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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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    ये दे॑वा पृथि॒व्यामेका॑दश॒ स्थ ते॑ देवासो ह॒विरि॒दं जु॑षध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाः॒। पृ॒थि॒व्याम्। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। ह॒विः। इ॒दम्। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥२७.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा पृथिव्यामेकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवाः। पृथिव्याम्। एकादश। स्थ। ते। देवासः। हविः। इदम्। जुषध्वम् ॥२७.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आशीर्वाद देने का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विद्वानो ! (ये) जो तुम (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (एकादश) ग्यारह [पृथिवी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, आदित्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, अहङ्कार, महत्तत्त्व और प्रकृति−इन ग्यारह के समान] (स्थ) हो, (देवासः) हे विद्वानो ! (ते) वे तुम (इदम्) इस (हविः) ग्रहणयोग्य वस्तु [वचन] को (जुषध्वम्) सेवन करो ॥१३॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्यादि लोकों में सब पदार्थ स्थित रहकर अपना-अपना कर्तव्य कर रहे हैं, वैसे ही मनुष्यों को ईश्वर और वेद में दृढ़ रहकर अपने कर्तव्य में परम निष्ठा रखनी चाहिये ॥११-१३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ११-१३ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-१।१३९।-११ और यजुर्वेद ७।१९॥१३−(पृथिव्याम्) भूम्याम् (एकादश) यजु०७।१९। पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादित्यचन्द्रनक्षत्राहङ्कारमहत्तत्त्व-प्रकृतय इत्येभिः समानाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    [एकादश-एकादश-एकादश], यज्ञशेष का सेवन

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (देवा:) = देव दिवि मस्तिष्करूप द्युलोक में (एकादश स्थ) = ग्यारह हो, (ते देवासः) = वे देव इस त्यागपूर्वक अदन को [हु दानादनयो:]-यज्ञशेष के सेवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो। मेरे द्युलोकस्थ देव सदा यज्ञशेष का सेवन करें। यज्ञशेष का सेवन ही देवों के देवत्व को स्थिर रखता है। इसी से 'दशप्राण व जीवात्मा' ठीक बने रहेंगे। २. ये देवा:-जो देव अन्तरिक्षे-हृदयान्तरिक्ष में (एकादश स्थ) = ग्यारह है, (ते देवासः) = वे देव (इदं हविः जुषध्वम्) = इस यज्ञशेष का सेवन करनेवाले हों। अन्तरिक्षस्थ ग्यारह देव दश इन्द्रियाँ व मन' हैं, यज्ञशेष का सेवन इन्हें स्वस्थ रखता है। इससे इनका देवत्व बना रहता है। ३. (ये देवा:) = जो देव (पृथिव्याम्) = इस शरीररूप पृथिवी में (एकादश स्थ) = दश इन्द्रियगोलक और अन्नमयकोश हैं, (ते देवासः) = वे सब देव (इदं हविः) = इस हवि का (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करें। यज्ञशेष के सेवन से ये सब ठीक बने रहते हैं।

    भावार्थ

    यज्ञशेष के सेवन से शरीरस्थ तेतीस देव ठीक बने रहें। इनका देवत्व नष्ट न हो, यही पूर्ण स्वास्थ्य है।

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    भाषार्थ

    (देवाः) हे विद्वानों! (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (एकादश) उक्त एकादश गण [दश प्राण और ग्यारहवां जीव] (स्थ) हैं, (ते) वे जैसे हैं वैसे उन को जानके (देवासः) हे विद्वानों! तुम (इदम्) इस (हविः) हवि को (जुषध्वम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करो।

    टिप्पणी

    [ऋग्वेद मं० १, सू० १३९, मन्त्र ११ के महर्षि दयानन्द- भाष्य के भावानुसार अर्थ दिया है। यजुर्वेद ७।१९ के महर्षि-भाष्यानुसार (पृथिव्याम् अधि) भूमि के ऊपर (एकादश) ग्यारह अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, आदित्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, अहंकार, महत्तत्त्व, और प्रकृति (स्थ) हैं........।]

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    विषय

    ग्यारह होताओं के द्वारा याग।

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    इस प्रकार बेटा! देखो, ऋषि ने वर्णन किया, वर्णन करने के पश्चात उन्होंने पुनः यह प्रश्न किया यज्ञदत्त ने हे प्रभु! देखो, यज्ञमान की सन्तुष्टि नही हुई है। यज्ञमान याग करना चाहता तो कितने होताओं के द्वारा याग करें? उन्होंने कहा यज्ञं ब्रह्मा अव्रतम् देखो, ग्यारह होताओं के द्वारा याग करे। बेटा! ग्यारह होता कौन से होते हैं? मानो दस इन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कहलाता हैं। इनके द्वारा जब याग किया जाता है, इनके विषयों का साकल्य बनाया जाता है इन्द्रियों के विषयों का जो साकल्य बनाया जाता है मेरे पुत्रों! देखो, वह मनस्तव को जानता है और मनस्तव को एकाग्र करने की उसमें देखो, युक्तियां विद्यमान होती हैं। तो वह मंगलं ब्रह्मा वर्णनं ब्रव्हे कृतं देवाः तो मुनिवरों! देखो, वह देवता बन जाता है। मुनिवरों! देखो, इन्द्रियों को एकाग्र करके मन देखो, जैसे एक रथ है और रथ में मुनिवरों! देखो, दस घोड़े विद्यमान है, दस अश्व हैं और मानो देखो, एक सारथी विद्यमान है और मुनिवरों! देखो, वह उसमें विद्यमान होने वाला कोई स्वामी है। इसी प्रकार देखो, आत्मा स्वामी है और मुनिवरों! देखो, ये दस इन्द्रियां उसके अश्व हैं और मुनिवरों! देखो, यह मन सारथी बनता है और गमन करता रहता है यदि मन में ज्ञान है आत्मा के प्रकाश में एकाग्र हो करके मानो गमन करता है इस रथ को तो बेटा! यह रथ मानो देखो, मोक्ष के मार्ग पर चला जाता है उसकी पगडण्डी को ग्रहण करने लगता है। लोक लोकान्तरों को अपने में धारण करता हुआ विज्ञान की प्रतिष्ठा में वह प्रतिष्ठित हो जाता है। जब बेटा! देखो, ऋषि ने इस प्रकार वर्णन किया, क्या देखो, ग्यारह होताओं के द्वारा याग करे, ग्यारहम् ब्रह्मा व्रतम् देखो, प्राणाय, अपानाय, व्यानाय, उदानाय, समानाय इस प्रकार देखो, हुत करने वाला बनेगा तो बेटा! वह इस लोक को विजय कर लेता है अपने मानवीयत्व को विजय कर लेता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection

    Meaning

    Those eleven Divinities which abide in the earthly sphere may accept and cherish this homage of havi.

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    Translation

    O you eleven bounties of Nature, that are on the earth, (those bounties of Nature) enjoy this offering.

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    Translation

    Let those eleven wondrous auspicious powers which are present on the earth grasp this oblatory substance of Yajna.

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    Translation

    Let the eleven devas, that are on the earth, share this oblation of mine.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ११-१३ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-१।१३९।-११ और यजुर्वेद ७।१९॥१३−(पृथिव्याम्) भूम्याम् (एकादश) यजु०७।१९। पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादित्यचन्द्रनक्षत्राहङ्कारमहत्तत्त्व-प्रकृतय इत्येभिः समानाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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