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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५
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    अ॒स्येदु॑ त्वे॒षसा॑ रन्त॒ सिन्ध॑वः॒ परि॒ यद्वज्रे॑ण सी॒मय॑च्छत्। ई॑शान॒कृद्दा॒शुषे॑ दश॒स्यन्तु॒र्वीत॑ये गा॒धं तु॒र्वणिः॒ कः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्वे॒षसा॑ । र॒न्त॒ । सिन्ध॑व: । परि॑ । यत् । वज्रे॑ण । सी॒म् । अय॑च्छत् ॥ ई॒शा॒न॒ऽकृत् । दा॒शुषे॑ । द॒श॒स्यन् । तु॒र्वीत॑ये । गा॒धम् । तु॒र्वणि॑: । क॒रिति॑ । क: ॥३५.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदु त्वेषसा रन्त सिन्धवः परि यद्वज्रेण सीमयच्छत्। ईशानकृद्दाशुषे दशस्यन्तुर्वीतये गाधं तुर्वणिः कः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । ऊं इति । त्वेषसा । रन्त । सिन्धव: । परि । यत् । वज्रेण । सीम् । अयच्छत् ॥ ईशानऽकृत् । दाशुषे । दशस्यन् । तुर्वीतये । गाधम् । तुर्वणि: । करिति । क: ॥३५.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) इस [सभापति] के (इत्) ही (उ) निश्चय करके (त्वेषसा) तेज [पराक्रम] से (सिन्धवः) नदियाँ [नाले बरहा आदि] (रन्त) रमे हैं [बहे हैं], (यत्) क्योंकि उसने (वज्रेण) वज्र [बिजुली फडुआ आदि शस्त्रों] से (सीम्) बन्ध [बाँध आदि] को (परि) सब ओर से (यच्छत्) बाँधा है। (दाशुषे) दानी मनुष्य को (ईशानकृत्) ऐश्वर्यवान् करनेवाले, (दशस्यन्) कवच [रक्षासाधन] के समान काम करते हुए, (तुर्वणिः) शीघ्रता सेवन करनेवाले [सभाध्यक्ष] ने (तुर्वीतये) शीघ्रता करनेवालों के चलने के लिये (गाधम्) उथले स्थान [घाट आदि] को (कः) बनाया है ॥११॥

    भावार्थ

    प्रधान राजा को चाहिये कि पहाड़ों से बड़े-बड़े नाले काटकर पृथिवी पर जल लाकर खेती आदि करावे, और यात्रियों के लिये सेतु [पुल] घाट आदि बनावे ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(अस्य) सभाध्यक्षस्य (इत् उ) अवधारणे (त्वेषसा) तेजसा। पराक्रमेण (रन्त) रमु क्रीडायाम्-लङि शपो लुक्। अरमन्त (सिन्धवः) नद्यः (परि) सर्वतः (यत्) यतः (वज्रेण) विद्युदादिभूखननशरत्रेण (सीम्) अ०२०।२०।६। षिञ् बन्धने-ईप्रत्ययः। बन्धम् (अयच्छत्) यमु उपरमे-लङ्। नियमितवान्। अवरुद्धवान् (ईशानकृत्) ऐश्वर्ययुक्तस्य कर्ता (दाशुषे) दानिने मनुष्याय (दशस्यन्) दंश दंशने-असुन्, स च कित्। उपमानादाचारे। पा०३।१।१०। दशसू-क्यच्, शतृ। दश कवच इवाचरन् (तुर्वीतये)। तुर वेगे-क्विप्+वी गतौ-क्तिन्। तुरां शीघ्रकारिणां गतये गमनाय (गाधम्) गाधृ प्रतिष्ठायाम्-घञ्। तलस्पर्शस्थानम्। अवतरणस्थानम् (तुर्वणिः) तुर्+वन संभक्तौ-इन्। शीघ्रत्वस्य वेत्रस्य संभक्ता (कः) करोतेर्लुङ् छान्दसं रूपम् अकार्षीत् ॥

