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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५
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    अ॒स्मा इदु॒ त्वष्टा॑ तक्ष॒द्वज्रं॒ स्वप॑स्तमं स्व॒र्यं रणा॑य। वृ॒त्रस्य॑ चिद्वि॒दद्येन॒ मर्म॑ तु॒जन्नीशा॑नस्तुज॒ता कि॑ये॒धाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्वष्टा॑ । त॒क्ष॒त् । वज्र॑म् । स्वप॑:ऽतमम् । स्व॒र्य॑म् । रणा॑य ॥ वृ॒त्रस्य॑ । चि॒त् । वि॒दत् । येन॑ । मर्म॑ । तु॒जन् । ईशा॑न: । तु॒ज॒ता । कि॒ये॒धा: ॥३५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु त्वष्टा तक्षद्वज्रं स्वपस्तमं स्वर्यं रणाय। वृत्रस्य चिद्विदद्येन मर्म तुजन्नीशानस्तुजता कियेधाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । इत् । ऊं इति । त्वष्टा । तक्षत् । वज्रम् । स्वप:ऽतमम् । स्वर्यम् । रणाय ॥ वृत्रस्य । चित् । विदत् । येन । मर्म । तुजन् । ईशान: । तुजता । कियेधा: ॥३५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्मै) इस [संसार] के हित के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (त्वष्टा) सूक्ष्म करनेवाले [सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा सभापति] ने (स्वपस्तमम्) अत्यन्त सुन्दर रीति से काम सिद्ध करनेवाला, (स्वर्यम्) सुख देनेवाला (वज्रम्) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] (रणाय) रण जीतने को (तक्षत्) तीक्ष्ण किया है। (तुजता येन) जिस काटनेवाले [वज्र] से (वृत्रस्य) वैरी के (मर्म) मर्म [जीवन स्थान] को (चित्) ही (तुजन्) छेद कर (ईशानः) ऐश्वर्यवान्, (कियेधाः) कितने [अर्थात् बड़े बल] के धारण करनेवाले [उस सभापति] ने (विदत्) पाया है ॥६॥

    भावार्थ

    सभापति राजा तीक्ष्ण-तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को दण्ड देकर प्रजा को आनन्द देवें ॥६॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र का मिलान करो-अ०२।।६॥६−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (त्वष्टा) अ०२।।६। त्वक्षू तनूकरणे-तृन्। व्यवहाराणां तनूकर्ता सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा (तक्षत्) तक्षू तनूकरणे-लङ्। अतक्षत्। तीक्ष्णमकरोत् (वज्रम्) विद्युदादिशस्त्रसमूहम् (स्वपस्तमम्) अपः कर्मनाम-निघ०२।१। सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात् तम् (स्वर्यम्) अ०२।।६। स्वः-यत्। सुखे साधुम् (रणाय) रणं युद्धं जेतुम् (वृत्रस्य) शत्रोः (चित्) एव (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। अविदत्। लब्धवान् (येन) वज्रेण (मर्म) अ०।८।९। सन्धिस्थानं जीवस्थानम् (तुजन्) तुज हिंसायाम्-शतृ, शपि प्राप्ते छान्दसः शः। हिंसन् (ईशानः) ऐश्वर्यवान् (तुजता) छेदकेन (कियेधाः) कियत्+दधातेर्विच्, कियतः किये भावः। कियेधाः कियद्धा इति वा क्रममाणधा इति वा-निरु०६।२०। कियतो महतो बलस्य धारकः ॥

