अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 9
अ॒स्येदे॒व प्र रि॑रिचे महि॒त्वं दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षात्। स्व॒राडिन्द्रो॒ दम॒ आ वि॒श्वगू॑र्तः स्व॒रिरम॑त्रो ववक्षे॒ रणा॑य ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । इत् । ए॒व । प्र । रि॒रि॒चे । म॒हि॒ऽत्वम् । दि॒व: । पृ॒थि॒व्या: । परि॑ । अ॒न्तरि॑क्षात् ॥ स्व॒ऽराट् । इन्द्र॑: । दमे॑ । आ । वि॒श्वऽगू॑र्त: । सु॒ऽअ॒रि: । अम॑त्र: । व॒व॒क्षे॒ । रणा॑य ॥३५.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदेव प्र रिरिचे महित्वं दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षात्। स्वराडिन्द्रो दम आ विश्वगूर्तः स्वरिरमत्रो ववक्षे रणाय ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । इत् । एव । प्र । रिरिचे । महिऽत्वम् । दिव: । पृथिव्या: । परि । अन्तरिक्षात् ॥ स्वऽराट् । इन्द्र: । दमे । आ । विश्वऽगूर्त: । सुऽअरि: । अमत्र: । ववक्षे । रणाय ॥३५.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सभापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस [परमेश्वर] का (इत्) ही (महित्वम्) महत्त्व (एव) निश्चय करके (दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से और (अन्तरिक्षात्) आकाश से (परि) सब प्रकार (प्र रिरिचे) अधिक बड़ा है। (स्वराट्) स्वयं राजा, (विश्वगूर्तः) सबको उद्यम में लगानेवाला, (स्वरिः) बड़ा प्रेरक, (अमत्रः) ज्ञानवान् (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमात्मा] (दमे) शासन के बीच (रणाय) रण मिटाने के लिये (आ ववक्षे) क्रोधित हुआ है ॥९॥
भावार्थ
जैसे परमात्मा सबसे बड़ा होकर सूर्य आदि सब बड़ों से बड़ों को शासन में रखता है, वैसे ही सबसे अधिक गुणी पुरुष प्रधान होकर प्रजा का पालन करे ॥९॥
टिप्पणी
९−(अस्य) सर्वत्र व्यापकस्य परमेश्वरस्य (इत्) एव (एव) निश्चयेन (प्र) प्रकर्षेण (रिरिचे) रिचिर् विरेचने-लिट्। अधिकं बभूव (महित्वम्) महत्त्वम् (दिवः) सूर्यलोकात् (पृथिव्याः) भूलोकात् (परि) सर्वतः (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (स्वराट्) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च-क्विप्। स्वयं राजा शासकः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (दमे) दमु उपशमे-घञ्। शासने (विश्वगूर्तः) गूरी उद्यमे-क्त। नसत्तनिषत्ताऽनुत्तप्रतूर्त्तसूर्तगूर्तानिच्छन्दसि। पा०८।२।६१। निष्ठानत्त्वाभावः। विश्वं सर्वं जगद् गूर्णम् उद्यतम् उद्यमे कृतं येन सः (स्वरिः) अच इः। उ०४।१३९। सु+ऋ गतिप्रापणयोः-इप्रत्ययः। सुप्रेरकः (अमत्रः) अमिनक्षियजि०। उ०३।१०। अम गत्यादिषु अत्रन्। ज्ञानवान् (ववक्षे) वक्ष रोषसंघातयोः-लिट्, आत्मनेपदं छान्दसम्। रोषं चकार (रणाय) रणं युद्धं नाशयितुम् ॥
विषय
स्वरि: ववक्षे रणाय
पदार्थ
१. (अस्य) = इस प्रभु की (महित्वम्) = महिमा (इत् एव) = निश्चय से ही (दिवः पृथिव्या:) = द्युलोक से व पृथिवीलोक से (प्ररिरिचे) = बढ़ी हुई है। वह प्रभु द्यावापृथिवी से व्याप्त नहीं किये जाते। (अन्तरिक्षात् परि) = अन्तरिक्ष से भी उस प्रभु की महिमा ऊपर है-बढ़ी हुई है। ये सब लोकत्रयी प्रभ के एक देश में ही समायी हुई है [पादोऽस्य विश्वा भूतानि]। २. वे (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (स्वराट) = स्वयं देदीप्यमान हैं, व अपना शासन स्वयं करनेवाले हैं। (दमे) = इसप्रकार दमन के होने पर वे प्रभु (आ) = समन्तात् (विश्वगूर्त:) = सब उद्यमोंवाले हैं। यह सारा संसार प्रभु की हो रचना है। प्रभु के शासन में ही सारा संसार गतिवाला होता है। ३. वे प्रभु (स्वरि:) = [सु अरिः] उत्तम आक्रान्ता हैं, शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हैं। (अमत्र:) = [अमत्र] गति के द्वारा सबका रक्षण करनेवाले हैं। ये प्रभु (रणाय) = रमणीय संग्राम के लिए (ववक्षे) = स्तोता को शक्तिशाली बनाते हैं। [वक्ष् to be powerful]|
भावार्थ
प्रभु की महिमा त्रिलोकी से व्याप्त नहीं की जाती। प्रभु स्वराट् हैं। स्तोता को शत्रुओं के साथ युद्ध के लिए शक्तिशाली बनाते हैं।
भाषार्थ
(दिवस्पृथिव्याः) द्युलोक और पृथिवीलोक से, तथा (परि अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से (अस्य इत् एव) इस ही परमेश्वर की (महित्वम्) महिमा (प्ररिरिचे) पूर्णतया रेचित हो रही हैं, प्रवाहित हो रही है। (स्वराळ्=स्वराट्) निज ज्योति से सम्पन्न, (विश्वगूर्तः) विश्व में उद्यमवाला, (स्वरिः) आसुरी भावों का उपतापक या उनका सर्वश्रेष्ठ अरि अर्थात् दुश्मन, (अमत्रः) अपरिमित अर्थात् सर्वव्यापक (इन्द्रः) परमेश्वर, (रणाय) आसुरी-भावों के साथ युद्ध करने के लिए या उपासक की प्रसन्नता के लिए, (दमे) उपासक के हृदय-गृह में (आ ववक्षे) आ उपस्थित हुआ है।
टिप्पणी
[स्वराळ्=स्वराट्। श्री पं০ सातवलेकर औंध से प्रकाशित अथर्ववेद संहिताओं में पाठ “स्वराल्” है, जो कि स्थानीय उच्चारण-भेद के कारण अपभ्रंश पाठ है। ऐसे अपभ्रंश पाठ वेदों में कई स्थानों पर मिलते हैं। ऐसे अपभ्रंश पाठों को न छाप कर इनके स्थान में विशुद्ध सार्थक पाठ ही छापने चाहिएँ।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Surely the greatness and grandeur of this Indra exceeds the heaven, skies and earth. The self-refulgent hero, universal warrior, brilliant and brave, infinitely strong and bold, resounds in the universe for battle against evil and negation.
