अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 9
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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दे॒वानां॒ निहि॑तं नि॒धिं यमिन्द्रो॒ऽन्ववि॑न्दत्प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑। आपो॒ हिर॑ण्यं जुगुपुस्त्रि॒वृद्भि॒स्तास्त्वा॑ रक्षन्तु त्रि॒वृता॑ त्रि॒वृद्भिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म्। निऽहि॑तम्। नि॒ऽधिम्। यम्। इन्द्रः॑। अ॒नु॒ऽअवि॑न्दत्। प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒ऽयानैः॑। आपः॑। हिर॑ण्यम्। जु॒गु॒षुः॒। त्रि॒वृत्ऽभिः॑। ताः। त्वा॒। र॒क्ष॒न्तु॒। त्रि॒ऽवृता॑। त्रि॒वृत्ऽभिः॑ ॥२७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां निहितं निधिं यमिन्द्रोऽन्वविन्दत्पथिभिर्देवयानैः। आपो हिरण्यं जुगुपुस्त्रिवृद्भिस्तास्त्वा रक्षन्तु त्रिवृता त्रिवृद्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम्। निऽहितम्। निऽधिम्। यम्। इन्द्रः। अनुऽअविन्दत्। पथिऽभिः। देवऽयानैः। आपः। हिरण्यम्। जुगुषुः। त्रिवृत्ऽभिः। ताः। त्वा। रक्षन्तु। त्रिऽवृता। त्रिवृत्ऽभिः ॥२७.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थ
(देवानाम्) विद्वानों के (निहितम्) धरे हुए (यम्) जिस (निधिम्) निधि [रत्नों के कोश] को (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवान् पुरुष] ने (देवयानैः) विद्वानों के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (अन्वविन्दत) खोजकर पाया है। (आपः) आप्त प्रजाओं ने (हिरण्यम्) उस तेज [वा सुवर्ण] को (त्रिवृद्भिः) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञानरूप] वृत्तियों के साथ (जुगुपुः) रक्षित किया है, (त्रिवृता) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] में वर्तमान (ताः) वे [प्रजाएँ] (त्वा) तुझको (त्रिवृद्भिः) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञानरूप] वृत्तियों के साथ (रक्षन्तु) बचावें ॥९॥
भावार्थ
जो पुरुष शूर महात्माओं के समान वेदोक्त मार्ग पर चलकर धर्म के साथ तेज वा सुवर्ण आदि धन प्राप्त करते हैं, प्रजागण उन धीरवीरों को प्रिय जानकर सदा उनकी रक्षा करते रहें ॥९॥
टिप्पणी
९−(देवानाम्) विदुषाम् (निहितम्) स्थापितम् (निधिम्) रत्नसंग्रहम् (यम्) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (अन्वविन्दत) अन्विष्य लब्धवान् (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गन्तव्यैः (आपः) म०३। आप्ताः प्रजाः (हिरण्यम्) तत्तेजः सुवर्णं वा (जुगुपुः) ररक्षुः। अन्यद् पूर्ववत् म०३॥
विषय
देवनिधि 'हिरण्य'
पदार्थ
१. (देवानाम्) = देववृत्ति के पुरुषों के द्वारा (निहितम्) = अपने शरीर में स्थापित (निधिम्) = निधि को-कोश को (यम्) = जिस निधि को (इन्द्रः) = देवताओं का मुखिया जितेन्द्रिय पुरुष (देवयानैः पथिभिः) = देवयान मार्गों से-देवोचित कर्मों को ही करते रहने से (अन्वविन्दत) = प्राप्त करता है। उस (हिरण्यम्) = हितरमणीय वीर्य को (आप:) = कमों में व्याप्त रहनेवाली प्रजाएँ त्(रिवृद्धिः) = 'ज्ञान, कर्म व उपासना' में लगे रहने से (जुगपुः) = रक्षित करती हैं। २. हे हिरण्य! (ता:) = वे प्रजाएँ (त्वा) = तुझे (त्रिवृता) = शक्ति, भक्ति व ज्ञान' में वर्तन के हेतु से (त्रिवृद्धिः) = सदा 'ज्ञान, कर्म व उपासना' में लगे रहने के द्वारा (रक्षन्तु) = रक्षित करें । सुरक्षित वीर्य 'शक्ति, भक्ति व ज्ञान' को बढ़ाता है। इसप्रकार हमें शारीरिक, मानस व बौद्धिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है।
भावार्थ
देवयान मार्गों से चलने पर जितेन्द्रिय बनते हुए हम 'हिरण्य' का रक्षण करते हैं। यह हमारे अन्दर शक्ति, पवित्रता व ज्ञान का संचार करता है। हमारा जीवन 'ज्ञान, कर्म व उपासना' मय बनता है।
भाषार्थ
