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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 68/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒ज्रावि॑न्द्रो॒त आ द॑दे॒ हरी॒ ऋक्ष॑स्य सू॒नवि॑ । आ॒श्व॒मे॒धस्य॒ रोहि॑ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒ज्रौ । इ॒न्द्रो॒ते । आ । द॒दे॒ । हरी॒ इति॑ । ऋक्ष॑स्य । सू॒नवि॑ । आ॒श्व॒ऽमे॒धस्य॑ । रोहि॑ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋज्राविन्द्रोत आ ददे हरी ऋक्षस्य सूनवि । आश्वमेधस्य रोहिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋज्रौ । इन्द्रोते । आ । ददे । हरी इति । ऋक्षस्य । सूनवि । आश्वऽमेधस्य । रोहिता ॥ ८.६८.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 68; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I have got two sensitive and dynamic organs of communication protected and promoted by Indra for the body form of the spirit and for efficient working of the body system.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! हे पवित्र शरीर तुम्हाला दिलेले आहे. याद्वारे शुभ कर्म करा. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अहमुपासकः । इन्द्रोते=इन्द्रेणेशेन । उते=व्याप्ते शरीरे । ऋज्रा=ऋजुगामिनौ=नासिकारूपौ । आददे=गृह्णामि । ऋक्षस्य=मृक्षस्य शुद्धस्य जीवस्य । सूनवि=सूनौ शरीरे । हरी=हरणशीलौ नयनात्मकौ । अश्वावाददे । आश्वमेधस्य अश्वाः=इन्द्रियाणि यत्र मेध्यन्ते इज्यन्ते सोऽश्वमेधः । स एवाश्वमेधः । तस्य शरीरस्य कल्याणाय । रोहिता=रोहितौ कर्णात्मकौ । अश्वौ आददे ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    मैं उपासक (इन्द्रोते) ईश्वर से व्याप्त इस शरीर के निमित्त (ऋज्रा) ऋजुगामी नासिका रूप दो अश्व (आददे) लेता हूँ । (ऋक्षस्य+सूनवि) शुद्ध जीवात्मा के पुत्र शरीर के हेतु (हरी) हरणशील नयनरूप दो अश्व विद्यमान हैं और पुनः (आश्वमेधस्य) इन्द्रियाश्रय शरीर के कल्याण के लिये (रोहिता) प्रादुर्भूत कर्णरूप दो इसमें संयुक्त हैं ॥१५ ॥

    भावार्थ

    हे नरो ! यह पवित्र शरीर तुमको दिया गया है, इससे शुभ कर्म करो ॥१५ ॥

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    विषय

    अश्वमेध-राष्ट्र शासनवत् देहव्यवस्था।

    भावार्थ

    (आश्वमेधस्य) अर्थात् अश्व, भोक्ता आत्मा के वा (आश्वमेधस्य) अश्व भोक्ता आत्मा वा अश्ववत् इन्द्रिय मन से संयुक्त (ऋक्षस्य) गतिशील, जंगम शरीर के ( सूनवि ) प्रेरक (इन्द्रोते) आत्मा से रक्षित इस शरीर रूप राष्ट्र में ( ऋजौ ) ऋजु मार्ग से जाने वाले, ( रोहिता हरी ) अन्न आदि से पुष्ट, दो अश्वोंवत् प्राण-आपान को मैं साध कर ( आददे ) वश करूं। (२) ( आश्वमेधस्य ऋक्षस्य सूनवि इन्द्रोते ऋजौ रोहिता हरी आददे ) अश्व मेध अर्थात् राष्ट्र का शासन करने वाले, ऋक्ष, अर्थात् पराक्रमी सैन्य के प्रेरक वा उत्पादक, राजा से सुरक्षित वा शत्रुहन्ता सैन्य-बल से सुरक्षित ऋजु, धर्म मार्ग में चलने वाले ( रोहिता ) वृद्धिशील, अनुरक्त, ( हरी ) स्त्री पुरुषों को मैं राजा ( आददे ) अपने अधीन लेता हूं। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ १—१३ इन्द्रः। १४—१९ ऋक्षाश्वमेधयोर्दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः—१ अनुष्टुप्। ४, ७ विराडनुष्टुप्। १० निचृदनुष्टुप्। २, ३, १५ गायत्री। ५, ६, ८, १२, १३, १७, १९ निचृद् गायत्री। ११ विराड् गायत्री। ९, १४, १८ पादनिचृद गायत्री। १६ आर्ची स्वराड् गायत्री॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    इन्द्रोत, ऋक्षसूनु आश्वमेघ

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रोत) = [इन्द्र+उत] प्रभु से रक्षित व्यक्ति में (ऋजौ) = ऋजुगामी जो इन्द्रियाश्व हैं, उनको (आददे) = मैं ग्रहण करता हूँ। प्रभु के उपासक के ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व सरल मार्ग से चलनेवाले होते हैं। मैं भी इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करता हूँ। [२] (ऋक्षस्य) = गतिशील पुरुष के [ऋष् गतौ] (सूनवि) = पुत्र में, अर्थात् अत्यन्त गतिशील में जो (हरी) = हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले इन्द्रियाश्व हैं, उन्हें मैं प्राप्त करता हूँ। [३] (आश्वमेधस्य) = अश्वमेध के पुत्र अर्थात् उत्कृष्ट अश्वमेध [अश्नुते इति अश्व:] - सर्वव्यापक प्रभु के साथ मेल करनेवाले के [मेधू संगमे] (रोहिता) = तेजस्वी [लालवर्ण के] इन्द्रियाश्वों को मैं प्राप्त करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से रक्षित गतिशील पुरुष के इन्द्रियाश्व ऋजुगामी व लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले होते हैं। सर्वव्यापक प्रभु के साथ मेलवाला पुरुष इन्द्रियाश्वों को तेजस्वी बनाता है।

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