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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५
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    अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द्वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑। गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ए॒व । शव॑सा । शु॒षन्त॑म् । वि । वृ॒श्च॒त् । वज्रे॑ण । वृ॒त्रम् । इन्द्र॑: ॥ गा: । न । व्रा॒णा: । अ॒वनी॑: । अ॒मु॒ञ्च॒त् । अ॒भि। श्रव॑: । दा॒वने॑ । सऽचे॑ता ॥३५.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदेव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वज्रेण वृत्रमिन्द्रः। गा न व्राणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने सचेताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । एव । शवसा । शुषन्तम् । वि । वृश्चत् । वज्रेण । वृत्रम् । इन्द्र: ॥ गा: । न । व्राणा: । अवनी: । अमुञ्चत् । अभि। श्रव: । दावने । सऽचेता ॥३५.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] ने (अस्य) इस [परमेश्वर] के (इत् एव) ही (शवसा) बल से (शुषन्तम्) सुखानेवाले (वृत्रम्) वैरी को (वज्रेण) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] द्वारा (वि वृश्चत्) छेद डाला। और (श्रवः अभि) कीर्ति के निमित्त (दावने) सुख दान के लिये (सचेताः) चित्तवाला होकर (व्राणाः) घिरी हुई (अवनीः) रक्षा योग्य भूमियों को (गाः न) गौओं के समान (अमुञ्चत्) छुड़ाया ॥१०॥

    भावार्थ

    राजा परमेश्वर का आश्रय लेकर दुःखदायी शत्रुओं का नाश करके प्रजा को कष्ट से छुड़ाकर और कीर्ति पाकर सुख का दान करे, जैसे ग्वाला गौओं को बन्धन से खोलकर सुखी करके वन में चराता हैं ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(अस्य) परमेश्वरस्य (इत् एव) (शवसा) बलेन (शुषन्तम्) जुष शोषणे-श्यनि प्राप्ते शः। शुष्यन्तम्। शोषकम् (वि) विविधम् (वृश्चत्) अच्छिनत् (वज्रेण) विद्युदादिशस्त्रेण (वृत्रम्) आचरकं शत्रुम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (गाः) धेनूः (न) इव (व्राणाः) वृञ् वरणे-कर्मणि शानच्, यको लुक्, गुणाभावे यणादेशः। आवृताः (अवनीः) अर्त्तिसृधृधम्यम्यश्यवितॄभ्योऽनिः। उ०२।१०२। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्त्यालिङ्गनहिंसादानभागवृद्धिषु अनि प्रत्ययः। भूमिदेशान् (अमुञ्चत्) अमोचयत् (अभि) अभिलक्ष्य (श्रवः) कीर्तिम् (दावने) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा०३।२।७४। ददातेर्वनिप्, अल्लोपाभावश्छान्दसः। सुखदानाय (सचेताः) चेतसा ज्ञानेन सह वर्तमानः ॥

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    विषय

    श्रव: अभि

    पदार्थ

    १. (अस्य इत् एव) = इस प्रभु के ही (शवसा) = बल से (शुषन्तम्) = सूखते-से हुए (वृत्रम्) = ज्ञान के आवरणभूत इस कामदेव को (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वन से (विवृश्चद्) = विशेषरूप से काट डालता है। प्रभु-स्मरण से दुर्बल हुई-हुई वासना को यह क्रियायशीलता के द्वारा नष्ट ही कर डालता है। एवं प्रभु-स्मरणपूर्वक क्रियाशीलता से वासना का विनाश हो जाता है। २. (व्राणा:) = वृत्र से-वासनात्मक काम से आवृत्त हुई-हुई (अवनी:) = रक्षक सोमशक्तियों को यह (वासना) = विनाश के द्वारा (अमुञ्चत्) = मुक्त करता है। इसप्रकार मुक्त करता है (न:) = जैसेकि (व्राणा:) = बाड़े में घिरी हुई (गा:) = गौओं को कोई मुक्त किया करता है। इस (दावने) = प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिए (सेचताः) = सचेत प्रभु इसे (भवः अभि) = ज्ञान व यश की ओर ले-चलते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण से क्षीण कर दी गई वासना को हम क्रियाशीलता द्वारा विनष्ट कर डालें। वासना-विनाश के द्वारा शक्तिकणों का रक्षण करें। इसप्रकार हम इस योग्य बनें कि प्रभु हमें यश व ज्ञान की ओर ले-चलें।

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    भाषार्थ

    (अस्य इत् एव) इस ही परमेश्वर की (शवसा) शक्तिरूपी (वज्रेण) वज्र द्वारा (इन्द्रः) जीवात्मा, (शुषन्तं) बलशाली (वृत्रम्) पाप-वृत्र की जड़ (विवृश्चद्) काट देता है। तब जीवात्मा (व्राणाः) रागद्वेष आदि से आवृत (अवनीः) पृथिवीस्थ प्रजाजनों को राग-द्वेष आदि से (अमुञ्चत्) मुक्त कर देता है, (न) जैसे कि (व्राणाः) मेघ से आवृत (गाः) सूर्यरश्मियों को, या मेघीय जलों को, (इन्द्रः) मेघस्थ-विद्युद् (वज्रेण) अपने वज्र द्वारा (शुषन्तं वृत्रम्) बलवान् मेघ-वृत्र को (विवृश्चद्) काट कर (अमुञ्चत्) मुक्त कर देती है। तदनन्तर (सचेताः) सचेत हुआ जीवात्मा (दावने) आध्यात्मिक शक्ति के प्रदान के लिए (श्रवः अभि) यश प्राप्त करता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    O lord of power and law, with the strength and rectitude of this Indra, the universal force of Divinity uproots the exploitative forces, just as the sun breaks down the cloud which holds up the rain and scorches the earth. And just as held up cows are released from the stalls, so the ruler releases the streams of life on the earth, enlightened hero as he is, who releases food and justice for the powers of generosity.

