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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 13
    ऋषिः - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५
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    अ॒स्येदु॒ प्र ब्रू॑हि पू॒र्व्याणि॑ तु॒रस्य॒ कर्मा॑णि॒ नव्य॑ उ॒क्थैः। यु॒धे यदि॑ष्णा॒न आयु॑धान्यृघा॒यमा॑णो निरि॒णाति॒ शत्रू॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ऊं॒ इंति॑ । प्र । ब्रू॒हि॒ । पू॒र्व्याणि॑ । तु॒रस्य॑ । कर्मा॑णि । नव्य॑: । उ॒थ्यै: ॥ यु॒धे । यत् । इ॒ष्णा॒न: । आयु॑धानि । ऋ॒धा॒यमा॑ण: । नि॒ऽरि॒णाति॑ ॥३५.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदु प्र ब्रूहि पूर्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः। युधे यदिष्णान आयुधान्यृघायमाणो निरिणाति शत्रून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । ऊं इंति । प्र । ब्रूहि । पूर्व्याणि । तुरस्य । कर्माणि । नव्य: । उथ्यै: ॥ युधे । यत् । इष्णान: । आयुधानि । ऋधायमाण: । निऽरिणाति ॥३५.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) उस (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (तुरस्य) शीघ्रता करनेवाले [सभापति] के (पूर्व्याणि) पहिले किये हुए (कर्माणि) कामों को (प्र) अच्छे प्रकार (ब्रूहि) तू कह, (उक्थैः) कहने योग्य वचनों से (नव्यः) स्तुतियोग्य होकर, (युधे) युद्ध के लिये (आयुधानि) हथियारों को (इष्णानः) बार-बार चलाता हुआ और (ऋघायमाणः) बढ़ता हुआ [बे-रोक चलता हुआ] (यत्) जो [सभापति] (शत्रून्) वैरियों को (निरिणाति) मारता जाता है ॥१३॥

    भावार्थ

    जो सभाध्यक्ष सेनापति शस्त्र-अस्त्र विद्या में चतुर और विजयी शूर होवें, विद्वान् लोग उसके विद्या, विनय, वीरता आदि गुणों की बड़ाई करके उसका मान और उत्साह बढ़ावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १३−(अस्य) सभापतेः (इत्) (उ) (प्र) प्रकर्षेण (ब्रूहि) कथय (पूर्व्याणि) पूर्व्यं पुराणनाम-निघ०३।२७। पुराणानि (तुरस्य) तुरमाणस्य (कर्माणि) वीरकर्माणि (नव्यः) अ०२।।२। अचो यत्। पा०३।१।९७। णु स्तुतौ-यत्। (उक्थैः) पातॄतुदिवचि०। उ०२”।७। वच परिभाषणे थक्। वक्तुं योग्यैर्वचनैः (युधे) युद्धाय (यत्) यः सेनापतिः (इष्णानः) इष आभीक्ष्ण्ये-शानच्। वारं-वारं प्रेरयन् (आयुधानि) शस्त्राणि (ऋघायमाणः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा०३।१।१३। ऋधु वृद्धौ-क, धस्य घः। लोहितादिडाज्भ्यः क्यच्। पा०३।१।१३। ऋध-भवत्यर्थे-क्यच्, शानच्। ऋध ऋधो वृद्धो भवतीति। प्रवर्धमानः। अप्रतिहतगतिः (निरिणाति) री गतिरेषणयोः श्ना। प्वादीनां ह्रस्वः। पा०७।३।८०। इति ह्रस्वः। निरन्तरं हिनस्ति (शत्रून्) वैरिणो दुष्टान् ॥

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    विषय

    शत्रुसंहार के लिए अस्त्र-प्राप्ति

    पदार्थ

    १.(अस्य) = इस (तुरस्य) = त्वरा से कार्यों को करनेवाले अथवा शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभु के (इत् उ) = ही निश्चय से (पूर्व्याणि) = पालन व पूरण में उत्तम (कर्माणि) = कमों को (प्रवहि) = व्यक्त रूप से कहनेवाला बन। ये प्रभु ही (उक्थैः) = स्तोत्रों के द्वारा (नव्य) = स्तुतिके योग्य हैं। प्रभु का ही स्तवन करना योग्य है। २. वे प्रभु ही (युधे) = वासनाओं के साथ संग्राम के लिए (यत्) = जब (आयुधानि) = 'ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप आयुधों को (इष्णान:) = प्रेरित करते हैं तब (शत्रून् ऋघायमाण:) = शत्रुओं को हिंसित करते हुए (निरिणाति) = [Drive out, expel] हमारे जीवनों से बाहिर कर देते हैं। प्रभु हमें इन्द्रियाँ, मन व बुद्धिरूप अस्त्रों को प्राप्त कराके इस योग्य बनाते हैं कि हम वासनारूप शत्रुओं को अपने से दूर कर सकें।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (नव्यः) आप ही स्तुति के योग्य हैं। आप, (तुरस्य) आध्यात्ममार्ग पर शीघ्रकारी (अस्य इत् उ) इस उपासक के प्रति, (उक्थैः) वैदिक-सूक्तियों द्वारा, (पूर्व्याणि) अनादिकाल से प्राप्त (कर्माणि) सत्कर्मों का (प्रब्रूहि) उपदेश कीजिए, (यद्) क्योंकि यह (ऋघायमाणः) आसुरी प्रवृत्तियों का विनाश चाहता हुआ, तदर्थ (आयुधानि) तदुपयोगी आयुधों को (इष्णानः) चाहता हुआ, (युधे) देवासुर-संग्राम में (शत्रून्) आसुरी शत्रुओं का (निरिणाति) वध करता है।

    टिप्पणी

    [ऋघायमाणः=ऋ (रेषणे)+घ (हन्)+क्यच्+शानच्।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Sing and celebrate the old and new exploits of this fast and powerful Indra in songs of praise, Indra who, passionate and tempestuous, updating and wielding the weapons for battle, strikes and destroys the enemies.

