अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - विराट्स्थाना त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वता॒स्त्रीणि॑ च वी॒र्याणि प्रिया॒यमा॑णा जुगुपुर॒प्स्व॑न्तः। अ॒स्मिंश्च॒न्द्रे अधि॒ यद्धिर॑ण्यं॒ तेना॒यं कृ॑णवद्वी॒र्या॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठत्रयः॑ऽत्रिं॑शत्। दे॒वताः॑। त्रीणि॑। च॒। वी॒र्या᳡णि। प्रि॒य॒ऽयमा॑णाः। जु॒गु॒पुःः॒। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अ॒स्मिन्। च॒न्द्रे। अधि॑। यत्। हिर॑ण्यम्। तेन॑। अ॒यम्। कृ॒ण॒व॒त्। वी॒र्या᳡णि ॥२७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयस्त्रिंशद्देवतास्त्रीणि च वीर्याणि प्रियायमाणा जुगुपुरप्स्वन्तः। अस्मिंश्चन्द्रे अधि यद्धिरण्यं तेनायं कृणवद्वीर्याणि ॥
स्वर रहित पद पाठत्रयःऽत्रिंशत्। देवताः। त्रीणि। च। वीर्याणि। प्रियऽयमाणाः। जुगुपुःः। अप्ऽसु। अन्तः। अस्मिन्। चन्द्रे। अधि। यत्। हिरण्यम्। तेन। अयम्। कृणवत्। वीर्याणि ॥२७.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थ
(प्रियायमाणाः) प्रिय मानते हुए (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस [८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः वा प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र,−११ रुद्र अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय यह दस प्राण और ग्यारहवाँ जीवात्मा,−१२ महीने,−१ इन्द्र अर्थात् बिजुली,−एक प्रजापति वा यज्ञ] (देवताः) देवताओं (च) और (त्रीणि) तीन [कायिक, वाचिक और मानसिक] (वीर्याणि) वीर कर्मों ने (अप्सु अन्तः) आप्त प्रजाओं के बीच (अस्मिन्) इस (चन्द्रे) आनन्द देनेवाले [जीवात्मा] में (अधि) अधिकारपूर्वक (यत्) जिस (हिरण्यम्) कमनीय तेज को (जुगुपुः) रक्षित किया है, (तेन) उसी [तेज] से (अयम्) यह [जीवात्मा] (वीर्याणि) वीर कर्मों को (कृणवत्) करे ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा ने वसु आदि तेंतीस देवताओं शारीरिक आदि शक्तियों और पूर्व संस्कारों द्वारा मनुष्यों में जो तेज स्थापित किया है, मनुष्य उस तेज को विद्या आदि द्वारा प्रकाशित करके पराक्रम करता रहे ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(त्रयस्त्रिंशत्) अथर्व०६।१३९।१। अष्टौ वसवो यथा, अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चेति, एकादश रुद्रा यथा प्राणापानव्यानसमानोदाननागकूर्मकृकलदेवदत्त-धनञ्जया इति दश प्राणा आत्मैकादशः, द्वादश मासाः, इन्द्रश्च प्रजापतिश्चेति (देवताः) देवाः (त्रीणि) कायिकवाचिकमानसानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि। सामर्थ्यानि (प्रियायमाणाः) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा०३।१।११। प्रिय-क्यङ्। प्रिय इवाचरतीति प्रियायते, शानच्। प्रिया इवाचरन्त्यः (जुगुपुः) ररक्षुः (अप्सु) म०३। आप्तासु प्रजासु (अन्तः) मध्ये (अस्मिन्) समीपवर्तिनि (चन्द्रे) आह्लादके जीवात्मनि (अधि) अधिकारपूर्वकम् (यत्) (हिरण्यम्) कमनीयं तेजः (तेन) तेजसा (अयम्) जीवात्मा (वीर्याणि) ॥
विषय
प्रियायमाणा:
पदार्थ