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    विषय

    ज्ञानसिन्धु-प्रवाह

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब एक जितेन्द्रिय पुरुष (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा (सीम्) = निश्चय से (परि अयच्छत्) = वासना का सर्वत: नियमन करता है तब (अस्य इत् उ) = इस प्रभु की ही (त्वेषसा) = दीप्ति से (सिन्धवः) = ज्ञान के प्रवाह (रन्त) = हमारे जीवन में रमण करते हैं। वासना ज्ञान-प्रवाह को रोक देती है। वासना-विनाश से यह ज्ञान-प्रवाह फिर से प्रवाहित हो उठता है। २. प्रभु ही इस जितेन्द्रिय पुरुष को (ईशानकृत्) = इन्द्रियों का स्वामी बनाते हैं तथा (दाशुषे) = भोगासक्त न होने के कारण दाश्वान् पुरुषों के लिए (दशस्यन्) = सदा इष्ट धनों को देते हुए ये (तुर्वणिः) = शीघ्रता से धनों का सम्भजन करनेवाले प्रभु (तुर्वीतये) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष के लिए (गाधं क:) = प्रतिष्ठा करनेवाले होते हैं। इस तुर्वीति का जीवन अप्रतिष्ठ नहीं होता। यह जीवन में स्थिर आधार को प्राप्त करके उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है।

    भावार्थ

    हम क्रियाशील बनकर वासना का नियमन करते हुए प्रभु की दीप्ति से अपने जीवन में ज्ञानप्रवाहों को प्रवाहित करें। ईशान बनकर प्रभु से आवश्यक धनों को प्राप्त करते हुए प्रभुरूप स्थिर आधार को प्राप्त करके जीवन-पथ में आगे बढ़ें।

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    भाषार्थ

    (अस्य इत् उ) इस परमेश्वर की ही (त्वेषसा) ज्योति द्वारा (सिन्धवः) समुद्र (रन्त) रमणीय बने हुए है, (यद्) जब कि परमेश्वर ने (वज्रेण) वैद्युत वज्र द्वारा इन्हें (परि) पृथिवी के चारों ओर (सीम्) सर्वत्र (अयच्छत्) प्रदान किया, या नियत कर दिया। परमेश्वर ने (ईशानकृत्) शासकों की सृष्टि भी की हुई है। परमेश्वर (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (दशस्यन्) अध्यात्मशक्ति प्रदान करता है। (तुर्वीतये) आध्यात्मिक मार्ग पर शीघ्र प्रगति करनेवाले के लिए, (तुर्वणिः) शीघ्र शक्ति प्रदान करनेवाला परमेश्वर (गाधं कः) अपना आश्रय प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    [तुर्वीतये=तुर्, त्वरा, शीघ्र+वी (गतौ)। तुर्वणिः=तुर्, त्वरा, शीघ्र+वण (संभक्तौ)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    By the might and splendour of this Indra, the rivers flow and seas roll at will since he gives the blow (to Vrtra and releases the waters below). Ruler, controller, and giver of power and honour, instantly victorious, giving liberally to the generous, he creates firm standing ground for the speedy success of generosity all round.

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    Translation

    Through the power of this alone the rivers play their roles as only He through his bolt makes them abiding. He, swift in pervasiveness and efficient in making sun and fire giving gift to man of munificance makes the ford or bottom for the thing of swift motion.

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    Translation

    Through the power of this alone the rivers play their roles as only He through his bolt makes them abiding. He, swift in pervasiveness and efficient in making sun and fire giving gift to man of munificence makes the ford or bottom for the thing of swift motion.

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    Translation

    It is through His resplendent Glory alone that the rivers revel all over the earth. It is He Who controls them in every respect by His mighty Power. Just as speedily moving electricity endows its full energy and glory to the fast-moving person, similarly does, the All-Glorious God, instantly pervading the universe and controlling it showers His fortunes and knowledge on the devotee, quickly desirous of attainment of salvation.

