अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 12
अ॒स्मा इदु॒ प्र भ॑रा॒ तूतु॑जानो वृ॒त्राय॒ वज्र॒मीशा॑नः किये॒धाः। गोर्न पर्व॒ वि र॑दा तिर॒श्चेष्य॒न्नर्णां॑स्य॒पां च॒रध्यै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । प्र । भ॒र॒ । तूतु॑जान: । वृ॒त्राय॑ । वज्र॑म् । ईशा॑न: । कि॒ये॒धा: ॥ गो: । न । पर्व॑ । वि । र॒द॒ । ति॒र॒श्चा । इष्य॑न् । अर्णा॑सि । अ॒पाम् । च॒रध्यै॑ ॥३५.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु प्र भरा तूतुजानो वृत्राय वज्रमीशानः कियेधाः। गोर्न पर्व वि रदा तिरश्चेष्यन्नर्णांस्यपां चरध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । प्र । भर । तूतुजान: । वृत्राय । वज्रम् । ईशान: । कियेधा: ॥ गो: । न । पर्व । वि । रद । तिरश्चा । इष्यन् । अर्णासि । अपाम् । चरध्यै ॥३५.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सभापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मै) इस [संसार] के निमित्त (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (तूतुजानः) शीघ्रता करता हुआ, (ईशानः) ऐश्वर्यवान्, (कियेधाः) कितने [अर्थात् बड़े बल] का धारण करनेवाला तू (वृत्राय) वैरी के लिये (वज्रम्) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] को (प्र) अच्छे प्रकार (भर) धारण कर। और (तिरश्चा) तिरछी चाल के साथ (अर्णांसि) अपनी चालों को (इष्यन्) चलता हुआ तू (अपाम्) प्रजाओं के (चरध्यै) चलने के लिये (पर्व) [वैरी के] जोड़ों को (वि रद) चीर डाल, (गोः न) जैसे भूमि के [जोड़ों को किसान चीरते हैं]॥१२॥
भावार्थ
जैसे किसान पृथिवी को जोतकर, घास आदि काट कर एकसा करके अन्न उत्पन्न कर सुख देते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष राजा शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके प्रजा को सुखी करे ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्र) प्रकर्षेण (भर) धर (तूतुजानः) तुज हिंसाबलादाननिकेतनेषु-कानच्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा०६।१।७। इति दीर्घः। तूतुजानः क्षिप्रनाम-निघ०२।१। त्वरमाण (ईशानः) ऐश्वर्यवान् (कियेधाः) म०६। कियतो महतो बलस्य धारकः (गोः) पृथिव्याः (न) इव (पर्व) पर्वाणि (वि) विविधम् (रद) रद विलेखने। विदारय (तिरश्चा) ऋत्विग्दधृक्०। पा०३।२।९। तिरस्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। तिर्यग्गत्या (इष्यन्) गच्छन् (अर्णांसि) उदके च। उ०४।१७६। ऋ गतिप्रापणयोः-असुन् नुक् च। नयनानि (अपाम्) आपः, आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु०६।२७। प्रजानाम् (चरध्यै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३४।९। चरतेः-अध्यैप्रत्ययः। चरितुम्। गन्तुम् ॥
विषय
गो-पर्व विदारण
पदार्थ
१. हे प्रभो! (तूतुजानः) = शीघ्रता से कार्यों को करते हुए अथवा खूब ही शत्रुओं का हिंसन करते हुए (ईशान:) = सबके स्वामी (कियेधा:) = अपरिमित बल को धारण करनेवाले [कियत् धा नि० ६.२०] आप (अस्मै वृत्राय) = इस ज्ञान की आवरणभूत वासना के लिए (इत् उ) = निश्चय से (वज्रं प्रभरा) = वज्र का प्रहार कीजिए। वज्र-प्रहार से इस वृत्र को समास करके हमारे लिए ज्ञान का प्रकाश कीजिए। २. (गो: पर्व न) = गौ के एक-एक पर्व की तरह इस वेदवाणीरूप गौ के पौं को (विरदा) = विच्छिन्न कीजिए। एक-एक शब्द का निर्वचन करते हुए उसके भाव को स्पष्ट कीजिए। हे प्रभो! आप (अर्णांसि) = रेत:कणरूप जलों को (तिरश्चा) = [तिरः अञ्च] तिरोहित गतिवाले रूप में (इष्यन्) = प्रेरित करते हुए (अपां चरध्यै) = ज्ञान-जलों के चरण के लिए हों। प्रभु के अनुग्रह से हमारे शरीर में रेत:कण रुधिर में इसप्रकार व्याप्त रहें जैसेकि दूध में घृतकण रहते हैं। इसप्रकार सुरक्षित रेत:कण बुद्धि को दीस करनेवाले हों और हमारे जीवन में ज्ञान की धाराओं का प्रवाह बहे।