१. (त्रयस्त्रिशद् देवता:) = तेतीस देव हैं। आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति (च) = और (त्रीणि वीर्याणि) = कायिक, वाचिक व मानसभेद से तीन वीर्य हैं। अप्स प्रजाओं में [आपो नारा इति प्रोक्ताः] (प्रियायमाणा:) = प्रभु को प्रीणित करनेवाले लोग (अन्तः) = अपने अन्दर इन देवों व वीयर्यों का (जुगपुः) रक्षण करते हैं। [सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठइवासते। 'सूर्य: चक्षुर्भूत्वा०, वायुः प्राणो भूत्वा० अग्निर्वाग् भूत्वा०'] जब हम यज्ञादि कर्मों से प्रभु-प्रीणन में प्रवृत्त होंगे तब अपने अन्दर देवों व वीर्यों का रक्षण कर पाएँगे। २. (अस्मिन्) = इस प्रभु-प्रीणन में प्रवृत्त (चन्द्रे) = आहादमय मनोवृत्तिवाले पुरुष में (यत्) = जो (हिरण्यम्) = हितरमणीय वीर्यशक्ति है, (तेन) = उस हिरण्य से ही (अयम्) = यह चन्द्र-मनःप्रसादयुक्त पुरुष (वीर्याणि कृणवत्) = कायिक, वाचिक व मानस शक्तिशाली कर्मों को करता है।
भावार्थ
हम यज्ञादि कर्मों के द्वारा प्रभु-प्रणीन में प्रवृत्त रहें। इससे वासनाओं से आक्रान्त न होकर हम अपने अन्दर हिरण्य [वीर्य] का रक्षण कर पाएंगे। इस सुरक्षित वीर्य द्वारा हम शरीर, मन व बुद्धि से पराक्रम के कार्य करते हुए दिव्य-गुण-सम्पन्न जीवनवाले बनेंगे।
भाषार्थ
(प्रियायमाणा= प्रियायमाणा देवाः, तथा प्रियायमाणानि वीर्याणि) मानो प्रेम करते हुए (त्रयस्त्रिंशत् देवताः) तेतीस देवताओं ने, (च) और (वीर्याणि) तीन वीर्यों ने, (अप्सु अन्तः) शारीरिक जलों के भीतर, इस जीवात्मा को (जुगुपुः) सुरक्षित गुप्तरूप में रखा है। (अस्मिन्) इस (चन्द्रे अधि) मन में (यत्) जो (हिरण्यम्) वीर्य है, (तेन) उसके द्वारा (अयम्) यह जीवात्मा (वीर्याणि) वीरकर्मों को या प्रेरणाओं को (कृणवत्) करता है।
टिप्पणी
[प्रियायमाणा= पदपाठ में आकारान्त पाठ है, विसर्गान्त पाठ नहीं। सम्भवतः “त्रीणि वीर्याणि” की दृष्टि से आकारान्त पाठ हो। त्रयस्त्रिंशत् देवताः= प्रचलित ३३ देवता हैं, ८ वसु, ११ रुद्र, १२ मास, इन्द्र और प्रजापति (यज्ञ)१ परन्तु मन्त्र ११, १२, १३ के अनुसार, दिव् अन्तरिक्ष, और पृथिवी में ग्यारह देवताओं की स्थिति कही गई है, जो कि उपर्युक्त ३३ देवताओं की दृष्टि से उपपन्न नहीं हो सकती। मन्त्रस्थ ३३ देवताओं के वास्तविक स्वरूपों के परिज्ञान के लिए विशेष अनुसन्धान की आवश्यकता प्रतीत होती है। इस निमित्त अथर्व० १०.७.२७ का मन्त्र विशेषरूप से ध्यानयोग्य है। यथा— यस्य॒ त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वा अङ्गे॒ गात्रा॑ विभेजि॒रे। तान्वै त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वानेके॑ ब्रह्म॒विदो॑ विदुः॥ अथर्व० १०.७.२७।। अर्थात् जिस स्कम्भ के अङ्क अर्थात् प्रकृति में ३३ देवों ने अपने गात्रों को विभक्त कर प्राप्त किया है, निश्चय है कि उन ३३ देवों को कतिपय या केवल ब्रह्मवेत्ता या वेदवेत्ता जानते हैं। इस वर्णन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ३३ देवों के स्वरूपों पर अधिक अनुसन्धान की आवश्यकता है। त्रीणि वीर्याणि=(१) कायिक वीर्य। (२) मानसिक वीर्य, यथा “कामस्तदग्रे समवर्तत मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्” (अथर्व० १९.५२.१) में मानसिक-रेतस् (वीर्य) का वर्णन हुआ है। तीसरा है सत्त्वमय बुद्धि तत्त्व का वीर्य अर्थात् सामर्थ्य। इन ३३ देवों और ३ वीर्यों के कारण, जीवात्मा, शारीरिक अप्-तत्त्वों प्राणों तथा अन्तःकरण में गुप्तरूप में सुरक्षित है। चन्द्रे= चन्द्रपद द्वारा “मन” का वर्णन है। यथा “चन्द्रमा मनसो जातः” (यजुः० ३१.१२)। तथा “मनश्चन्द्रो दधातु मे” (अथर्व० १९.४३.४), अर्थात् चन्द्र मुझ में मन स्थापित करे। इस चन्द्र अर्थात् मन में हिरण्य या मानसिक-रेतस् है “संकल्पशक्ति” या कामना। इस मानसिक-रेतस् द्वारा यह जीवात्मा वीरकर्मों या शरीर में प्रेरणाकर्मों को करता है; वीर=वि+ईर् (गतौ)।] [१. ८ बसु= अग्नि, पृथिवी,वायु अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः, चन्द्रमा, नक्षत्र। ११ रुद्र= १० प्राण पुरुष में और ग्यारहवां आत्मा। १२ आदित्य= १२ मास। इन्द्र= स्तनयित्नु। प्रजापति= ब्रह्मा= पशवः (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/९/२-६)]