Translation
His magnitude surpasses the magnitude of heaven earth and middle region. The supreme Almighty God being praised by all like a good hero who has good foe-man for encounter, brings evey thing in His control (DAME)
Translation
His magnitude surpasses the magnitude of heaven, earth and middle region. The supreme Almighty God being praised by all like a good hero who has good foe-man for encounter, brings everything in His control (DAME).
Translation
The Mighty Power of This God far excel that of the heavens, the earth and of the mid-regions. The self-Effulgent, All-Adorable, Self-reliant Lord of Glory overpowers and sustains all in the universe, like a~ powerful king, capable of speedily dashing against his foe, subduing him and carrying everything before him in the war.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(अस्य) सर्वत्र व्यापकस्य परमेश्वरस्य (इत्) एव (एव) निश्चयेन (प्र) प्रकर्षेण (रिरिचे) रिचिर् विरेचने-लिट्। अधिकं बभूव (महित्वम्) महत्त्वम् (दिवः) सूर्यलोकात् (पृथिव्याः) भूलोकात् (परि) सर्वतः (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (स्वराट्) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च-क्विप्। स्वयं राजा शासकः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (दमे) दमु उपशमे-घञ्। शासने (विश्वगूर्तः) गूरी उद्यमे-क्त। नसत्तनिषत्ताऽनुत्तप्रतूर्त्तसूर्तगूर्तानिच्छन्दसि। पा०८।२।६१। निष्ठानत्त्वाभावः। विश्वं सर्वं जगद् गूर्णम् उद्यतम् उद्यमे कृतं येन सः (स्वरिः) अच इः। उ०४।१३९। सु+ऋ गतिप्रापणयोः-इप्रत्ययः। सुप्रेरकः (अमत्रः) अमिनक्षियजि०। उ०३।१०। अम गत्यादिषु अत्रन्। ज्ञानवान् (ववक्षे) वक्ष रोषसंघातयोः-लिट्, आत्मनेपदं छान्दसम्। रोषं चकार (रणाय) रणं युद्धं नाशयितुम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্য) এই [পরমেশ্বরের] (ইৎ) ই (মহিত্বম্) মহত্ত্ব (এব) নিশ্চিতরূপে (দিবঃ) সূর্যের থেকে, (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবীর থেকে এবং (অন্তরিক্ষাৎ) আকাশের থেকে (পরি) সব প্রকারে (প্র রিরিচে) অনেক বড়/বৃহৎ। (স্বরাট্) স্বয়ং রাজা, (বিশ্বগূর্তঃ) সকলকে উদ্যমে নিয়োজিতকারী, (স্বরিঃ) সুপ্রেরক, (অমত্রঃ) জ্ঞানবান (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (দমে) শাসনের মাঝে (রণায়) যুদ্ধ নাশ করার জন্য (আ ববক্ষে) ক্রোধিত হয়েছেন ॥৯॥
भावार्थ
যেমন পরমাত্মা সকলের বড় হয়ে সূর্যাদি সকল বড় বড় গ্রহ নক্ষত্রকে শাসনে রাখেন, তেমনই সবচেয়ে অধিক গুণীপুরুষ প্রধান হয়ে প্রজা পালন করে/করবে/করুক ॥৯॥
भाषार्थ
(দিবস্পৃথিব্যাঃ) দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোক থেকে/দ্বারা, তথা (পরি অন্তরিক্ষাৎ) অন্তরিক্ষ থেকে/দ্বারা (অস্য ইৎ এব) এই পরমেশ্বরের (মহিত্বম্) মহিমা (প্ররিরিচে) পূর্ণরূপে রেচিত হচ্ছে, প্রবাহিত হচ্ছে। (স্বরাল়্=স্বরাট্) নিজ জ্যোতিসম্পন্ন, (বিশ্বগূর্তঃ) বিশ্বে উদ্যমশীল, (স্বরিঃ) আসুরিক ভাবের উপতাপক বা সেগুলোর সর্বশ্রেষ্ঠ অরি অর্থাৎ শত্রু, (অমত্রঃ) অপরিমিত অর্থাৎ সর্বব্যাপক (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (রণায়) আসুরিক-ভাবের সাথে যুদ্ধ করার জন্য বা উপাসকের প্রসন্নতার জন্য, (দমে) উপাসকের হৃদয়-গৃহে (আ ববক্ষে) এসে উপস্থিত হয়েছে।
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