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    Translation

    O man, you the praiseworthy one praise with praising adorations the exploits of swiftly pervading God which are performed with perfect wisdom. When He for pervading all continues exertion, destroys those clouds, which are the enemies of rain going forward unchecked.

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    Translation

    O man, you the praiseworthy one praise with praising adorations the exploits of swiftly pervading God which are performed with perfect wisdom. When He for pervading all continues exertion, destroys those clouds, which are the enemies of rain going forward unchecked.

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    Translation

    O learned person, when this king speedily goes forth to wage war, using deadly weapons and crushing the enemy, progresses further, thoroughly exposing the valorous deeds of his forefathers, as he is worthy of such praise. Or, In the case of waging war with internal enemies of man, i.e., lust, anger, greed, indulgence and vanity, when a person earnestly sets forth on this path of conquest, using various means of overpowering these internal enemies and vanquishes them and moves on further, on the path of virtue let the learned person thoroughly lay the exposition of the previous deeds of the creation of the universe by God, for it is He, Who alone is worthy to be praised.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(अस्य) सभापतेः (इत्) (उ) (प्र) प्रकर्षेण (ब्रूहि) कथय (पूर्व्याणि) पूर्व्यं पुराणनाम-निघ०३।२७। पुराणानि (तुरस्य) तुरमाणस्य (कर्माणि) वीरकर्माणि (नव्यः) अ०२।।२। अचो यत्। पा०३।१।९७। णु स्तुतौ-यत्। (उक्थैः) पातॄतुदिवचि०। उ०२”।७। वच परिभाषणे थक्। वक्तुं योग्यैर्वचनैः (युधे) युद्धाय (यत्) यः सेनापतिः (इष्णानः) इष आभीक्ष्ण्ये-शानच्। वारं-वारं प्रेरयन् (आयुधानि) शस्त्राणि (ऋघायमाणः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा०३।१।१३। ऋधु वृद्धौ-क, धस्य घः। लोहितादिडाज्भ्यः क्यच्। पा०३।१।१३। ऋध-भवत्यर्थे-क्यच्, शानच्। ऋध ऋधो वृद्धो भवतीति। प्रवर्धमानः। अप्रतिहतगतिः (निरिणाति) री गतिरेषणयोः श्ना। प्वादीनां ह्रस्वः। पा०७।३।८०। इति ह्रस्वः। निरन्तरं हिनस्ति (शत्रून्) वैरिणो दुष्टान् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অস্য) সেই (ইৎ)(উ) বিচারপূর্বক (তুরস্য) শীঘ্রকারী [সভাপতির] (পূর্ব্যাণি) পূর্বকৃত (কর্মাণি) কর্মসমূহ (প্র) উত্তমরূপে (ব্রূহি) তুমি বলো, (উক্থৈঃ) কথন যোগ্য বচনসমূহ দ্বারা (নব্যঃ) স্তুতিযোগ্য হয়ে, (যুধে) যুদ্ধের জন্য (আয়ুধানি) অস্ত্র-শস্ত্র (ইষ্ণানঃ) বার-বার চালনা করে এবং (ঋঘায়মাণঃ) বর্ধায়মান [অপ্রতিহত হয়ে] (যৎ) যে [সভাপতি] (শত্রূন্) শত্রুদের (নিরিণাতি) নিরন্তর হনন করে ॥১৩॥

    भावार्थ

    যে সভাধ্যক্ষ সেনাপতি শস্ত্র-অস্ত্র বিদ্যায় চতুর এবং বিজয়ী বীর হন, বিদ্বানগণ তাঁর বিদ্যা, বিনয়, বীরত্ব আদি গুণ বর্ধিত করে তাঁর মান ও উৎসাহ বৃদ্ধি করবেন/করুক ॥১৩॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (নব্যঃ) আপনিই স্তুতিযোগ্য। আপনি, (তুরস্য) আধ্যাত্মমার্গে শীঘ্রকারী (অস্য ইৎ উ) এই উপাসকের প্রতি, (উক্থৈঃ) বৈদিক-সূক্তি-সমূহ দ্বারা, (পূর্ব্যাণি) অনাদিকাল থেকে প্রাপ্ত (কর্মাণি) সৎকর্মের (প্রব্রূহি) উপদেশ করেন, (যদ্) কেননা এই [উপাসক] (ঋঘায়মাণঃ) আসুরিক প্রবৃত্তি-সমূহ বিনাশ করে, তদর্থে (আয়ুধানি) তদুপযোগী আয়ুধ (ইষ্ণানঃ) কামনা করে, (যুধে) দেবাসুর-সংগ্রামে (শত্রূন্) আসুরিক শত্রুদের (নিরিণাতি) বধ করে।

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