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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    शा॑र॒दौ मासौ॑गो॒प्तारा॒वकु॑र्वञ्छ्यै॒तं च॑ नौध॒सं चा॑नुष्ठा॒तारौ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शा॒र॒दौ । मासौ॑ । गो॒प्तारौ॑ । अकु॑र्वन् । श्यै॒तम् । च॒ । नौ॒ध॒सम् । च॒ । अ॒नु॒ऽस्था॒तारौ॑ ॥४.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शारदौ मासौगोप्तारावकुर्वञ्छ्यैतं च नौधसं चानुष्ठातारौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शारदौ । मासौ । गोप्तारौ । अकुर्वन् । श्यैतम् । च । नौधसम् । च । अनुऽस्थातारौ ॥४.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के रक्षा गुण का उपदेश।

    पदार्थ

    (शारदौ) शरद् ऋतुवाले [आश्विन-कार्तिक] (मासौ) दो महीनों को (गोप्तारौ) दो रक्षक (अकुर्वन्) उन [विद्वानों] ने बनाया, (च) और (श्यैतम्) श्यैत [सद्गति बतानेवाले वेदज्ञान] को (च) और (नौधसम्) नौधस [ऋषियों के हितकारी मोक्षज्ञान] को (अनुष्ठातारौ) दोअनुष्ठाता [साथ रहनेवाले वा कार्यसाधक] [बनाया] ॥११॥

    भावार्थ

    मन्त्र १-३ के समान है॥१०-–१२॥

    टिप्पणी

    ११, १२−(शारदौ) शरत्सम्बन्धिनावाश्विनकार्त्तिकौ (श्यैतम्) सू० २।२२। श्येत-अण्। श्येतस्य सद्गतेःप्रतिपादकं वेदज्ञानम् (नौधसम्) सू० २।२२। नोधस्-अण्। नोधसाम् ऋषीणां हितकरंमोक्षज्ञानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    उदीच्याः दिशः

    पदार्थ

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (उदीच्याः दिश:) = उत्तर दिशा से सब देवों ने (शारदौ मासौ) = शरद् ऋतु के दो मासों को (गोसतारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाया, (च) = तथा (श्यैतम्) = क्रियाशीलता को (नौधसं च) = और प्रभु-स्तवन को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाया। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार क्रियाशीलता व प्रभु-स्तवन के महत्त्व को समझता है (एनम्) = इस व्रात्य विद्वान् की (उदीच्या: दिश:) = उत्तर दिशा से (शारदौ मासौ) = शरद् ऋतु के दो मास (गोपायत:) = रक्षित करते हैं (च) = और (श्यैतं नौधसं च) = क्रियाशीलता व प्रभु-स्तवन विहित कार्यों के सिद्ध करने में प्रवृत्त करते हैं।

    भावार्थ

    व्रात्य विद्वान् उत्तर दिशा की ओर से शरद् ऋतु के दो मासों से रक्षित किया जाता है तथा क्रियाशीलता व प्रभु-स्तवन इसे विहितकार्यों के अनुष्ठान में प्रवृत्त करते हैं।

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    भाषार्थ

    (शारदौ) शरद्ऋतुसम्बन्धी (मासौ) दो मासों को [वैदिक विधियों ने] (गौप्तारौ) रक्षक (अकुर्वन्) निर्दिष्ट किया है, (श्यैतम् च) और श्यैतनामक सामगान को (नौधसम् च) तथा नौधसनामक सामगान को (अनुष्ठातारौ) व्रात्य संन्यासी के अनुष्ठानों को सिद्ध करने वाला निर्दिष्ट किया है।

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का राजतन्त्र।

    भावार्थ

    (उदीच्या दिशः) उत्तर दिशा से (तस्मै) उस व्रात्य प्रजापति के लिये (शारदौ मासौ) शरद ऋतु के दोनों मासों को (गोप्तारौ) रक्षक (अकुर्वन्) बनाया। (श्यैतं च नौधसं च अनुष्ठातारौ) श्यैत और नौधस दोनों को उसके आज्ञा पालक भृत्य कल्पित किया। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार नात्य प्रजापति के स्वरूप को साक्षात् करता है (एनं) उसको (शारदौ मासौ) शरद ऋतु के दोनों मास (उदीच्याः दिशः) उत्तर दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं। (श्यैतं च नौघसं च) श्येत और नौधस दोनों (अनु तिष्ठतः) उसकी सेवा करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १, ५, ६ (द्वि०) दैवी जगती, २, ३, ४ (प्र०) प्राजापत्या गायत्र्य, १ (द्वि०), ३ (द्वि०) आर्च्यनुष्टुभौ, १ (तृ०), ४ (तृ०) द्विपदा प्राजापत्या जगती, २ (द्वि०) प्राजापत्या पंक्तिः, २ (तृ०) आर्ची जगती, ३ (तृ०) भौमार्ची त्रिष्टुप, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, ५ (द्वि०) प्राजापत्या बृहती, ५ (तृ०), ६ (तु०) द्विपदा आर्ची पंक्तिः, ६ (द्वि०) आर्ची उष्णिक्। अष्टादशर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The Devas made the two autumn months his security guards, and Shaitam and Naudhasam, his assistants to carry out his will and command.

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    Translation

    They made the two autumn months protectors and the syaita and the naudhasa Sámans attenadants.

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    Translation

    Make the two months of autumn season protectros and Shyeta and Naudhasa Saman the superintendents.

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    Translation

    The two Autumn months protect him from the northern, Vedic knowledge and the knowledge of salvation serve the man who possesses this knowledge of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११, १२−(शारदौ) शरत्सम्बन्धिनावाश्विनकार्त्तिकौ (श्यैतम्) सू० २।२२। श्येत-अण्। श्येतस्य सद्गतेःप्रतिपादकं वेदज्ञानम् (नौधसम्) सू० २।२२। नोधस्-अण्। नोधसाम् ऋषीणां हितकरंमोक्षज्ञानम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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