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    Translation

    Through His (Gods') power the sun with thunder-bolt smites Vritra, the cloud which dries up waters and for the sake of grain-crop and for giving pleasure to all, becoming alert releases the rays hidden like cows desiring succour.

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    Translation

    Through His (Gods’) power the sun with thunder-bolt smites Vritra, the cloud which dries up waters and for the sake of grain-crop and for giving pleasure to all, becoming alert releases the rays hidden like cows desiring succour.

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    Translation

    The Mighty Lord of Glory and fortunes smashes the drying-up clouds of ignorance and evil in various ways, by His strength and valour. The Loving God showers food-grains, fame, knowledge on the charitable person like the rays of the Sun, releasing the pent-up waters of a cloud on the earth, which is worthy of protection.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(अस्य) परमेश्वरस्य (इत् एव) (शवसा) बलेन (शुषन्तम्) जुष शोषणे-श्यनि प्राप्ते शः। शुष्यन्तम्। शोषकम् (वि) विविधम् (वृश्चत्) अच्छिनत् (वज्रेण) विद्युदादिशस्त्रेण (वृत्रम्) आचरकं शत्रुम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सेनापतिः (गाः) धेनूः (न) इव (व्राणाः) वृञ् वरणे-कर्मणि शानच्, यको लुक्, गुणाभावे यणादेशः। आवृताः (अवनीः) अर्त्तिसृधृधम्यम्यश्यवितॄभ्योऽनिः। उ०२।१०२। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमप्रवेशश्रवणस्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छादीप्त्यवाप्त्यालिङ्गनहिंसादानभागवृद्धिषु अनि प्रत्ययः। भूमिदेशान् (अमुञ्चत्) अमोचयत् (अभि) अभिलक्ष्य (श्रवः) कीर्तिम् (दावने) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा०३।२।७४। ददातेर्वनिप्, अल्लोपाभावश्छान्दसः। सुखदानाय (सचेताः) चेतसा ज्ञानेन सह वर्तमानः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান সেনাপতি] (অস্য) এই [পরমেশ্বরের] (ইৎ এব)(শবসা) শক্তি দ্বারা (শুষন্তম্) শুষ্ককারী/শোষক (বৃত্রম্) শত্রুকে (বজ্রেণ) বজ্র [বিদ্যুতাদি শস্ত্র] দ্বারা (বি বৃশ্চৎ) ছেদন করেছেন। এবং (শ্রবঃ অভি) কীর্তির নিমিত্ত (দাবনে) সুখদানের জন্য (সচেতাঃ) চিত্তবান হয়ে (ব্রাণাঃ) আবৃত (অবনীঃ) রক্ষাযোগ্য ভূমিকে (গাঃ ন) গাভীর এর ন্যায় (অমুঞ্চৎ) মুক্ত করেছেন ॥১০॥

    भावार्थ

    রাজা পরমেশ্বরের আশ্রয় নিয়ে দুঃখদায়ী শত্রুদের নাশ করে প্রজাকে কষ্ট থেকে মুক্ত করেন এবং কীর্তি প্রাপ্ত হয়ে সুখ দান করেন, যেমন গো পালক গাভীদের বন্ধন খুলে সুখী করে বনমধ্যে গোচারণ করায় ॥১০॥

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    भाषार्थ

    (অস্য ইৎ এব) এই পরমেশ্বরের (শবসা) শক্তিরূপী (বজ্রেণ) বজ্র দ্বারা (ইন্দ্রঃ) জীবাত্মা, (শুষন্তং) বলশালী (বৃত্রম্) পাপ-বৃত্রের মূল (বিবৃশ্চদ্) ছেদন করে। তখন জীবাত্মা (ব্রাণাঃ) রাগদ্বেষাদি দ্বারা আবৃত (অবনীঃ) পৃথিবীস্থ প্রজাদের রাগ-দ্বেষ থেকে (অমুঞ্চৎ) মুক্ত করে দেয়, (ন) যেমন (ব্রাণাঃ) মেঘ দ্বারা আবৃত (গাঃ) সূর্যরশ্মিকে, বা মেঘীয় জলকে, (ইন্দ্রঃ) মেঘস্থ-বিদ্যুদ্ (বজ্রেণ) নিজের বজ্র দ্বারা (শুষন্তং বৃত্রম্) বলবান্ মেঘ-বৃত্রকে (বিবৃশ্চদ্) ছেদন করে (অমুঞ্চৎ) মুক্ত করে দেয়। তদনন্তর (সচেতাঃ) সচেতন জীবাত্মা (দাবনে) আধ্যাত্মিক শক্তির প্রদানের জন্য (শ্রবঃ অভি) যশ প্রাপ্ত করে।

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