    Footnote

    The verse can apply to the king and an engineer, too.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(अस्य) सभाध्यक्षस्य (इत् उ) अवधारणे (त्वेषसा) तेजसा। पराक्रमेण (रन्त) रमु क्रीडायाम्-लङि शपो लुक्। अरमन्त (सिन्धवः) नद्यः (परि) सर्वतः (यत्) यतः (वज्रेण) विद्युदादिभूखननशरत्रेण (सीम्) अ०२०।२०।६। षिञ् बन्धने-ईप्रत्ययः। बन्धम् (अयच्छत्) यमु उपरमे-लङ्। नियमितवान्। अवरुद्धवान् (ईशानकृत्) ऐश्वर्ययुक्तस्य कर्ता (दाशुषे) दानिने मनुष्याय (दशस्यन्) दंश दंशने-असुन्, स च कित्। उपमानादाचारे। पा०३।१।१०। दशसू-क्यच्, शतृ। दश कवच इवाचरन् (तुर्वीतये)। तुर वेगे-क्विप्+वी गतौ-क्तिन्। तुरां शीघ्रकारिणां गतये गमनाय (गाधम्) गाधृ प्रतिष्ठायाम्-घञ्। तलस्पर्शस्थानम्। अवतरणस्थानम् (तुर्वणिः) तुर्+वन संभक्तौ-इन्। शीघ्रत्वस्य वेत्रस्य संभक्ता (कः) करोतेर्लुङ् छान्दसं रूपम् अकार्षीत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অস্য) এই [সভাপতির] (ইৎ)(উ) নিশ্চিতরূপে (ত্বেষসা) তেজ [পরাক্রম] দ্বারা (সিন্ধবঃ) নদীসমূহ [খাল, বিল] (রন্ত) রমন করে [প্রবাহিত হয়], (যৎ) কারন তিনি (বজ্রেণ) বজ্র [বিদ্যুৎ, কোদাল আদি শস্ত্র] দ্বারা (সীম্) বন্ধ [বাঁধ আদি] (পরি) সকল দিকে (যচ্ছৎ) বেঁধেছেন। (দাশুষে) দাতা মনুষ্যকে (ঈশানকৃৎ) ঐশ্বর্যবানকারী, (দশস্যন্) কবচ [রক্ষা সাধন] এর সদৃশ কার্য করে, (তুর্বণিঃ) শীঘ্রতার সাথে সেবনকারী [সভাধ্যক্ষ] (তুর্বীতয়ে) শীঘ্রতাকারীদের চলার জন্য (গাধম্) উপর-নীচ স্থান [ঘাট আদি] (কঃ) তৈরী করেছেন ॥১১॥

    भावार्थ

    প্রধান রাজার উচিত, পাহাড় থেকে বড় বড় নালা কেটে পৃথিবীতে জল এনে চাষ করানো, এবং যাত্রীদের জন্য সেতু [পুল] ঘাটআদি নির্মান করা ॥১১॥

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    भाषार्थ

    (অস্য ইৎ উ) সেই পরমেশ্বরেরই (ত্বেষসা) জ্যোতি দ্বারা (সিন্ধবঃ) সমুদ্র (রন্ত) রমণীয় হয়ে আছে, (যদ্) যদ্যপি পরমেশ্বর (বজ্রেণ) বৈদ্যুত বজ্র দ্বারা ইহাকে [সমুদ্রকে] (পরি) পৃথিবীর চারিদিকে (সীম্) সর্বত্র (অয়চ্ছৎ) প্রদান করেছেন, বা নিয়ত করেছেন। পরমেশ্বর (ঈশানকৃৎ) শাসকদের সৃষ্টিও করেছেন। পরমেশ্বর (দাশুষে) আত্মসমর্পণকারীর জন্য (দশস্যন্) আধ্যাত্মশক্তি প্রদান করেন। (তুর্বীতয়ে) আধ্যাত্মিক মার্গে শীঘ্র প্রগতিশীলদের জন্য, (তুর্বণিঃ) শীঘ্র শক্তি প্রদানকারী পরমেশ্বর (গাধং কঃ) নিজের আশ্রয় প্রদান করেন।

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