अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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प्रा॒णेना॒ग्निं सं सृ॑जति॒ वातः॑ प्रा॒णेन॒ संहि॑तः। प्रा॒णेन॑ वि॒श्वतो॑मुखं॒ सूर्यं॑ दे॒वा अ॑जनयन् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णेन॑। अ॒ग्निम्। सम्। सृ॒ज॒ति॒। वातः॑। प्रा॒णेन॑। सम्ऽहि॑तः। प्रा॒णेन॑। वि॒श्वतः॑ऽमुखम्। सूर्य॑म्। दे॒वाः। अ॒ज॒न॒य॒न् ॥२७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणेनाग्निं सं सृजति वातः प्राणेन संहितः। प्राणेन विश्वतोमुखं सूर्यं देवा अजनयन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणेन। अग्निम्। सम्। सृजति। वातः। प्राणेन। सम्ऽहितः। प्राणेन। विश्वतःऽमुखम्। सूर्यम्। देवाः। अजनयन् ॥२७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थ
वह [परमात्मा] (प्राणेन) प्राण [जीवनसामर्थ्य] के साथ (अग्निम्) अग्नि को (सं सृजति) संयुक्त करता है, (वातः) वायु (प्राणेन) प्राण [जीवनसामर्थ्य] के साथ (संहितः) मिला हुआ है। (प्राणेन) प्राण [जीवनसामर्थ्य] के साथ (विश्वतोमुखम्) सब ओर मुखवाले (सूर्यम्) सूर्य को (देवाः) दिव्य नियमों ने (अजनयन्) उत्पन्न किया है ॥७॥
भावार्थ
जैसे परमात्मा ने अग्नि आदि में प्राण वा जीवनसामर्थ्य देकर उपयोगी बनाया है, वैसे ही मनुष्य अपनी आत्मिक और शारीरिक शक्तियों द्वारा जीवन को उपयोगी बनावें ॥७॥
टिप्पणी
७−(प्राणेन) जीवनसामर्थ्येन (अग्निम्) पावकम् (सं सृजति) संयोजयति स परमेश्वरः (वातः) वायुः (प्राणेन) जीवनसामर्थ्येन (संहितः) संधीकृतः (प्राणेन) (विश्वतोमुखम्) सर्वतोमुखमिव द्रष्टारम् (सूर्यम्) (देवाः) दिव्यनियमाः (अजनयन्) उदपादयन् ॥
विषय
प्राण से 'अग्नि, वात, सूर्य'
पदार्थ
१. प्रभु (प्राणेन) = इस प्राणशक्ति के द्वारा (अग्निम्) = शरीरस्थ वैश्वानर अग्नि को (संसृजति) = सम्यक् सृष्ट करते हैं। अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्। प्राण से युक्त यह अग्नि भोजन का समुचित पाचन करता है। (प्राणेन) = प्राण से (वात:) = [वा गती] निरन्तर क्रियाशीलता का भाव हृदय में (संहितः) = सम्यक् धारण किया जाता है। प्राणशक्ति हमें क्रियाशील बनाती है। २. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (प्राणेन) = प्राण से ही (विश्वतोमुखम्) = सब ओर मुखोंवाले (सूर्यम्) = ज्ञानसूर्य को (अजनयन्) = प्रादुर्भूत करते हैं। प्राणसाधना से ही ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है। यह ज्ञानदीसि सब पदार्थों का सम्यक् प्रकाश करने के कारण विश्वतोमुख' कही गई है।
भावार्थ
प्राणशक्ति के ठीक होने पर शरीररूप पृथिवी में 'अग्नि' देव, मनरूप अन्तरिक्ष में 'वायु' देव तथा मस्तिष्करूप झुलोक में 'सूर्य' देव की स्थापना होती है। शरीर में शक्ति, हृदय में कर्मसंकल्प व मस्तिष्क में ज्ञान का निवास होता है।
भाषार्थ
परमेश्वर (प्राणेन) प्राण के साथ (अग्निम्) अग्नि का (सं सृजति) संसर्ग करता है। परमेश्वर ने (प्राणेन) प्राण के साथ (वातः) वायु को (संहितः) सम्बद्ध किया है। (देवाः) परमेश्वरीय दिव्य शक्तियों ने (विश्वतोमुखम्) सब से मुखिया (सूर्यम्) सूर्य को (प्राणेन) प्राण के साथ साथ (अजनयन्) जन्म दिया है।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि परमेश्वर ने अग्नि, वायु, और सूर्य में प्राणशक्ति भरी हुई है। इसलिए अग्नि या यज्ञाग्नि, शुद्ध वायु और सूर्य के सेवन द्वारा मनुष्यों को जीवनों में प्राणशक्ति का संचय करना चाहिए।]
इंग्लिश (4)
Subject
Protection
Meaning
Lord Almighty invests Agni with pranic energy. The wind and air is invested with prana. The divine powers of Nature, Devas, create the versatile, all radiant, all illuminative sun and vest it with prana.
Translation
He unites fire with vital breath. The wind is compact with vital breath. With vital breath the bounties of Nature have created the sun, facing each and every one.
Translation
God, the creator combines and composes fire with molecule of air, the air itself has been combined with vital breaths and the luminous and wondrous objects of the nature produce through Prana the fire, this sun which keep to all in their front.
Translation
As the outer air is well connected with the vital breath (inside), so does the man produce bodily temperature with the help of the vital breaths. The natural forces produced the Sun, which sheds its rays all around and thus faces all quarters, by the help of this very vital breath.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(प्राणेन) जीवनसामर्थ्येन (अग्निम्) पावकम् (सं सृजति) संयोजयति स परमेश्वरः (वातः) वायुः (प्राणेन) जीवनसामर्थ्येन (संहितः) संधीकृतः (प्राणेन) (विश्वतोमुखम्) सर्वतोमुखमिव द्रष्टारम् (सूर्यम्) (देवाः) दिव्यनियमाः (अजनयन्) उदपादयन् ॥
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