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    विषय

    "स्वपस्तम स्वर्य' वज्र

    पदार्थ

    १. (त्वष्टा) = वह देवशिल्पी प्रभु (अस्मा इत्) = इस उपासक के लिए निश्चय से (वज्रम्) = क्रियाशीलता रूप वन को (तक्षत्) = निर्मित करता है। यह वन (स्वपस्तमम्) = अतिशयेन उत्कृष्ट कौवाला है तथा (स्वर्यम्) = स्तुत्य व शत्रुओं को सन्तप्त करनेवाला है ['स्व' शब्दोपतापयोः] । इसप्रकार उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करके तथा शत्रुओं को विनष्ट करके यह वज्र (रणाय) = जीवन की रमणीयता के लिए होता है। २. यह (कियेथाः) = [क्रममाणधा: नि ६.२०] आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का निग्रह करनेवाला, (ईशान:) = जितेन्द्रिय पुरुष (तुजता येन) = शत्रुओं का संहार करनेवाले जिस वज्र के द्वारा (तुजन्) = शत्रुसंहार करता हुआ (चित्) = निश्चय से (वृत्रस्य) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के (मर्म विदत्) = मर्मस्थल को प्राप्त करता है। वृत्र के मर्म पर प्रहार करता हुआ यह वृत्र का विनाश कर डालता है। वृत्र-विनाश से ही अपने जीवन में उत्तम कर्मों को करता हुआ प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमें क्रियाशीलतारूप वन प्राप्त कराते हैं। इसके द्वारा बासनाओं को विनष्ट करके हम रमणीय जीवनवाले बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (अस्मै इत् उ) इस ही परमेश्वर की आज्ञा के पालन के लिए, (त्वष्टा) वायु, (स्वपस्तमम्) सर्वोत्तम जल देनेवाले, (स्वर्यम्) आकाशीय उपतापी (वज्रम्) वैद्युत-वज्र का (तक्षत्) निर्माण करता है, (रणाय) ताकि जल को रोकनेवाले मेघ के साथ युद्ध किया जा सके। (ईशानः चित्त्) शासन करनेवाला चेतन परमेश्वर (येन तुजता) जिस हिंस्र वैद्युतवज्र द्वारा, (वृत्रस्य) जल को घेरे हुए मेघ के (मर्म) मर्मस्थल को (तुजन्) हिंसित करता है, उस वज्र को (विदत्) प्राप्त करके परमेश्वर (कियेधाः) कितने ही प्राणियों का धारण-पोषण करता है।

    टिप्पणी

    [त्वष्टा=माध्यमिकः त्वष्टेत्याहुः, मध्यमे च स्थाने समाम्नातः (निरु० ८.२.१४)। अतः त्वष्टा=वायुः। (स्वपस्तमम्=सु+अपः) (जल, निघं० १.१२)+तमप्। स्वर्यम्=स्वः (आकाश ; उपतापे (स्वृ)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Let Tvashta, the Maker, design and form for this Indra, ruling Lord of power and defence, the thunderbolt of lightning force blazing for the battle so that he (Indra), striking with this fatal weapon, taking many enemies on, may reach the mortal centrespot of Vrtra, the cloud of darkness and ignorance (and release the showers of rain and prosperity and the light of knowledge).

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    Translation

    For this Almighty Divinity alone Tvastar, the sun, for fighting the battle sharpens or fashions inflaming and most effective thunder through which destructive one becoming powerful and possessing various strength piercing the vital part of Vritya the cloud and obtain rain.

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    Translation

    For this Almighty Divinity alone Tvastar, the sun, for fighting the battle sharpens or fashions inflaming and most effective thunder through which destructive one becoming powerful and possessing various strength piercing the vital part of Vritya the cloud and obtain rain.