इंग्लिश (4)
Subject
Protection
Meaning
Thirty three are the Divinities, i.e., eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, Indra and Prajapati, three are the potentials, i.e., physical, mental and spiritual, all dear, loving and cooperative, which protect and sustain the treasure of human identity within its karmic personality. With this golden treasure of its identity and potential in the golden cave of the heart, let man perform his actions at his best. Note: Eight Vasus are: earth, water, fire, air, space, moon, sun and stars. They are called Vasus because they provide the abode and sustenance for life. Eleven Rudras are: ten pranas or vital energies, and the soul. These are called Rudras because they cause sorrow when they forsake man’s life. Twelve Adityas are the Zodiacs of the sun in the yearly round Indra is cosmic energy and Prajapati, the cosmic yajna. Both these may also be described as the individual soul and the Super-soul. Reference may also be made to Atharva, 10,7,17.
Translation
Thirty-three deities and three great vigours, being pleased, guarded this (gold) within the waters. What gold is there on this pleasing one, with that, may this person pérform heroic deeds.
Translation
By the gold which the thirty three cosmic Powers and three vigorous objects, the fire, electricity and sun beams performing the favorable Operations preserve in the waters and whichever splendor of gold is in the moon, this man perform the tasks of great ventures.
Translation
There are thirty-three things of divine qualities and three kinds of sources of power, pleasant to man and kept concealed amongst vital breaths. Whatever there is splendor or glory in the moon,; let him, the soul, produce the powers by its help.
Footnote
Trinshad Devatas—12 Months, 11 Vital breaths, 8 Vasus, Indra and Prajapati: Three powers: Physical, mental and spiritual. शारीरिक, मानसिक, आत्मिक
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(त्रयस्त्रिंशत्) अथर्व०६।१३९।१। अष्टौ वसवो यथा, अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चेति, एकादश रुद्रा यथा प्राणापानव्यानसमानोदाननागकूर्मकृकलदेवदत्त-धनञ्जया इति दश प्राणा आत्मैकादशः, द्वादश मासाः, इन्द्रश्च प्रजापतिश्चेति (देवताः) देवाः (त्रीणि) कायिकवाचिकमानसानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि। सामर्थ्यानि (प्रियायमाणाः) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा०३।१।११। प्रिय-क्यङ्। प्रिय इवाचरतीति प्रियायते, शानच्। प्रिया इवाचरन्त्यः (जुगुपुः) ररक्षुः (अप्सु) म०३। आप्तासु प्रजासु (अन्तः) मध्ये (अस्मिन्) समीपवर्तिनि (चन्द्रे) आह्लादके जीवात्मनि (अधि) अधिकारपूर्वकम् (यत्) (हिरण्यम्) कमनीयं तेजः (तेन) तेजसा (अयम्) जीवात्मा (वीर्याणि) ॥
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