अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
ऋषिः - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
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यदि॒ स्थ तम॒सावृ॑ता॒ जाले॑न॒भिहि॑ता इव। सर्वाः॑ सं॒लुप्ये॒तः कृ॒त्याः पुनः॑ क॒र्त्रे प्र हि॑ण्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । स्थ । तम॑सा । आऽवृ॑ता । जाले॑न । अ॒भिहि॑ता:ऽइव सर्वा॑: । स॒म्ऽलुप्य॑ । इ॒त: । कृ॒त्या: । पुन॑: । क॒र्त्रे । प्र । हि॒ण्म॒सि॒ ॥१.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि स्थ तमसावृता जालेनभिहिता इव। सर्वाः संलुप्येतः कृत्याः पुनः कर्त्रे प्र हिण्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । स्थ । तमसा । आऽवृता । जालेन । अभिहिता:ऽइव सर्वा: । सम्ऽलुप्य । इत: । कृत्या: । पुन: । कर्त्रे । प्र । हिण्मसि ॥१.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।
पदार्थ
(यदि) जो तुम (तमसा) अन्धकार से (आवृता) ढक लेनेवाले (जालेन) जाल से (अभिहिताः इव) बन्धी हुई के समान (स्थ) हो। (इतः) यहाँ से (सर्वाः) सब (कृत्याः) हिंसा क्रियाओं को (संलुप्य) काट डालकर (पुनः) फिर (कर्त्रे) बनानेवाले के पास (प्र हिण्मसि) हम भेजे देते हैं ॥३०॥
भावार्थ
जो छली मनुष्य दीन अज्ञानियों को फाँसकर उनसे अपराध करावें, राजा खोज करके उन बहकानेवालों को उचित दण्ड देवे ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(यदि, स्थ) (तमसा) अन्धकारेण (आवृता) वृणोतेः-क्विप् तुक् च। आवरकेण (जालेन) पाशेन (अभिहिताः) बद्धाः (इव) (सर्वाः) (संलुप्य) सम्यक् छित्वा (कृत्याः) दोषक्रियाः (इतः) अस्मात् स्थानात् (पुनः) पश्चात् (कर्त्रे) रचयित्रे पुरुषाय (प्र हिण्मसि) प्रेरयामः ॥
विषय
तमः जालम्
पदार्थ
१. हे लोगो! (यदि) = यदि तुम (तमसा आवृताः स्थ) = अन्धकार से आच्छादित-से हो, अथवा (जालेन) = जाल से (अभिहिताः इव) = बद्ध-से हो, अर्थात् शत्रुकृत् कृत्याओं के कारण यदि चारों ओर अन्धकार-सा छा गया है और ऐसा लगता है कि हमारे लोग जाल से बद्ध-से हो गये हैं, तो (इत:) = यहाँ से (सर्वाः कृत्याः) = सब हिंसा-प्रयोगों को (संलुप्य) = लुप्स करके-छिन्न करके (पुन:) = फिर (कर्त्रे) = इनके करनेवालों के लिए ही (प्रहिण्मसि) = हम भेजते हैं।
भावार्थ
रक्षकवर्ग का यह कर्तव्य है कि शत्रुकृत् अन्धकारों व जाल-बन्धनों से प्रजा का रक्षण करे।
भाषार्थ
(यदि स्थ) यदि तुम हो (तमसा) तामसिक मनोवृत्तियों से (आवृताः) घिरे हुए, या (जालेन) जाल द्वारा (अभिहिताः इव) बन्धे हुए के सदृश, तो (कृत्याः) हे हिंस्र सेनाओं ! (सर्वाः) तो तुम सब का (संलुप्य) सम्यक् विलोप कर के या तुम सब को लूट करके, (पुनः) फिर (कर्त्रे) तुम्हारे रचयिता के प्रति (प्रहिण्मसि) हम प्रेषित करते हैं, भेज देते हैं।
टिप्पणी
[संलुप्य; लुप् = विलोप, विनाश; तथा लूट लेना। संलुप् = To loot; Booty (आप्टे)। देखो "कुरूटिनी" (मन्त्र १५)। तमसा = तामसिक मनोवृत्तियों के कारण कर्तव्याकर्तव्य विवेक से शून्य हो। इस लिये निश्चय करने में अशक्त हो कि इन स्थानों से हटें या न हटें। जालेन= अथवा निज राष्ट्राधिकारियों के आज्ञारूपी जाल में बन्धे से हो कर तुम हस्तगत स्थानों को छोड़ना नहीं चाहते। "तमसा" का यह भी अभिप्राय सम्भव है कि तुम “तामसास्त्र" द्वारा तमस से घिरे हुए हो (अथर्व० मन्त्र ३।२।५); यथा- अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि। अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैर्ग्राह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून् ॥ मन्त्र में "अप्वा" अस्त्र का वर्णन है जो कि शत्रुओं को "तमसा" तमस् द्वारा घेर लेता है। अप्वा= अप + वा (गतौ) या वी (गतौ)।
इंग्लिश (4)
Subject
Countering Evil Designs
Meaning
Even if you stay and persist, covered in darkness, confusion or sheer ignorance, you are like a bird caught up in the net, since, having seized, exposed and disarmed all evils and mischiefs, we shoot them off back to the source creator.
Translation
Even if you are covered with darkness, as if girt with a net, banishing all the harmful designs from here, we sēnd them back to their fashioner.
Translation
If this device is concealed in the great darkness, and it is bound as with a net, we tear out all these devices and send them back from here to their maker.
Translation
O soldiers! if ye be girt about with death, bound as with a net; we remove all terrible armies hence, and to their maker send them back for his destruction.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(यदि, स्थ) (तमसा) अन्धकारेण (आवृता) वृणोतेः-क्विप् तुक् च। आवरकेण (जालेन) पाशेन (अभिहिताः) बद्धाः (इव) (सर्वाः) (संलुप्य) सम्यक् छित्वा (कृत्याः) दोषक्रियाः (इतः) अस्मात् स्थानात् (पुनः) पश्चात् (कर्त्रे) रचयित्रे पुरुषाय (प्र हिण्मसि) प्रेरयामः ॥
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