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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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    ति॒स्रो दिव॑स्ति॒स्रः पृ॑थि॒वीस्त्रीण्य॒न्तरि॑क्षाणि च॒तुरः॑ समु॒द्रान्। त्रि॒वृतं॒ स्तोमं॑ त्रि॒वृत॒ आप॑ आहु॒स्तास्त्वा॑ रक्षन्तु त्रि॒वृता॑ त्रि॒वृद्भिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्रः। दिवः॑। ति॒स्रः। पृ॒थि॒वीः। त्रीणि॑। अ॒न्तरि॑क्षाणि। च॒तुरः॑। स॒मु॒द्रान्। त्रि॒ऽवृत॑म्। स्तोम॑म्। त्रि॒ऽवृतः॑। आपः॑। आ॒हुः॒। ताः। त्वा॒। र॒क्ष॒न्तु॒। त्रि॒ऽवृता॑। त्रि॒वृत्ऽभिः॑ ॥२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो दिवस्तिस्रः पृथिवीस्त्रीण्यन्तरिक्षाणि चतुरः समुद्रान्। त्रिवृतं स्तोमं त्रिवृत आप आहुस्तास्त्वा रक्षन्तु त्रिवृता त्रिवृद्भिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्रः। दिवः। तिस्रः। पृथिवीः। त्रीणि। अन्तरिक्षाणि। चतुरः। समुद्रान्। त्रिऽवृतम्। स्तोमम्। त्रिऽवृतः। आपः। आहुः। ताः। त्वा। रक्षन्तु। त्रिऽवृता। त्रिवृत्ऽभिः ॥२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आशीर्वाद देने का उपदेश।

    पदार्थ

    [उत्कृष्ट, निकृष्ट, मध्यम होने से] (दिवः) प्रकाशमान पदार्थों को (तिस्रः) तीन, (पृथिवीः) पृथिवी के देशों को (तिस्रः) तीन, (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षलोकों को (त्रीणि) तीन, और (समुद्रान्) आत्माओं को [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लिये पुरुषार्थी होने से] (चतुरः) चार, (स्तोमम्) स्तुतियोग्य वेद को (त्रिवृतम्) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] में वर्तमान, (त्रिवृतः) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] में वर्तमान रहनेवाले (आपः) आप्त प्रजा लोग (आहुः) बताते हैं, (त्रिवृता) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] में वर्तमान (ताः) वे [प्रजाएँ] (त्वा) तुझको (त्रिवृद्भिः) तीन [कर्म, उपासना और ज्ञानरूप] वृत्तियों के साथ (रक्षन्तु) बचावें ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य संसार के पदार्थों के तत्त्वों को जानकर पुरुषार्थ करते हैं, वे सदा सुरक्षित रहते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(तिस्रः) उत्कृष्टनिकृष्टमध्यमभेदेन त्रिसंख्याकाः (दिवः) प्रकाशमानान् पदार्थान् (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (पृथिवीः) पृथिवीदेशान् (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थलोकान् (चतुरः) धर्मार्थकाममोक्षेभ्यः पुरुषार्थकरणात् चतुःसंख्याकान् (समुद्रान्) समुद्र आत्मा-निरु०१४।१६। जीवात्मनः (त्रिवतम्) वृतु वर्तने-क्विप्। त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु वर्त्तमानम् (स्तोमम्) स्तुत्यं वेदम् (त्रिवृतः) त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु वर्तमानाः (आपः) आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु०६।२७ (आहुः) कथयन्ति (ताः) प्रजाः (त्वा) (रक्षन्तु) (त्रिवृता) सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। प्रथमाविभक्तेराकारादेशः। त्रिवृतः। त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु वर्तमानाः (त्रिवृद्भिः) तिसृभिः कर्मोपासनाज्ञानरूपाभिर्वृत्तिभिः सह ॥

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    विषय

    त्रिवृता त्रिवृद्धिः [ रक्षन्तु]