भावार्थ
प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करें। हमें वेद के अन्तर्निहित तत्त्वों को समझने के योग्य बनाएँ। सुरक्षित रेत:कण हमारी बुद्धियों को दीस करें और हममें ज्ञानजलों का प्रवाह प्रवाहित हो।
भाषार्थ
(अर्णांसिं) जलों को (इष्यन्) चाहता हुआ राजा, पृथिवी पर (अपाम्) जलों के (विचरध्यै) विचरने के लिए, (तिरश्चा) तिरछे (रदा) शस्त्रों द्वारा (न) जैसे (गोः) पृथिवी के (पर्व) अङ्गों को काटता है, और पृथिवीतल पर नहरों या नदी के रूप में जल बहा देता है, वैसे हे उपासक! (अस्मै इत् उ) इस ही परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए, (तूतुजानः) बल का संग्रह करता हुआ, और (कियेधाः) कितनों का ही धारण-पोषण करता हुआ, (ईशानः) इन्द्रियों और मन का अधीश्वर बनकर तू, (वृत्राय) पाप-वृत्र के हनन के लिए (वज्रम्) असंगरूपी दृढ़ वज्र को (प्रभर) धारणकर, या इस वज्र का पाप-वज्र पर प्रहार कर।
टिप्पणी
[“तूतुजानः और कियेधाः” का अन्वय राजा के साथ भी होता है। वृत्राय=वृत्रं हन्तुम्। रदा=रद् विलेखने; रद् क्विप्, तृतीयैकवचन। गोः=यहाँ गोपशु का वर्णन नहीं, क्योंकि गौ के अङ्गों का काटना जल के लिए कहा है। गोपशु के अङ्गों को काटने से जल की प्राप्ति नहीं हो सकती। जैसे राजा भगीरथ ने पर्वतों को काट कर पृथिवी तल पर गङ्गा को बहाया था, वैसा ही वर्णन मन्त्र में है। भगीरथ के कारण गङ्गा का नाम भागीरथी पड़ा है। वज्रम्=असङ्गरूपी दृढ़ वज्र। यथा—“असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा” (गीता १५.३)। तुतुजानः=तुज् बलादाने।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, ruling lord of manifold power, fast and impetuous, wields the thunderbolt of sunrays for this Vrtra, cloud of vapours and darkness, and releasing the waters for the streams to flow on earth, breaks the layers of vapours with the thunderbolt as lightning breaks things into pieces bit by bit.
Translation
O Almighty God, you administering the worldly affairs pervading every thing with swifteness and possesing many powers, use the thunder-bolt only against this Vritrah, the cloud. You desiring rain-pours for the flow of waters rend its joints like the joint of ground with oblique bolt.
Translation
O Almighty God, you administering, the worldly affairs, pervading everything with swiftness and possessing many powers, use the thunder-bolt only against this Vritrah, the cloud. You desiring rain-pours for the flow of waters rend its joints like the joint of ground with oblique bolt.
Translation
O Mighty Lord, giving the highest speed to the universe and controlling it in numerous ways of substance and modes of valour, Thou usest Thy mighty striking power like the thunderbolt for darkening clouds of the Primordial matter to set in motion the Primeval Waters for the creation of the universe, just as electricity splits asunder the various parts of the rays of light to let fall the waters of the clouds on the earth. Or O mighty king, speedily setting in motion the machinery of the administration, controlling your state, in various ways of power-control or checks and curbs on the unruly elements, desirous of the prosperity and well-being of the state, you strike with the speed of lightning, this overpowering enemy and split asunder the various parts of the earth (in the forms of canals) for the free flow of waters to irrigate the land.