(देवानाम्) देवयानमार्गी विद्वानों की (यम्) जिस, (निहितम्) शरीरस्थ (हिरण्यम्) हितकर-और-रमणीय वीर्यरूपी (निधिम्) निधि को (आपः) शरीरस्थ अप्-तत्त्व ने अपने में (जुगुपुः) गुप्तरूप मैं रखा है, और जिसे कि (इन्द्रः) अध्यात्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति ने, (देवयानैः पथिभिः) देवयान मार्गों द्वारा (अन्वविन्दत्) प्राप्त किया है उसे, (आपः) शरीरस्थ अप्-तत्त्व१, (त्रिवृता) त्रिवृत्-स्तोम सहित (त्रिवृद्भिः) अन्य त्रिवृतों अर्थात् मन्त्र ३-४ में उक्त त्रिकों द्वारा (रक्षन्तु) सुरक्षित करें। (ताः) वे अपतत्त्व (त्रिवृता त्रिवृद्भिः) त्रिवृत-स्तोम सहित अन्य त्रिवृतों अर्थात् मन्त्र ३-४ में उक्त त्रिकों द्वारा, हे मनुष्य! (त्वा) तुझे (रक्षन्तु) सुरक्षित करें।
टिप्पणी
[हिरण्य= वीर्य (अथर्व० १९।२६।१-४)। आपः= शरीरस्थ रक्त। यथा—“को अस्मिन्नापो व्यदधात् विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धु सृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः॥” (अथर्व० १०।२।११)। अर्थात् किसने इस पुरुष में अप्-तत्त्व विधि पूर्वक स्थापित किये हैं, जो कि शरीर के भिन्न-भिन्न अङ्गों में वर्तमान हैं, और पर्याप्तमात्रा में विद्यमान हैं, जो कि सिन्धु अर्थात् हृदयसमुद्र की ओर बहने के लिए पैदा हुए हैं, स्वाद में तीखे; लाल, लोह घटित, तथा ताम्बे के धूएं सदृश हैं, और ऊपर की ओर, नीचे की ओर, तथा तिरछे प्रवाहित हो रहे हैं। अरुणाः= धमनियों का लाल रक्त। ताम्रधूम्राः= शिराओं veins का नीला रक्त। इस अपतत्त्व में वीर्य गुप्तरूप में सुरक्षित रहता है। देवयानैः पथिभिः= जो अरण्य में श्रद्धा और तप का आचरण करते हैं उनका मार्ग “देवयानः पन्थाः” कहलाता है (छान्दो० उप० अ० ५, खं० १०)। तथा “सत्येन पन्था विततो देवयानः” (मुण्डक उप० ३.१.६)। अर्थात् सत्याचरण द्वारा देवयान पथ वितत है। त्रिवृता त्रिवृद्भिः= अभिप्राय यह कि शरीरस्थ अप्-तत्त्व-भक्तिपूर्ण स्तोमों के सामगानों द्वारा तथा मन्त्र ३, ४ में उक्त त्रिवृतों के यथार्थ सेवन द्वारा, वीर्य को सुरक्षित रखते, और इससे पुरुष की रक्षा करते हैं, अन्यथा विनाश होता है।] [१. आपः= आप्नुवन्ति शरीरमिति (उणा० २।५९, महर्षि दयानन्द)]
इंग्लिश (4)
Subject
Protection
Meaning
That mysterious but collected treasure of the gifts of divinities which Indra, the soul, received and secured through its karmic performance on the noble paths of action worthy of divinities, and which same golden treasure, the triple dynamics of nature, society and divinity at work in the mind and spirit protected and promoted, that very treasure of your potential, O man, may the three orders of nature, society and divinity protect and promote with threefold blessings. (Refer back to mantra 3 and 4.)
Translation
Secretly kept- treasure of the enlightened ones, which the resplendent self has found out by traversing the godly paths, that treasure - the gold - the waters have guarded with triple defenses; may those triple one protect you by threefold devices.
Translation
This gold is that which the hidden treasure of the luminous is natural forces and which Indra, the mighty learned men discover by the ways, means and method adopted by men of intelligence and experience and it is that which the waters preserve by their triple powers. Let these waters protect you O man, with triple triplets.
Translation
There is a hidden treasure (i.e., of semen) of good things or well-con¬ trolled sense-organs which the soul attained by the paths trodden by the divine beings i.e., salvation-seekers. These high-souled persons kept this brilliant object (i.e., semen) by three-fold vital breaths i.e., Pranayama. Let these three-fold vital breaths protect thee thrice-fold.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(देवानाम्) विदुषाम् (निहितम्) स्थापितम् (निधिम्) रत्नसंग्रहम् (यम्) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (अन्वविन्दत) अन्विष्य लब्धवान् (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गन्तव्यैः (आपः) म०३। आप्ताः प्रजाः (हिरण्यम्) तत्तेजः सुवर्णं वा (जुगुपुः) ररक्षुः। अन्यद् पूर्ववत् म०३॥
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