ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 16
ऋषिः - प्रियमेधः
देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः
छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
सु॒रथाँ॑ आतिथि॒ग्वे स्व॑भी॒शूँरा॒र्क्षे । आ॒श्व॒मे॒धे सु॒पेश॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽरथा॑न् । आ॒ति॒थि॒ऽग्वे । सु॒ऽअ॒भी॒शून् । आ॒र्क्षे । आ॒श्व॒ऽमे॒धे । सु॒ऽपेश॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुरथाँ आतिथिग्वे स्वभीशूँरार्क्षे । आश्वमेधे सुपेशसः ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽरथान् । आतिथिऽग्वे । सुऽअभीशून् । आर्क्षे । आश्वऽमेधे । सुऽपेशसः ॥ ८.६८.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
For the body in service of the visiting resident soul, I get another two fast and controlled organs in fine shape for the systemic and yajnic working of the body system.
मराठी (1)
भावार्थ
आपल्या इंद्रियांनी शुभ कर्म करत शरीर - जन्म सफल करा. ॥१६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
पुनस्तमेवार्थं प्रकारान्तरेणाह−आतिथिग्वे=अतिथिः परमात्मा गीयते येन शरीरेण सोऽतिथिगुः । स एवाऽऽतिथिगुः । तस्मिन् । सुरथान् । आर्क्षे=ऋक्षस्य पुत्रे शरीरे । स्वभीशून् । आश्वमेधे=शरीरे । सुपेशसः=सुरूपान् । आदद इति शेषः ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
पुनः उसी विषय को अन्य प्रकार से कहते हैं । यह वर्णन समुदाय इन्द्रियों का है । (अतिथिग्वे) इस शरीर के निमित्त (सुरथान्) अच्छे रथयुक्त इन्द्रियरूप अश्वों को मैं प्राप्त करता हूँ (आर्क्षे) ईश्वरविरचित शरीर के हितार्थ (स्वभीशून्) अच्छे लगाम सहित इन्द्रियाश्वों को मैं प्राप्त होता हूँ । इसी प्रकार (आश्वमेधे) इन्द्रियाश्रय देह के मङ्गलार्थ (सुपेशसः) सुन्दर इन्द्रियाश्वों को मैं प्राप्त होता हूँ ॥१६ ॥
विषय
राष्ट्र में उत्तम वीरों की नियुक्ति।
भावार्थ
( आतिथिग्वे ) अतिथि के आदर सत्कारार्थ वाणी को विनय पूर्वक प्रयोग करने वाले, ( आर्क्षे ) शत्रु पर आक्रमण करने में कुशल, ( आश्वमेधे ) अश्व-सैन्य से शत्रुओं का संग्राम रूप यज्ञ करने वाले, वीर नायक के अधीन ( सुपेशसः ) उत्तम रूपवान्, ( सु-अभीशून् ) उत्तम लगामों से युक्त ( सु-रथान् ) उत्तम रथ वाले अश्वों के समान, उत्तम रूप धनादि से सम्पन्न, ( सु-अभीशून् ) अंगुलि वा सुअवयवों से सम्पन्न, ( सुरथान् ) उत्तम रथारोही, वा उत्तम देहवान् वीर, दृढ़, योद्धा पुरुषों को मैं (आददे) अपने राष्ट्र में और शासन में नियुक्त करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सुरथ-स्वभीशु-सुपेशस्
पदार्थ
[१] (आतिथिग्वे) = अतिथिग्व-उस महान् अतिथि प्रभु के प्रति गतिवाले के सन्तान, अर्थात् अतिशयेन प्रभु की ओर जानेवाले, प्रभु से रक्षित 'इन्द्रोत' में होनेवाले (सुरथान्) = शोभन शरीररथवाले इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करता हूँ। [२] (आर्क्षे) = ऋक्षपुत्र में - अतिशयेन गतिशील व्यक्ति में होनेवाले (स्वभीशून्) = उत्तम मनरूप लगामवाले इन्द्रियाश्वों को मैं प्राप्त करता हूँ। [३] (आश्वमेधे) = सर्वव्यापक प्रभु से मेलवाले पुरुष में होनेवाले (सुपेशसः) = उत्तम आकृतिवाले इन्द्रियाश्वों को मैं प्राप्त करता हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे इन्द्रियाश्व उत्तम शरीररूप रथवाले उत्तम मनरूप लगामवाले व उत्तम आकृति के हों।
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