Footnote
(i) Griffith and Sayana have done the greatest disservice to the Vedic lore and humanity at large by interpreting ‘गो’ as cow or ox. (ii) cf. Pt. Bhagvaddatta, detailed commentary of this verse in his Nirukta Shastra wherein he has interpreted ‘गो’ as ray of light, giving ample proof in support of his interpretation from the Vedas, Brahmanas and Nirukta. In addition to the above (ill) in my view ‘गो’ can also be interpreted as ‘earth.’ See the 2nd version of the.verse above, (iv) I am surprised to find why the western scholars have rushed to interpret ‘गो’ as cow and ox. Why could not they see ‘इन्द्र धनुष’ as splitting of the various parts of the ray of light, accompanied by rain, as the right interpretation of 'गोर्न पर्व वि रदा। (v) Jaidev has interpreted ‘गो’ as Ved-vani also.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्र) प्रकर्षेण (भर) धर (तूतुजानः) तुज हिंसाबलादाननिकेतनेषु-कानच्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा०६।१।७। इति दीर्घः। तूतुजानः क्षिप्रनाम-निघ०२।१। त्वरमाण (ईशानः) ऐश्वर्यवान् (कियेधाः) म०६। कियतो महतो बलस्य धारकः (गोः) पृथिव्याः (न) इव (पर्व) पर्वाणि (वि) विविधम् (रद) रद विलेखने। विदारय (तिरश्चा) ऋत्विग्दधृक्०। पा०३।२।९। तिरस्+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। तिर्यग्गत्या (इष्यन्) गच्छन् (अर्णांसि) उदके च। उ०४।१७६। ऋ गतिप्रापणयोः-असुन् नुक् च। नयनानि (अपाम्) आपः, आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु०६।२७। प्रजानाम् (चरध्यै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३४।९। चरतेः-अध्यैप्रत्ययः। चरितुम्। गन्तुम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্মৈ) এই [সংসারের] জন্য (ইৎ) ই (উ) বিচারপূর্বক (তূতুজানঃ) শীঘ্রতার সহিত, (ঈশানঃ) ঐশ্বর্যবান্, (কিয়েধাঃ) কত পরিমান [শক্তি] ধারণকারী তুমি (বৃত্রায়) শত্রুতার জন্য (বজ্রম্) বজ্র [বিদ্যুতাদি শস্ত্র] (প্র) উত্তমরূপে (ভর) ধারণ করো । এবং (তিরশ্চা) তির্যক বা বক্র চালের সাথে (অর্ণাংসি) নিজের চালসমূহকে (ইষ্যন্) চালনা করে তুমি (অপাম্) প্রজাদের (চরধ্যৈ) চলার জন্য (পর্ব) [শত্রুর] পর্ব/সন্ধি (বি রদ) বিদারণ করো, (গোঃ ন) যেমন ভূমির [পর্ব কৃষক বিদারণ করে] ॥১২॥
भावार्थ
যেমন কৃষক পৃথিবীতে লাঙল করে, ঘাসাদি কেটে অন্ন উৎপন্ন করে সুখ দেন, তেমনই সভাধ্যক্ষ রাজা শত্রুদের ছিন্ন-ভিন্ন করে প্রজাদেরকে সুখী করে/করুক ॥১২॥
भाषार्थ
(অর্ণাংসিং) জল (ইষ্যন্) কামনা করে রাজা, পৃথিবীতে (অপাম্) জলের (বিচরধ্যৈ) বিচরনের জন্য, (তিরশ্চা) তির্যক (রদা) শস্ত্র দ্বারা (ন) যেমন (গোঃ) পৃথিবীর (পর্ব) অঙ্গ-সমূহ ছেদন করে, এবং পৃথিবীতলে নালা বা নদী রূপে জল প্রবাহিত করে, তেমনই হে উপাসক! (অস্মৈ ইৎ উ) এই পরমেশ্বরের প্রসন্নতার জন্য, (তূতুজানঃ) বল সংগ্রহ করে, এবং (কিয়েধাঃ) কত/অনেক ধারণ-পোষণ করে, (ঈশানঃ) ইন্দ্রিয়-সমূহ এবং মনের অধীশ্বর হয়ে তুমি, (বৃত্রায়) পাপ-বৃত্রের হননের জন্য (বজ্রম্) অসঙ্গরূপী দৃঢ় বজ্র (প্রভর) ধারণ করো, বা এই বজ্রের পাপ-বজ্র ওপর প্রহার করো।
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