अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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त्रीन्नाकां॒स्त्रीन्स॑मु॒द्रांस्त्रीन्ब्र॒ध्नांस्त्रीन्वै॑ष्ट॒पान्। त्रीन्मा॑त॒रिश्व॑न॒स्त्रीन्त्सूर्या॑न्गो॒प्तॄन्क॑ल्पयामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठत्रीन्। नाका॑न्। त्रीन्। स॒मु॒द्रान्। त्रीन्। ब्र॒ध्नान्। त्रीन्। वै॒ष्ट॒पान्। त्रीन्। मा॒त॒रिश्व॑नः। त्रीन्। सूर्या॑न्। गो॒प्तॄन्। क॒ल्प॒या॒मि॒। ते॒ ॥२७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीन्नाकांस्त्रीन्समुद्रांस्त्रीन्ब्रध्नांस्त्रीन्वैष्टपान्। त्रीन्मातरिश्वनस्त्रीन्त्सूर्यान्गोप्तॄन्कल्पयामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठत्रीन्। नाकान्। त्रीन्। समुद्रान्। त्रीन्। ब्रध्नान्। त्रीन्। वैष्टपान्। त्रीन्। मातरिश्वनः। त्रीन्। सूर्यान्। गोप्तॄन्। कल्पयामि। ते ॥२७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (त्रीन्) तीन [आत्मा, मन और शरीर सम्बन्धी] (नाकान्) सुखों को, (त्रीन्) तीन [ऊपर, नीचे और मध्य में वर्तमान] (समुद्रान्) अन्तरिक्षों को, (त्रीन्) तीन [कर्म, उपासना और ज्ञान] (ब्रध्नान्) बड़े व्यवहारों को, (त्रीन्) तीन [स्थान, नाम और जन्म वा जातिवाले] (वैष्टपान्) संसार निवासियों को, (त्रीन्) तीन [ऊपर नीचे और तिरछे चलनेवाले] (मातरिश्वनः) आकाशगामी पवनों को, और (त्रीन्) तीन [वृष्टि, अन्नोत्पत्ति और पुष्टि करनेवाले] (सूर्यान्) सूर्य [के तापों] को (ते) तेरे (गोप्तॄन्) रक्षक (कल्पयामि) मैं बनाता हूँ ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य पदार्थों के तत्त्वों को यथावत् समझकर उपयोग में लाते हैं, वे उन्नति करते हैं ॥४॥
टिप्पणी
मन्त्र ३,४ का मिलान करो-अ०५।२८।१४, १५॥४−(त्रीन्) आत्ममनःशरीरसम्बन्धिनः (नाकान्) आनन्दान् (त्रीन्) ऊर्ध्वाधोमध्यवर्तमानान् (समुद्रान्) अन्तरिक्षदेशान् (त्रीन्) कर्मोपासनाज्ञानाख्यान् (ब्रध्नान्) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ०३।५। बन्ध बन्धने-नक्, ब्रधादेशः। ब्रध्नो महन्नाम-निघ०३।३। महतो व्यवहारान् (त्रीन्) स्थाननामजन्माख्याकान् (वैष्टपान्) विटपविष्टपविशिपोलपाः। उ०३।१४५। विश प्रवेशने-कपप्रत्ययः, तुडागमः। विष्टप-अण्। विष्टपेषु भुवनेषु निवासकान् (त्रीन्) ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्गतीन् (मातरिश्वनः) मातरि आकाशे श्वयन्ति गच्छन्ति ये तान् पवनान् (त्रीन्) वृष्ट्यन्नोत्पत्तिपुष्टिकारकान् (सूर्यान्) सूर्यप्रदेशान् (गोप्तॄन्) रक्षकान् (कल्पयामि) रचयामि (ते) तव ॥
विषय
गोप्ता
पदार्थ
१. (त्रीन् नाकान्) = तीन मोक्षलोकों को [सूचना-मोक्ष में ब्रह्म के साथ विचरते हुए जीवों में भी 'जिसका ज्ञान जितना अधिक होता है उसे उतना ही आनन्द अधिक होता है इस आचार्यवाक्य के अनुसार मोक्ष भी उत्तम, मध्यम, अधम स्थिति के अनुसार तीन भागों में विभक्त है], (त्रीन् समुद्रान्) = तीन ऋक्, यजुः, साम' मन्त्ररूप ज्ञान समुद्रों को, (त्रीन् ब्रध्नान्) = [ब्रध्न-महान्] 'मन, बुद्धि, अहंकार' रूप तीन महान तत्त्वों को, (त्रीन् वैष्टपान) = पृथिवी, अन्तरिक्ष व घलोक रूप तीन लोकों को (ते) = तेरा (गोमन्) = रक्षक (कल्पयामि) = बनाता हूँ। मोक्षलोकों का ध्यान भी मुझे वासना में फंसने से बचाता है। २. (त्रीन् मातरिश्वन:) = 'प्राण, अपान, व्यान'-[भूः, भुवः, स्व:] रूप तीन वायुओं को तथा (त्रीन् सूर्यान्) = प्रातः, मध्याह्न व सायंकाल के भेदरूप सूर्यों को तेरा रक्षक बनाता हूँ। प्राणसाधना व सूर्य का सेवन मानस व शारीर स्वास्थ्य को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
