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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒रुं नृभ्य॑ उ॒रुं गव॑ उ॒रुं रथा॑य॒ पन्था॑म् । दे॒ववी॑तिं मनामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रुम् । नृऽभ्यः॑ । उ॒रुम् । गवे॑ । उ॒रुम् । रथा॑य । पन्था॑म् । दे॒वऽवी॑तिम् । म॒ना॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरुं नृभ्य उरुं गव उरुं रथाय पन्थाम् । देववीतिं मनामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरुम् । नृऽभ्यः । उरुम् । गवे । उरुम् । रथाय । पन्थाम् । देवऽवीतिम् । मनामहे ॥ ८.६८.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Rise and advancement for the people, expansion and development for lands and cattle, expansion and improvement of highways for transport, we pray for, and for that we think and research and plan, and we seek the favour of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांचे यज्ञ इत्यादी शुभ कर्म केवळ आपल्यासाठीच नाही तर जड व चेतन दोन्हींसाठी कल्याणकारी आहे. ॥१३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    नृभ्यः=मनुष्येभ्यः । उरुं=बहुलाभकरम् । गवे= गवादिपशुभ्यः । उरुं=हितकरम् । रथाय । उरुम् । पन्थाम् । देववीतिम् । देवयज्ञम् । मनामहे=मन्यामहे ॥१३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हम उपासकगण (देववीतिम्) शुभकर्म को (मनामहे) समझते हैं कि यह (नृभ्यः+उरुम्) मनुष्य के लिये बहु विस्तृत शुभ (पन्थाम्) मार्ग है, (गवे+उरुम्) गौ अश्वादि पशुओं के लिये भी यह हितकारी है तथा (रथाय+उरुम्+पन्थाम्) रथों के लिये भी सुखकारी है ॥१३ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों का शुभ यज्ञादि कर्म केवल अपने ही लिये नहीं, किन्तु जड़ और चेतन दोनों का कल्याणकारी है ॥१३ ॥

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    विषय

    उसकी रतुति और प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हम लोग ( नृभ्यः उरुं ) मनुष्यों के हितार्थ बहुत बड़ा ( पन्थाम् ) मार्ग चाहते हैं ( गवे ) गवादि जन्तुओं के लिये भी ( उरु पन्थाम् ) बहुत बड़ा मार्ग और ( रथाय उरुं पन्थाम् ) रथ के लिये भारी मार्ग और ( देव-वीतिं ) विद्वानों का उत्तम ज्ञान, प्रकाश तथा देव, दान-वान् पुरुष की नीति रक्षा, बल, कान्ति की ( मनामहे ) याचना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    विशालता [दूरदृष्टि]

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (नृभ्यः) = मनुष्यों के लिए (उरुं पन्थाम्) = विशाल मार्ग की (मनामहे) = हम याचना करते हैं। सब मनुष्यों के साथ हम विशाल दृष्टिकोण से ही सारा व्यवहार करें। गो-गौओं के लिए भी (उरुं) [पन्थां मनामहे ] = हम विशाल मार्ग को अपनाएँ । दूरदृष्टि से ही उनकी उपयोगिता को सोचें। उनके दूध में थोड़े से मक्खन की कमी हमें भैंस के दूध के प्रति प्रेमवाला न बना दे। [२] हम (रथाय) = अपने शरीररूप रथ के लिए भी (उरुं पन्थाम्) = विशाल मार्ग को (मनामहे) = माँगते हैं, अर्थात् हमारे सारे व्यवहार दीर्घदृष्टि से ही किये जाएँ। इस प्रकार देववीतिं दिव्यगुणों की प्राप्ति की - दिव्यगुणों की प्राप्ति के साधनभूत यज्ञों की हम कामना करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सब मनुष्यों के साथ हमारा व्यवहार विशाल मन से हो। गौवों के विषय में हमारी दृष्टि दूर के हित को सोचनेवाली हो। शरीर के विषय में दूरदृष्टि से प्रत्येक क्रिया को करें। दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए यत्नशील हों।

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