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    Translation

    Just as a mechanic manufactures a missile, with, the deadly smashing power, and of a good craftsmanship, capable of flying through the sky in a war, for this king, who, striking at the vital points of the enemy and crushing him in various ways and thus overpowering him, attains glory, so does a yogi develops such a spiritual force for the attainment of the Almighty by his virtuous deeds, as enables him to revel in His Bliss, after crushing the evil forces of sin and ignorance in various ways and thus gaining, self-control attains the highest state of salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र का मिलान करो-अ०२।।६॥६−(अस्मै) संसारहिताय (इत्) एव (उ) वितर्के (त्वष्टा) अ०२।।६। त्वक्षू तनूकरणे-तृन्। व्यवहाराणां तनूकर्ता सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा (तक्षत्) तक्षू तनूकरणे-लङ्। अतक्षत्। तीक्ष्णमकरोत् (वज्रम्) विद्युदादिशस्त्रसमूहम् (स्वपस्तमम्) अपः कर्मनाम-निघ०२।१। सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात् तम् (स्वर्यम्) अ०२।।६। स्वः-यत्। सुखे साधुम् (रणाय) रणं युद्धं जेतुम् (वृत्रस्य) शत्रोः (चित्) एव (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। अविदत्। लब्धवान् (येन) वज्रेण (मर्म) अ०।८।९। सन्धिस्थानं जीवस्थानम् (तुजन्) तुज हिंसायाम्-शतृ, शपि प्राप्ते छान्दसः शः। हिंसन् (ईशानः) ऐश्वर्यवान् (तुजता) छेदकेन (कियेधाः) कियत्+दधातेर्विच्, कियतः किये भावः। कियेधाः कियद्धा इति वा क्रममाणधा इति वा-निरु०६।२०। कियतो महतो बलस्य धारकः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অস্মৈ) এই [সংসারের] হিতের জন্য (ইৎ)(উ) বিচারপূর্বক (ত্বষ্টা) সূক্ষ্মকারী [সূক্ষ্মদর্শী বিশ্বকর্মা সভাপতি] (স্বপস্তমম্) অত্যন্ত সুন্দর রীতিতে কার্যসিদ্ধকারী, (স্বর্যম্) সুখ প্রদায়ী (বজ্রম্) বজ্র [বিদ্যুতাদি শস্ত্র] (রণায়) রণ/যুদ্ধ জয়ের জন্য (তক্ষৎ) তীক্ষ্ণ করা হয়েছে। (তুজতা যেন) যে ছেদনকারী [বজ্র] দ্বারা (বৃত্রস্য) বৈরী/শত্রুর (মর্ম) মর্ম [জীবন স্থান] (চিৎ)(তুজন্) ছেদন করে (ঈশানঃ) ঐশ্বর্যবান, (কিয়েধাঃ) কত [অর্থাৎ শক্তি] ধারণকারী [সেই সভাপতি] (বিদৎ) প্রাপ্ত করেছে ॥৬॥

    भावार्थ

    সভাপতি রাজা তীক্ষ্ণ-তীক্ষ্ণ অস্ত্র-শস্ত্র দ্বারা শত্রুদের শাস্তি দিয়ে প্রজাকে আনন্দ দেন ॥৬॥ এই মন্ত্র মেলাও— অ০ ২।৬।৬।

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    भाषार्थ

    (অস্মৈ ইৎ উ) এই পরমেশ্বরের আজ্ঞা পালনের জন্য, (ত্বষ্টা) বায়ু, (স্বপস্তমম্) সর্বোত্তম জল প্রদায়ী, (স্বর্যম্) আকাশীয় উপতাপী (বজ্রম্) বৈদ্যুত-বজ্রের (তক্ষৎ) নির্মাণ করে, (রণায়) যাতে জল নিবারক মেঘের সাথে যুদ্ধ করা যেতে পারে। (ঈশানঃ চিত্ত্) শাসনকারী চেতন পরমেশ্বর (যেন তুজতা) যে হিংস্র বৈদ্যুতবজ্র দ্বারা, (বৃত্রস্য) জলকে ঘিরে থাকা মেঘের (মর্ম) মর্মস্থলকে (তুজন্) হিংসিত করে, সেই বজ্র (বিদৎ) প্রাপ্ত করে পরমেশ্বর (কিয়েধাঃ) কতই প্রাণীদের ধারণ-পোষণ করেন।

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