'मोक्ष-प्राप्ति का ध्यान, वेद का अध्ययन 'मन, बुद्धि व अहंकार' के महत्त्व को समझना, त्रिलोकी के स्वरूप का चिन्तन, प्राणसाधना व सूर्य-सेवन' ये सब हमारे मानस व शारीर स्वास्थ्य के रक्षक बनते हैं।
भाषार्थ
हे मनुष्य! (त्रीन् नाकान्) दुःखों से रहित तीन प्रकार के मोक्षों को, (त्रीन् समुद्रान्) तीन समुद्रों को, (त्रीन् ब्रध्नान्) तीन ब्रध्नों को, (त्रीन् वैष्टपान्) तीन वैष्टपों को, (त्रीन् मातरिश्वनः) तीन मातरिश्वाओं को, (त्रीन् सूर्यान्) तीन सूर्यों को, (ते) तेरे (गोप्तॄन्) रक्षक(कल्पयामि) मैं नियत करता हूँ।
टिप्पणी
[मन्त्र में उक्ति परमेश्वर की है। परमेश्वर निश्चय दिलाता है मनुष्य को कि मेरा रचित समग्र जगत् तेरी रक्षा और समृद्धि के लिए है। त्रीन् नाकान्= “येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः” (यजुः० ३२.६) में महर्षि दयानन्द ने “नाकः” का अर्थ किया है “सब दुःखों से रहित मोक्ष”। पातञ्जल योग दर्शन की दृष्टि से मोक्षाधिकारी योगी तीन प्रकार के हैं। विदेहावस्थ योगी, प्रकृतिलीन योगी, तथा आत्मलीन योगी। इनमें से प्रत्येक प्रकार के योगी के लिए मोक्ष की अवधियाँ भिन्न-भिन्न हैं। इस दृष्टि से सम्भवतः “नाक” अर्थात् मोक्ष को त्रिविध कहा हो। अथवा “ग्रहीतृ ग्रहण ग्राह्य” विषयक त्रिविध योगियों के त्रिविध मोक्ष। त्रीन् समुद्रान्= “ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” के ब्रह्मचर्याश्रम विषय में “स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रम्” (अथर्व० कां० ११। अनु० ३। मं० ४) की व्याख्या में “ब्रह्मचर्याश्रम” को पूर्व समुद्र, “गृहाश्रम” को उत्तर समुद्र कहा है। मनु ने भी उपमा द्वारा गृहाश्रम को समुद्र कहा है। “यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्” (मनु० ६.९०)। इस प्रकार गृहस्थ को सागर से उपमित कर गृहस्थ को समुद्र कहा है। वानप्रस्थाश्रम को हम तीसरा समुद्र कह सकते हैं। इन तीन समुद्रों को पार कर, मोक्ष प्राप्ति के लिए, चतुर्थाश्रम में जाना होता है। पूर्व के तीन आश्रमों में एषणाएं बनी रहती हैं। इन एषाणाओं के समुद्रों में गोते खाना स्वाभाविक है, जिनका कि चतुर्थाश्रम में सम्भव नहीं। त्रीन् ब्रध्नान्= ब्रध्न का अर्थ है—महान् (उणा० ३.५)। संसार में तीन महाशक्तियाँ हैं—परमेश्वर, जीव और प्रकृति। मनुष्य जीवन इन तीन शक्तियों पर निर्भर है। त्रीन् वैष्टपान्= इन तीन महाशक्तियों का त्रिविध तापों अर्थात् सन्ताप-और-दुःखों के देने से रहित हो जाना “त्रिविध वैष्टप” है। वैष्टप= वि+तप; सकारः छान्दसः। विष्टपमेव वैष्टपम् जीवन्मुक्त यतः कर्माशय से रहित होकर विचरता है। अतः वह इन त्रिविध तापों से विमुक्त रहता है। त्रिविष्टपः= सुखविशेषभोगो वा (उणा० ३.१४५), महर्षि दयानन्द भाष्य। अथवा आधिदैविकाधिभौतिकाध्यात्मिक— इन त्रिविध तापों से विगत होना। त्रीन् मातरिश्वनः= ग्रीष्म, वर्षा तथा शरद् की वायुएँ। मातरिश्वा=मातृभूत अन्तरिक्ष में गतियां करने वाली। त्रीन् सूर्यान्=ग्रीष्म, वर्षा, तथा शरद् ऋतु के सूर्य। सूक्त २७ के मन्त्र ३-४ में प्रतिपाद्य तत्त्व रहस्यमय हैं। इन पर अधिक प्रकाश अपेक्षित है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Protection
