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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प्र ब्रह्मा॑णि नभाक॒वदि॑न्द्रा॒ग्निभ्या॑मिरज्यत । या स॒प्तबु॑ध्नमर्ण॒वं जि॒ह्मबा॑रमपोर्णु॒त इन्द्र॒ ईशा॑न॒ ओज॑सा॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ब्रह्मा॑णि । न॒भा॒क॒ऽवत् । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । इ॒र॒ज्य॒त॒ । या । स॒प्तऽबु॑ध्नम् । अ॒र्ण॒वम् । जि॒ह्मऽबा॑रम् । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒तः । इन्द्रः॑ । ईशा॑नः । ओज॑सा । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ब्रह्माणि नभाकवदिन्द्राग्निभ्यामिरज्यत । या सप्तबुध्नमर्णवं जिह्मबारमपोर्णुत इन्द्र ईशान ओजसा नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ब्रह्माणि । नभाकऽवत् । इन्द्राग्निऽभ्याम् । इरज्यत । या । सप्तऽबुध्नम् । अर्णवम् । जिह्मऽबारम् । अपऽऊर्णुतः । इन्द्रः । ईशानः । ओजसा । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like the sage eager to throw off the veils of ignorance, send up your prayers to Indra and Agni, lord omnipotent and omniscient who, ruling the world of existence with their lustre and majesty, open up the seven fold ocean of obscure and tortuous nature to evolution and reveal the seven stage treasure of mysterious knowledge across fivefold evolution of nature to biological and spiritual stages of knowledge. May all ignorance, frustrations, and alienations vanish.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शुद्ध आत्म्याबरोबर मेळ न बसणाऱ्या, दुसऱ्याच्या शत्रूरूपी दुर्भावनांना दूर करण्यासाठी साधकाला ज्ञान व कर्म दोन्ही शक्तींची आवश्यकता आहे. याविषयीचा प्रबोध गहन समुद्रासारखा आहे. त्याच्या सुखाचे द्वार उघडणेही कठीण आहे. ब्राह्मबल व क्षात्रबल दोन्हींच्या एकत्र साह्याने हे उघडणे शक्य आहे. त्याचबरोबर ब्राह्मबलाच्या तुलनेने क्षात्रबल अधिक ओजस्वी आहे इत्यादी वर्णन या मंत्राचा विषय आहे. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे साधकगण! (नभाकवत्) अपने दुःखों का विनाश चाहने वाले के तुल्य (इन्द्राग्निभ्याम्) पूर्वोक्त इन्द्र व अग्नि हेतु (ब्रह्माणि) गुण वर्णन के मन्त्रों का (इरज्यताम्) आधिपत्य पाओ; ऐसे मन्त्रों को भली-भाँति समझ उनका प्रयोग करो। उन्हीं इन्द्र व अग्नि के लिये कि (या) जो (सप्तबुध्नम्) सात-सात आधारों वाले अर्थात् सुदृढ़ पेंदी वाले (जिह्मवारम्) टेढ़े-मेढ़े द्वार वाले (अर्णवम्) प्रबोध-जल के महोदधि को (अप ऊर्णुतः) उघाड़ते हैं; (इन्द्रः अन्यके) इन दोनों में से भी (इन्द्रः) सामर्थ्यवान् क्षात्रबल वाले (ओजसा) अपनी ओजस्विता के कारण (ईशानः) स्वामित्व करता है॥५॥

    भावार्थ

    शुद्ध आत्मा से मेल न खाने वाली, परायी शत्रुरूप दुर्भावनाओं को दूर करने हेतु साधक को ज्ञान तथा कर्म दोनों शक्तियों की आवश्यकता है। एतद् विषयक प्रबोध गहन महासागर के समान है--उसके मुखद्वार का उद्घाटन भी नितान्त दुष्कर है। ब्राह्म व क्षात्रबल दोनों की सम्मिलित मदद से ही इसका उद्घाटन हो सकता है। साथ ही ब्राह्मबल की तुलना में क्षात्रबल ज्यादा ओजस्वी है, यही उस इस मन्त्र का विषय है॥५॥

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    विषय

    विद्युत् और अग्नितत्वों को वश करने का उपदेश।

    भावार्थ

    ( या ) जो इन्द्र और अग्नि, वायु और अग्नि या सूर्य और अग्नि ( सप्तबुध्नम् ) सात मूलों वाले ( जिह्म-वारम् ) गुप्त द्वार वाले, दुष्प्राप्य (अर्णवं) सागरवत् अपार ऐश्वर्य को ( अपोर्णुतः ) खोल देते हैं उन ( नभाकवत् इन्द्राग्निभ्याम् ) नभाक अर्थात् अदृश्य रूप से विद्यमान वा बंधनकारक, आकर्षक और आघातकारक ( इन्द्राग्निभ्याम् ) विद्युत् और अग्नि तत्त्वों से ( ब्रह्माणि ) नाना ऐश्वर्यों को ( इरज्यत ) अपने वश करो और उनके बल से ही ( इन्द्रः ) सूर्य भी ( ईशानः ) सबका स्वामी है। उनके बल से ही ( अन्यके समे नभन्ताम् ) समस्त शत्रु नहींसे हो जावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सप्तबुध्न जिह्मबार [अर्णव]

    पदार्थ

    [१] (नभाकवत्) = शत्रुओं के हिंसित करनेवाले उपासक के समान (इन्द्राग्निभ्यां) = बल व प्रकाश के देवों के लिए (ब्रह्माणि) = स्तोतों को (प्र इरज्यत) = प्रकर्षेण प्रेरित करो। उन इन्द्र और अग्नि के लिए या जो (सप्तबुध्नं) = [बुध्न-मूल-bottom] 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' दो कान, दो नासिका छिद्र और दो आँखें व मुख रूप सात मूलोंवाले तथा (जिह्मबारम्) = सब जिह्मताओं का [टेढ़ेपन का कुटिलता का] निवारण करनेवाले अर्णवम् ज्ञानसमुद्र को (अपोर्णुतः) = दूरीभूत आवरणवाला करते हैं। इन्द्र और अग्नि की उपासना से ज्ञान चमक उठता है । [२] (इन्द्रः) = यह बल की देवता (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (ईशानः) = सब अच्छाइयों का ईश बनती है। इसके द्वारा (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = विनष्ट हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्र व अग्नि [ बल व प्रकाश] का आराधन करते हुए ज्ञानसमुद्र को अपगत आवरणवाला करें। इन्द्र हमारे जीवन में सब अच्छाइयों का ईश हो ।

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