ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 17
ऋषिः - प्रियमेधः
देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
षळश्वाँ॑ आतिथि॒ग्व इ॑न्द्रो॒ते व॒धूम॑तः । सचा॑ पू॒तक्र॑तौ सनम् ॥
स्वर सहित पद पाठषट् । अश्वा॑न् । आ॒ति॒थि॒ऽग्वे । इ॒न्द्रो॒ते । व॒धूऽम॑तः । सचा॑ । पू॒तऽक्र॑तौ । स॒न॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
षळश्वाँ आतिथिग्व इन्द्रोते वधूमतः । सचा पूतक्रतौ सनम् ॥
स्वर रहित पद पाठषट् । अश्वान् । आतिथिऽग्वे । इन्द्रोते । वधूऽमतः । सचा । पूतऽक्रतौ । सनम् ॥ ८.६८.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Six organs of perception in this body system, sophisticated and pervaded by Indra, the soul, with a partner house keeper, the intellectual faculty, I have received. They are all friendly participants in the holy working of the system in divine service.
मराठी (1)
भावार्थ
वारंवार या प्रकारचे वर्णन येते की, उपासकाने आपल्या इंद्रियांना वशमध्ये करून त्यांच्याकडून पवित्र काम करून घ्यावे. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
पुनस्तमर्थमाह−आतिथिग्वे । षड्+अश्वान्=इन्द्रियरूपान् । सचा=सह । सनम् । प्राप्तवानस्मि । इन्द्रोते । वधूमतः=बुद्धिमतः । पूतक्रतौ=शुद्धकर्म्मणि ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं−(आतिथिग्वे) इस शरीर में नयन आदि (षड्) छः घोड़ों को (सचा+सनम्) साथ ही मैं प्राप्त करता हूँ । इसी प्रकार (इन्द्रोते) ईश्वरव्याप्त शरीर में (वधूमतः) बुद्धिरूप नारी सहित और (पूतक्रतौ) शुद्धकर्म शरीर में इन्द्रियगण प्राप्त हैं ॥१७ ॥
भावार्थ
वारंवार इसलिये इस प्रकार का वर्णन आता है कि उपासक अपने इन्द्रियगणों को वश में करके इनसे पवित्र काम लेवे ॥१७ ॥
विषय
६ सेनापतियों की नियुक्ति। वधूमान् अश्वों का रहस्य।
भावार्थ
(आतिथिग्वे) पूज्य के सत्कारक, विनीत वाणी वाले (इन्द्रोते) ऐश्वर्य से युक्त, ( पूत-क्रतौ ) पवित्र कर्म और पवित्र ज्ञान वाले पुरुष के अधीन ( वधूमतः षट् अश्वान्) ‘वधू’ अर्थात् शत्रु का वध करने, उनको कम्पित कर देने वाली सैन्य शक्ति से युक्त छः अश्वसैन्य के स्वामी सेनापतियों को मैं (सचा) एक साथ ही ( सनम् ) प्राप्त करूं। (२) अध्यात्म में—पवित्राचारवान् पावन-प्रज्ञ, सर्वोपरि वाणी के स्वामी आचार्य के अधीन रहकर मैं वहनकारिणी प्राण या चेतना शक्ति से युक्त चक्षु आदि पांच और छठा मन इन इन्द्रिय गण को मैं शिष्य वश करूं। अथवा—मैं साधक, आत्मा से रक्षित, पवित्रकर्मा, व्यापक इन्द्रिय सम्पन्न देह में ( वधूमतः ) देहधारक शक्ति से युक्त पांच इन्द्रिय, मन, इन छः मुख्य प्राणों को धारण करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
आतिथिग्व- इन्द्रोत- पूतक्रतु
पदार्थ
[१] (आतिथिग्वे) = निरन्तर उस महान् अतिथि प्रभु की ओर गतिवाले, (इन्द्रोते) = परमैश्वर्यवान् प्रभु से रक्षित (पूतक्रतौ) = पवित्र प्रज्ञान व कर्मोंवाले पुरुष में सचा-संगत (वधूमतः) = कार्यवहन की शक्तिवाली [ वह धातु से वधू] (षड् अश्वान्) = मनसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों को (सनम्) = प्राप्त करता हूँ। [२] मेरे इन्द्रियाश्व अपने कार्यों को सुचारूरूपेण करते हैं। मुझे चाहिए कि मैं प्रभु की ओर गतिवाला - प्रभु से रक्षित व पवित्र प्रज्ञानों व कर्मोंवाला बनूँ।
भावार्थ
भावार्थ- मुझे वे इन्द्रियाश्व प्राप्त हों, जो प्रभु की ओर जानेवाले को प्राप्त होते हैं, जो प्रभु से रक्षित व्यक्ति को प्राप्त होते हैं और जो पवित्र प्रज्ञान व कर्मोंवाले पुरुष को प्राप्त होते हैं।
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