Meaning
Three are the ‘Nakas’, states of divine bliss, three are the stages of human living, Brahmacharya, Grhastha and Vanaprastha, three are the ‘Bradhnas’, greats, i.e., Ishvara, Jiva and Prakrti, and three are the Vaishtapas, orders of freedom from sufferings of the body, mind and soul. Three are the orders of wind and air, i.e., in summer, winter and rains. And three are the states of the sun as in winter, summer and rains. These three orders of all, I ordain as your protectors.
Translation
Three sorrowless worlds (heavens), three oceans (of the midspace), three luminous worlds (of the sun), three summits (of heaven), three winds, and three suns I make your protections.
Translation
O man, I appoint for you as the guards;—three Nakas; mother, father and teacher; three samudras; water air and sound: three Bradhavas: the sun in morning, sun in mid-day and the Sun in sun-set on three binding forces: the organ of speech, body and mind; three vistapas: earth, firmament and heaven or three bodies: grass, rare and causal; three Matari shvan Prana, Apana and Udana; three Suryas: the fire, electricits and the sun.
Translation
O soul, I (the Creator) create three states of perfect bliss, three oceans, three states of bondage, three stationary on6s, three atmospheres, three Suns as thy protectors.
Footnote
Three nakas: three states of bliss-सुषुप्ति – sound sleep; समाधि-deep meditation; मुक्ति-salvation. Three oceans, on earth, atmospheric, heavenly one (nebulea.) Three states of bondage (i) भोगयोनि-पशुयोनि (ii) कर्मयोनि-मनुष्ययोनि (iii) देवयोनि-मुमुः Three stationary ones—Trees, herbs and grass. Three atmospheres—The narrowest one of mother’s womb, the atmosphere and outer-space. Three Suns: The common sun in the solar system, the light of knowledge. The spiritual Sun, seen by the yogis in deep meditation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ३,४ का मिलान करो-अ०५।२८।१४, १५॥४−(त्रीन्) आत्ममनःशरीरसम्बन्धिनः (नाकान्) आनन्दान् (त्रीन्) ऊर्ध्वाधोमध्यवर्तमानान् (समुद्रान्) अन्तरिक्षदेशान् (त्रीन्) कर्मोपासनाज्ञानाख्यान् (ब्रध्नान्) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ०३।५। बन्ध बन्धने-नक्, ब्रधादेशः। ब्रध्नो महन्नाम-निघ०३।३। महतो व्यवहारान् (त्रीन्) स्थाननामजन्माख्याकान् (वैष्टपान्) विटपविष्टपविशिपोलपाः। उ०३।१४५। विश प्रवेशने-कपप्रत्ययः, तुडागमः। विष्टप-अण्। विष्टपेषु भुवनेषु निवासकान् (त्रीन्) ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्गतीन् (मातरिश्वनः) मातरि आकाशे श्वयन्ति गच्छन्ति ये तान् पवनान् (त्रीन्) वृष्ट्यन्नोत्पत्तिपुष्टिकारकान् (सूर्यान्) सूर्यप्रदेशान् (गोप्तॄन्) रक्षकान् (कल्पयामि) रचयामि (ते) तव ॥
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