्य, वचन ( अवाचि ) उपदेश किया है। वे दोनों ( त्रिधातुना शर्मणा अस्मान् पातम्) तीनों धातु के बने गृह एवं वात, पित्त, कफ़ से युक्त त्रिधातु गृह, इस देह से हमारी रक्षा करें। (वयं रयीणां पतयः स्याम) हम सब ऐश्वर्यों बलों के पालक स्वामी हों। इति पञ्चविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    पिता-मन्धाता-अङ्गिराः

    पदार्थ

    [१] (एवा) = इस प्रकार इन्द्राग्निभ्यां बल व प्रकाश के देवों के लिए (पितृवत्) = एक रक्षक पुरुष की तरह - जैसे एक रक्षणात्मक कर्मों में लगा हुआ व्यक्ति स्तुति करता है, उसी तरह (नवीयः) = [ नु स्तुतौ] स्तुतिवचन (अवाचि) = उच्चारण किया जाता है। (मन्धातृवत्) [मन्+ धा] = ज्ञान को धारण करनेवाले पुरुष की तरह हमारे से इन्द्राग्नी के लिए स्तुतिवचन उच्चारित होती है तथा (अङ्गिरस्वत्) = अंग-प्रत्यंग में रसवाले पुष्प की तरह हमारे से इन्द्राग्नी के लिए स्तुति की जाती है। वस्तुतः इन्द्र और अग्नि का स्तोता 'रक्षक- ज्ञान का धारण करनेवाला व अंग-प्रत्यंग रसवाला' बनता है। [२] हे इन्द्र और अग्ने ! आप (त्रिधातुना) = वात-पित्त व कफ़ तीनों का सम्यक् धारण करनेवाले (शर्मणा) = शरीर गृह से इस प्रकार के शरीर को प्राप्त कराने के द्वारा (अस्मान् पातम्) = हमारा रक्षण करो। आपके द्वारा (वयं) = हम (रयीणाम्) = सब ऐश्वर्यों के (पतयः) = स्वामी (स्याम) = हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होते हुए, ज्ञान को धारण करते हुए, अंगों को रसमय [शक्तिशाली] बनाते हुए इन्द्र और अग्नि का उपासन करें। अपने अन्दर बल व प्रकाश का वर्धन करे। बल व प्रकाश के द्वारा हमारा शरीर गृह 'वात-पित्त व कफ़' सब धातुओं के साम्यवाला हो । हम ऐश्वर्यों के स्वामी बनें। अगले सूक्त में नाभाक 'वरुण' का स्तवन करते हैं-

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