    पदार्थ

    १. (दिव:) = द्युलोकों को (तिस्त्रः) = उत्तम, अधम व मध्यम भेद से तीन प्रकार का (आहुः) = कहते हैं। (पृथिवी:) = पृथिवियों को भी (तिस्त्रः) = उत्तम, मध्यम व अधमभेद से (तिस्त्रः) = तीन प्रकार का कहते हैं। इसी प्रकार (अन्तरिक्षाणि) = अन्तरिक्षों को भी (त्रीणि) = तीन प्रकार का कहते हैं। २. (समुद्रान्) = [रायः समुद्राश्चतुर:०]-ज्ञान के समुद्रभूत इन वेदों को (चतुरः) = चार कहते हैं [ऋग, यजुः, साम, अथर्व]। (स्तोमम्) = स्तुतिसमूह को (त्रिवृतम्) = तीन में होनेवाला कहते हैं। प्रकृति के पदार्थों का गुणवर्णन ही प्रकृतिस्तवन है । जीव के कर्तव्यों का उपदेश जीवस्तवन है। प्रभु की उपासना का प्रतिपादन प्रभु-स्तवन है। (आप:) = [आपो नारा इति प्रोक्ताः] मानव-सन्तानों को भी (त्रिवृत:) = 'ज्ञान, कर्म व उपासना' इन तीन में चलनेवाला कहते हैं। कई मनुष्य ज्ञानप्रधान होते हैं, कई कर्मप्रधान और कई भक्तिप्रधान। (ता:) = वे सब (त्रिवृता) = तीन-तीन रूपों में होते हुए (त्रिवृद्धिः) = [त्रिषु वर्तन्ते] शरीर, मन व बुद्धि पर प्रभाव डालनेवाले कर्म, भक्ति व ज्ञान के द्वारा (रक्षन्तु) = रक्षित करें। 'कर्म' शरीर को, 'भक्ति' मन को तथा 'ज्ञान' मस्तिष्क को सुन्दर बनाए।

    भावार्थ

    हम 'ज्ञान, कर्म व उपासना' तीनों का अपने में समन्वय करते हुए 'कर्म' से पृथिवीलोक का, 'भक्ति" से अन्तरिक्षलोक का तथा 'ज्ञान' से धुलोक का विजय करें।

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    भाषार्थ

    विद्वान् लोग (आहुः) कहते हैं कि (दिवः) द्युलोक (तिस्रः) तीन हैं, (पृथिवीः) पृथिवी (तिस्रः) तीन हैं, (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्ष (त्रीणि) तीन हैं, (समुद्रान् चतुरः) समुद्र चार हैं, (त्रिवृतम् स्तोमम्) स्तोम भी त्रिवृत् है, (आपः) जल (त्रिवृतः) तीन प्रकार के हैं। (ताः) वे त्रिवृत्-जल, हे मनुष्य! (त्रिवृता) त्रिवृत् स्तोम द्वारा और (त्रिवृद्भिः) त्रिवृत् द्युलोक आदि द्वारा (त्वा) तुझे (रक्षन्तु) सुरक्षित रखें।

    टिप्पणी

    [तिस्रः दिवः=द्युलोक में एक क्रान्तिवृत्त (Ecliptic) है, जिसमें कि सूर्य पृथिवी, पृथिवी सहित चन्द्रमा, तथा अन्य ग्रह यात्राएं कर रहे हैं। इस क्रान्तिवृत्त को २८ नक्षत्रों में बांटा गया है, राशियों की दृष्टि से इस क्रान्तिवृत्त के १२ विभाग किये जाते हैं। द्युलोक का एक विभाग है क्रान्तिवृत्त। क्रान्तिवृत्त के उत्तर में द्युलोक का उत्तरीय विभाग है, और दक्षिण में दक्षिणी विभाग। इस प्रकार द्युलोक के इन तीन विभागों को “तिस्रः दिवः”१ कहा है। द्युलोक के क्रान्तिवृत्त का अनुरूपीवृत्त, पृथिवी के भी तीन विभाग करता है। भूमध्यरेखा के साढ़े २३ अंश उत्तर और साढ़े २३ अंश दक्षिण में जो वृत्त फैला हुआ है, वह द्युलोक के क्रान्तिवृत्त का अनुरूपी है। इस अनुरूपी वृत्त के उत्तर में जो विभाग है, वह पृथिवी का उत्तरीय विभाग और अनुरूपी-वृत्त के दक्षिण में जो विभाग है, वह पृथिवी का दक्षिणी विभाग कहलाता है। इस प्रकार इन तीन विभागों को “तिस्रः पृथिवीः” कहा है। इसी दृष्टि से अन्तरिक्ष के भी तीन विभाग हैं। वर्तमान वैज्ञानिक कहते हैं कि “अतिशक्तिशाली दूरवीक्षण यन्त्र” द्वारा उन्हें आकाश गङ्गा (Milky way) में दो और द्युलोक दृष्टिगोचर हुए हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्युलोक की दृष्टि से उनकी पृथिवियां और अन्तरिक्ष भी त्रिविध सम्भव हैं। समुद्रान्= पृथिवी का पूर्वसमुद्र, पश्चिम समुद्र, उत्तर समुद्र, तथा दक्षिण समुद्र। इन चार समुद्रों द्वारा पृथिवी घिरी हुई है। स्तोमम्= संगीत के तीन अंश हैं। ऋचा, स्तोम, और साम। संहिताओं में ऋचाएँ या मन्त्र दिये गये हैं। इन ऋचाओं की पुनरावृत्तियाँ गाने के लिए की जाती हैं, वह इनका गेयरूप बनता है। इसे स्तोम कहते हैं। जिस स्वर या राग में स्तोम गाया जाता है उसे साम कहते हैं। स्तोम कई प्रकार के होते हैं। यथा—“त्रिवृत् स्तोम, पंचदश स्तोम, त्रयस्त्रिंश स्तोम, एकविंश स्तोम” (अथर्व ८.९.२०)। इनमें से त्रिवृत् स्तोम गायत्री छन्द वाले तीन मन्त्रों द्वारा, निर्मित होता है। आपः— जल भी त्रिवृत् हैं, तीन प्रकार के हैं। भूमि गर्भस्थ जल, जैसे कि चश्मों तथा कूपों का जल। नदियों तथा समुद्रों का जल। तथा अन्तरिक्षस्थ जल।] [१. "त्रिदिवं दिव" (अथर्व० १०।१०।३२) में, दिव् (द्यौः) को त्रिदिव् कहा हैं। त्रिदिव्= तीन विभागों में विभक्त दिव्]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection

