ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 18
ऋषिः - प्रियमेधः
देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ऐषु॑ चेत॒द्वृष॑ण्वत्य॒न्तॠ॒ज्रेष्वरु॑षी । स्व॒भी॒शुः कशा॑वती ॥
स्वर सहित पद पाठआ । एषु॑ । चे॒त॒त् । वृष॑ण्ऽवती । अ॒न्तः । ऋ॒ज्रेषु॑ । अरु॑षी । सु॒ऽअ॒भी॒शुः । कशा॑ऽवती ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐषु चेतद्वृषण्वत्यन्तॠज्रेष्वरुषी । स्वभीशुः कशावती ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एषु । चेतत् । वृषण्ऽवती । अन्तः । ऋज्रेषु । अरुषी । सुऽअभीशुः । कशाऽवती ॥ ८.६८.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In the midst of these simple and straight organs of sense, fast but well steered, there is one which is extremely generous and creative, the intelligence, which holds the whip and the reins both, that is, the acceleration and the steer and the brakes for proper movement of the systemic chariot.
मराठी (1)
भावार्थ
या इंद्रियांबरोबर अद्भुत शक्तिशालिनी जी विवेकवती बुद्धी आहे तिला मनन इत्यादी व्यवहाराने सदैव वाढवावे व शुद्ध ठेवावे. हे संपूर्ण जग तिच्या वशमध्ये आहे. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
बुद्धिं वर्णयति ।
पदार्थः
एषु+ऋज्रेषु=ऋजुगामिषु । इन्द्रियाश्वेषु अन्तर्मध्ये । एका । कशावती=विवेकवती बुद्धिर्नारी । आचेतत्=आचेतयति ज्ञानशक्त्या शास्तीत्यर्थः । कीदृशी वृषण्वती=वर्षाकारिणी । पुनः । अरुषी=आरोचमाना=शोभमाना । पुनः । स्वभीशुः= सुप्रग्रहा ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
बुद्धि का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
(एषु+ऋज्रेषु) इन सरलगामी इन्द्रियों में (अन्तः) मध्य एक (कशावती) विवेकवती बुद्धिरूपा नारी (आचेतत्) सबको चिताती और शासन करती है, जो (वृषण्वती) सुख की वर्षा करनेवाली है और (स्वभीशुः) जिसके हाथ में अच्छा लगाम है ॥१८ ॥
भावार्थ
इन इन्द्रियों के साथ अद्भुत शक्तिशालिनी जो विवेकवती बुद्धि है, उसको मनन आदि व्यापारों से सदा बढ़ाना और शुद्ध-शुद्ध रखना चाहिये, यह सम्पूर्ण जगत् इसी के वश में है ॥१८ ॥
विषय
अध्यात्म व्याख्या। देह में वाणीवत् राष्ट्र में राजसभा का रूप।
भावार्थ
( एषु ऋज्रेषु ) इन ऋजु, धर्म मार्ग में चलने वाले विद्वानों के ऊपर या ( वृषण्वती ) बलवान् पुरुषों वा दृढ़ नायक सभापति वाली, ( अरुषी ) तेजस्विनी, (सु-अभीशुः ) सुप्रबद्ध नियम व्यवस्था से सम्पन्न (कक्षावती) वाणी, वा आज्ञा की स्वामिनी राजसभा ( आचेतत् ) सब कुछ विचार किया करे। ( २ ) अध्यात्म में—( एषु ) इन ( ऋज्रेषु ) गतिशील प्राणों पर उनमें ( वृषण्वती ) बलवान् मन की स्वामिनी, ( अरुषी ) दीप्तिमती, ( सु-अभी: ) देह की संचालक ज्ञानतन्तुओं की स्वामिनी, (कशावती) वाणी की स्वामिनी (अचेतत् ) देह में सर्वत्र चेतना को प्रकट करती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'अरुषी-कशावती' बुद्धि
पदार्थ
(एषु ऋज्रेषु अन्तः) = इन सरल गतिवाले इन्द्रियाश्वों से युक्त पुरुषों के हृदयों में (वृषण्वती) = शक्तिशाली प्राणोंवाली, (अरुषी) = आरोचमान, (स्वभीशुः) = उत्तम लगामवाली सम्यक् नियन्त्रण करनेवाली, (कशावती) = उत्तम ज्ञान की वाणियोंवाली बुद्धि (आचेतत्) = सर्वथा चेतना को करनेवाली होती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम ऋज्र बनें-सरल गतिवाले बनें। हमें वह बुद्धि प्राप्त होगी जो उत्तम ज्ञान की वाणियों को प्राप्त कराती हुई तथा हमारे जीवनों में सम्यक् नियन्त्रण करती हुई हमें प्राणशक्तिसम्पन्न व आरोचमान बनाएगी।
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