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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ त्वा॒ रथं॒ यथो॒तये॑ सु॒म्नाय॑ वर्तयामसि । तु॒वि॒कू॒र्मिमृ॑ती॒षह॒मिन्द्र॒ शवि॑ष्ठ॒ सत्प॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । रथ॑म् । यथा॑ । ऊ॒तये॑ । सु॒म्नाय॑ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । तु॒वि॒ऽकू॒र्मिम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । इन्द्र॑ । शवि॑ष्ठ । सत्ऽप॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा रथं यथोतये सुम्नाय वर्तयामसि । तुविकूर्मिमृतीषहमिन्द्र शविष्ठ सत्पते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । रथम् । यथा । ऊतये । सुम्नाय । वर्तयामसि । तुविऽकूर्मिम् । ऋतिऽसहम् । इन्द्र । शविष्ठ । सत्ऽपते ॥ ८.६८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, bravest of the brave, protector of the good and true, just as we turn the chariot, so do we draw your attention and pray you turn to us and come for our protection, welfare and enlightenment, lord of infinite action and conqueror of enemies.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेवि=पुष्कळ, शविष्ठ = शवइष्ठ (महाबलाधिदेव) शव = बल । सर्वांनी त्याची (महाबली परमेश्वराची) प्रार्थना करावी. (महाबलाधिदेव) ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपीन्द्रनामधेयेन परमात्ममहिम्नः स्तूयते ।

    पदार्थः

    हे शविष्ठ ! महाबलाधि देव ! सत्पते=सतां पालक ! हे इन्द्र=परमैश्वर्य्यसंयुक्त भगवन् ! रथं यथा=रथमिव । ऊतये=रक्षायै । सुम्नाय=स्वाध्याय ज्ञानाय सुखाय च । तुविकूर्मिम्=बहुकर्माणम् । ऋतीसहम्=हिंसकानां दण्डयितारं निखिलविघ्ननिवारकम् । त्वा=त्वाम् । आवर्तयामसि=आवर्तयामः । आकृषाम इत्यर्थः ॥१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    पुनरपि इन्द्रनाम से परमात्मा के महिमा की स्तुति करते हैं ।

    पदार्थ

    (शविष्ठ) हे महाबलाधिदेव ! (सत्पते) हे सुजनरक्षक (इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यसंयुक्त महेश ! (ऊतये) अपनी-अपनी सहायता और रक्षा के लिये (सुम्नाय) स्वाध्याय, ज्ञान और सुख के लिये (त्वा+आवर्तयामसि) तुझको हम अपनी ओर खेंचते हैं अर्थात् हम पर कृपादृष्टि करने के लिये तेरी प्रार्थना करते हैं । यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(यथा+रथम्) जैसे रथ को खेंचते हैं । तू कैसा है, (तुविकूर्मिम्) जिस तेरे अनन्त कर्म हैं (ऋतीसहम्) जो तू निखिल विघ्नों को निवारण करनेवाला है ॥१ ॥

    भावार्थ

    तुवि=बहुत । शविष्ठ=शव+इष्ठ । शव=बल । सब ही उसी की प्रार्थना करें ॥१ ॥

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    विषय

    पुत्र

    शब्दार्थ

    (इन्दो) हे तेजस्विन् ! तू (न:) हमें (वाजसातमम्) अन्न देनेवाला (सहस्र भर्णसम्) सहस्रों के पालन-पोषण में समर्थ (पुरुस्पृहम् ) बहुतों को अच्छा लगनेवाला (तुविद्युम्नम्) अत्यधिक यशस्वी (विभ्वासहम्) बड़े-बड़ों का भी पराभव करनेवाला (रयिम्) पुत्र (अभि अर्ष) प्रदान कर ।

    भावार्थ

    कोई भक्त प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहता है - प्रभो ! हमें ऐसा पुत्र दे - १. जो अन्न देनेवाला हो । जिसके घर से कोई भूखा न जाए । २. पुत्र अन्न देनेवाला तो हो परन्तु दो-चार को नहीं वह सहस्रों का भरण पोषण करने की क्षमता से युक्त हो । ३. वह बहुतों को अच्छा लगनेवाला हो । वह क्रूर स्वभाव का न होकर सौम्य स्वभाव का हो । ४. उसका यश दूर-दूर तक फैला हुआ हो । ५. वह समय पड़ने पर बड़े-बड़ों का भी पराभव करानेवाला हो । वह सत्य के लिए मर मिटनेवाला हो । ‘रयि’ का धन अर्थ लेने पर मन्त्र का भाव होगा १. मेरा धन भूखों के लिए अन्न देनेवाला हो । २. मेरे पास इतना धन हो कि दो-चार का नहीं मैं सहस्रों और लाखों का भरण-पोषण कर सकूँ । ३. मेरा धन ऐसे कार्यों में लगे जो मेरी कीर्ति बढ़ानेवाले हों । ४. मेरा धन ऐसा हो जिसे पाकर मैं आलसी और निर्बल न बनूं अपितु समय आने पर मैं बड़े-बड़ों का पराभव करने के लिए तैयार रहूँ ।

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    विषय

    ईश्वराराधना, उसकी स्तुति और प्रार्थना। सृष्टिकर्त्ता का पुनः पुनः मनन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! सत्यदर्शिन् ! तेजस्विन् ! ( यथा ) जिस प्रकार (ऊतये) सुखार्थ और रक्षार्थ ( तुविकूर्मि ऋति-सहं रथं वर्तयामः ) बहुत तीव्र गति से चलने वाले, बहुत कार्यों में आने वाले, गमन में समर्थ रथ को प्रयोग में लाते हैं उसी प्रकार हे ( शविष्ठ ) अति बलशालिन् ! हे (सत्-पते) सज्जनों के पालक ! सत्, कारण पदार्थों के स्वामिन् ! ( तुवि-कूर्मिम् ) बहुत से सृष्ट्यादि कर्मों के कर्त्ता, (ऋति-षहं) दुःखदायी हिंसकों को पराजित करने वाले, ( त्वा ) तुझ को हम ( सुम्नाय ) सुख प्राप्त करने के लिये ( आ वर्तयामसि ) पुनः २ तेरा मनन, चिन्तन और शास्त्र द्वारा आवर्त्तन करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ऊतये सुम्नाय

    पदार्थ

    [१] हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् प्रभो ! (ऊतये) = रक्षा के लिए (त्वा) = आपको इसप्रकार (आवर्तयामि) = अपने जीवन में आवृत्त करते हैं (यथा) = जैसे (रथं) = रथ को प्रभुरूप रथ के द्वारा हम अपनी जीवनयात्रा को पूर्ण कर पाते हैं। [२] हे (सत्पते) = सज्जनों के रक्षक प्रभो! (तुविकूर्मिम्) = महान् कर्मोंवाले, ऋतीषहं हिंसकों का अभिभव करनेवाले (इन्द्रं) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को [आपको ] (सुम्नाय) [ आवर्तयामसि ] = सुख प्राप्ति के लिए आवृत्त करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- इस जीवन में रक्षा के लिए व सुख के लिए हम प्रभु को अपने में आवृत्त करते हैं। । प्रभुस्मरण हमें मार्गभ्रंश से बचाता है तथा सुख प्राप्त कराता है।

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