    Meaning

    Three are the heavens, say the wise, i.e., three are the orders of the regions of light, three are the regions of the earth, three are the regions of the firmament, and four are the oceans, threefold is the Stoma, structure of the musical composition of the verses of adoration, and three are the orders of water. May all these of three orders protect us with their threefold potentials.

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    Translation

    Three skies, three earths, three midspaces, four oceans, threefold praise-song, and three-fold waters they have mentioned. May those, triple ones, protect you with three-fold devices.

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    Translation

    The heavenly region is called triple, the earth is called triple, the firmament is known triple, the seas are called of four fold, the stoma is triple (locality, vital air and semen) and water is also three fold. Let all these guard you with three fold triplets.

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    Translation

    There are three kinds of celestial spheres, three kinds of terrestrial bodies, three kinds of mid-regions, four kinds of oceans, three kinds of element-groups, thrice-bound waters, they call. Let these thrice-bound protect thee three-fold.

    Footnote

    ‘Three celestial spheres—the Sun, the planets, the stellites. Three terrestrial—The earth, the meteorites, the fine dust particles. Three mid-regions-the atmosphere, the stratosphere and outersphere. Four oceans-the vast expanse of water underground, the ocean on the surface of the earth, the watery expanse in the atmosphere, the rarified regions beyond. Three elements groups-(i) Group of 15 elements, (ii) Group of 17 elements, (iii) Group of 21 elements, (l) Comprises Sattva Raja, Tama, Mahat, Ahankar, 5 Tanmatra, 5 Sthaibhutas. (ii) Mahat, Ahankar, 5 tanmatras, 5 sense-organs, 5 vital breaths, (iii) Satva, Raja, Tama, Mahat, Ahankar, 5 Tanmatra, 5 vital breaths, 5 Sthulbhutas, and the soul.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(तिस्रः) उत्कृष्टनिकृष्टमध्यमभेदेन त्रिसंख्याकाः (दिवः) प्रकाशमानान् पदार्थान् (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (पृथिवीः) पृथिवीदेशान् (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थलोकान् (चतुरः) धर्मार्थकाममोक्षेभ्यः पुरुषार्थकरणात् चतुःसंख्याकान् (समुद्रान्) समुद्र आत्मा-निरु०१४।१६। जीवात्मनः (त्रिवतम्) वृतु वर्तने-क्विप्। त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु वर्त्तमानम् (स्तोमम्) स्तुत्यं वेदम् (त्रिवृतः) त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु वर्तमानाः (आपः) आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु०६।२७ (आहुः) कथयन्ति (ताः) प्रजाः (त्वा) (रक्षन्तु) (त्रिवृता) सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। प्रथमाविभक्तेराकारादेशः। त्रिवृतः। त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु वर्तमानाः (त्रिवृद्भिः) तिसृभिः कर्मोपासनाज्ञानरूपाभिर्वृत्तिभिः सह ॥

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