ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
तुवि॑शुष्म॒ तुवि॑क्रतो॒ शची॑वो॒ विश्व॑या मते । आ प॑प्राथ महित्व॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठतुवि॑ऽशुष्म । तुवि॑क्रतो॒ इति॒ तुवि॑ऽक्रतो । शची॑ऽवः । विश्व॑या । म॒ते॒ । आ । प॒प्रा॒थ॒ । म॒हि॒ऽत्व॒ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुविशुष्म तुविक्रतो शचीवो विश्वया मते । आ पप्राथ महित्वना ॥
स्वर रहित पद पाठतुविऽशुष्म । तुविक्रतो इति तुविऽक्रतो । शचीऽवः । विश्वया । मते । आ । पप्राथ । महिऽत्वना ॥ ८.६८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord omnipotent of infinite action, infinitely helpful, omniscient, with your cosmic power and grandeur you pervade the whole universe.
मराठी (1)
भावार्थ
तुवि = पुष्कळ, १ उरू २ - तुवि ३ - पुरु ४ भूरि ५ - शश्वत ६-विश्व ७ परीणसा ८ व्यानशि ९ - शत १०- सहस्र ११ सलील व १२ - कुविन ही १२ (द्वादश) ही परमेश्वराची पुष्कळ नावे आहेत. (निघण्टु ३।१) शुष्म = बल । शची = कर्म. निघण्दु पाहा. हे माणसांनो! ज्याचे बल, प्रज्ञा व कर्म अनंत आहेत. जो स्वत: ज्ञानरूपाने सर्वत्र व्याप्त आहे, तोच सर्वांचा पूज्य आहे. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे तुविशुष्म=बहुबल ! हे तुविक्रतो=बहुज्ञान ! हे शचीवः=शचीवन्=अनन्तकर्मन् ! हे मते=ज्ञानरूपदेव ! त्वम् । विश्वया=विश्वव्याप्तेन । महित्वना=महत्त्वेन । सर्वत्र आपप्राथ=आपूर्णोऽस्ति ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(तुविशुष्म) हे सर्वशक्ते (तुविक्रतो) हे सर्वज्ञ (शचीवः) हे अनन्तकर्मन् (मते) हे ज्ञानरूप देव ! तू (विश्वया) समस्तव्यापी (महित्वना) निज महत्त्व से (आ+पप्राथ) सर्वत्र पूर्ण है ॥२ ॥
भावार्थ
तुवि=बहुत । १−उरु २−तुवि ३−पुरु ४−भूरि ५−शश्वत् ६−विश्व ७−परीणसा ८−व्यानशि ९−शत १०−सहस्र ११−सलिल और १२−कुवित् ये १२ (द्वादश) बहुनाम हैं । निघण्टु ३ । १ । शुष्म=बल । शची=कर्म । निघण्टु देखो । हे मनुष्यों ! जिसके बल, प्रज्ञा और कर्म अनन्त-अनन्त हैं, जो स्वयं ज्ञानरूप से सर्वत्र व्याप्त है, वही सबका पूज्य है ॥२ ॥
विषय
विश्व का विस्तारक परमेश्वर।
भावार्थ
हे ( तुवि-शुष्म) बहुत बलों से सम्पन्न, प्रचुर शक्तिमन् ! हे ( तुविक्रतो ) बहुत प्रज्ञासम्पन्न ! महामते। हे ( शचीवः ) शक्ति, वाणी के स्वामिन् ! तू ( महित्वना ) महान् सामर्थ्य से हे ( मते ) मनन करने हारे ज्ञानमय ! ( विश्वया आ पप्राथ ) समस्त विश्व को तू ही फैलाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
तुविशुष्म, तुविक्रतोः
पदार्थ
[१] हे (तुविशुष्म) = महान् बलवाले ! (तुविक्रतो) = महती प्रज्ञावाले [महान् प्रज्ञानवाले] (शचीव:) = शक्तिसम्पन्न कर्मोंवाले (मते) = मनन-बुद्धि व प्रज्ञानवाले प्रभो! आप (विश्वया) = सर्वत्र व्याप्त (महित्वना) = महिमा से (आपप्राथ) = सर्वत्र विस्तृत हो रहे हो। [२] प्रभु की महिमा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड परिपूरित है। सूर्यादि पिण्डों में प्रभु की शक्ति व तेज का अनुभव होता है। ज्ञानियों में प्रभु के ज्ञान की झलक मिलती है।
भावार्थ
भावार्थ-सारा ब्रह्माण्ड प्रभु की महिमा को व्यक्त कर रहा है।
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