अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
वा॑स॒न्तौ मासौ॑गो॒प्तारा॒वकु॑र्वन्बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रं चा॑नुष्ठा॒तारौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒स॒न्तौ । मासौ॑ । गो॒प्तारौ॑ । अकु॑र्वन् । बृ॒हत् । च॒ । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । च॒ । अ॒नु॒ऽस्था॒तारौ॑ ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वासन्तौ मासौगोप्तारावकुर्वन्बृहच्च रथन्तरं चानुष्ठातारौ ॥
स्वर रहित पद पाठवासन्तौ । मासौ । गोप्तारौ । अकुर्वन् । बृहत् । च । रथम्ऽतरम् । च । अनुऽस्थातारौ ॥४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के रक्षा गुण का उपदेश।
पदार्थ
(वासन्तौ) वसन्तऋतुवाले [चैत्र-वैशाख] (मासौ) दो महीनों को (गोप्तारौ) दो रक्षक (अकुर्वन्) उन [विद्वानों] ने बनाया, (बृहत्) बृहत् [बड़े आकाश] (च च) और (रथन्तरम्) रथन्तर [रमणीय गुणों द्वारा पार होने योग्य जगत्] को (अनुष्ठातारौ) दो अनुष्ठाता [साथरहनेवाला वा विहित कार्यसाधक] [बनाया] ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग निश्चयकरके मानते हैं कि जो मनुष्य परमात्मा में विश्वास करता है, वह पुरुषार्थी जनपूर्वादि दिशाओं और वसन्त आदि ऋतुओं में सुरक्षित रहता है ॥१-३॥
टिप्पणी
२−(वासन्तौ)वसन्तसम्बन्धिनौ चैत्रवैशाखौ (मासौ) (गोप्तारौ) रक्षकौ (अकुर्वन्) ते विद्वांसःकृतवन्तः (बृहत्) प्रवृद्धमाकाशम् (च) (रथन्तरम्) रमणीयगुणैस्तरणीयं जगत् (च) (अनुष्ठातारौ) सहवर्तमानौ। विहितकर्मसाधकौ ॥
विषय
प्राच्याः दिशः
पदार्थ
१. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्राच्याः दिश:) = पूर्व दिशा से सब देव (वासन्तौ मासौ) = वसन्त ऋतु के दो मासों को (गोसारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाते हैं (च) = तथा (बृहत् रथन्तरं च) = हदय की विशालता तथा शरीर-रथ से जीवन-यात्रा को पूर्ण करने की प्रवृत्ति को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाते हैं। (एनम्) = इस व्रात्य को (वासन्तौ मासौ) = वसन्त ऋतु के दो मास (प्राच्याः दिशः गोपायत:) = पूर्व दिशा से रक्षित करते हैं (च) = तथा (बृहत् रथन्तरं च) = हृदय की विशालता तथा शरीर-रथ से भव-सागर को तैरने की प्रवृत्ति (अनुतिष्ठत:) = उसके कर्तव्य-कर्मों को करनेवाले होते हैं। इस व्यक्ति के ये कर्तव्य साधक होते हैं, (य:) = जो (एवं वेद) = इस तत्त्व को समझ लेता है, वह 'बृहत् और रथन्तर' के महत्त्व को जान लेता है।
भावार्थ
व्रात्य को वसन्त के दो मास पूर्व दिशा से रक्षित करते हैं और बृहत् तथा रथन्तर' इसे कर्तव्य-कर्मों में प्रवृत्त करते हैं।
भाषार्थ
(वासन्तौ) वसन्तऋतु सम्बन्धी (मासौ) दो मासों को [वैदिक विधियों ने] (गोप्तारौ) व्रात्य संन्यासी के लिये रक्षक (अकुर्वन्) निर्दिष्ट किया है, (बृहत् च) और बृहत् नाम वाले सामगान को (रथन्तरम् च) तथा रथन्तर नाम वाले सामगान को (अनुष्ठातारौ) व्रात्य-संन्यासी के (अनुष्ठातारौ) अनुष्ठानों को सिद्ध करने वाला निर्दिष्ट किया है।
टिप्पणी
[व्याख्या – व्रात्य संन्यासी ऋतुमयी-तथा-वेदमयी आसन्दी (सूक्त ३) पर स्थित हो कर जीवन्मुक्त की अवस्था में जब पहुंच जाता है, तब उस की मृत्यु या मोक्ष में केवल काल की ही प्रतीक्षा रहती है। इस के लिये किसी अन्य नई साधना की प्रतीक्षा अवशिष्ट नहीं होती। इस लिये जीवन्मुक्त के जीवन को बनाएं रखने में केवल काल ही कारण होता है। जन्म, जीवन तथा मृत्यु का काल के साथ सम्बन्ध अवश्यंभावी है। इसलिये मन्त्र में ऋतुओं को अर्थात् काल को गोप्ता कहा है। "तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ" (छां० उ० ६।१४।२)। जीवन्मुक्त भी जब तक जीवित रहता है निज अनुष्ठानों को करता रहता है। भक्ति के सामगान उसके अनुष्ठानों में सहायक होते हैं। इसलिये ये सामगान तब तक चलते रहते हैं जब तक की व्रात्य जीवित रहता है। ऐसो ही भावना अगले मन्त्रों में भी जाननी चाहिये। वासन्तमास= चैत्र, वैशाख। “बृहत्-रथन्तर", चैत्र और वैशाख मासों के सामगान हैं जोकि वसन्त ऋतु के अनुकूल हैं। इसी प्रकार अगले मन्त्रों में निर्दिष्ट सामगान भी कथित ऋतुओं तथा प्रदेशों के अनुकूलरूप जानने चाहिये।]
विषय
व्रात्य प्रजापति का राजतन्त्र।
भावार्थ
(प्राच्याः दिशः) प्राची दिशा में (तस्मै) उस व्रात्य के (वासन्तौ मासौ) वसन्त ऋतु के दोनों मासों को (गोप्तारौ अकुर्वन्) देवों ने रक्षक कल्पित किया। (बृहत् च रथन्तरं च) बृहत् और रथन्तर दोनों को (अनुष्ठातारौ) अनुष्ठाता, कर्मकर भृत्य या सेवक कल्पित किया। (यः एवं वेद) जो पुरुष व्रात्य प्रजापति के इस स्वरूप का भली प्रकार साक्षात् कर लेता है (एनं) उसको (वासन्तौ मासौ) वसन्त के दोनों मास (प्राच्या दिशः) प्राची दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं। (बृहत् च) बृहत् और (रथन्तरं च) रथन्तर दोनों (अनु तिष्ठतः) उसकी सेवा करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ५, ६ (द्वि०) दैवी जगती, २, ३, ४ (प्र०) प्राजापत्या गायत्र्य, १ (द्वि०), ३ (द्वि०) आर्च्यनुष्टुभौ, १ (तृ०), ४ (तृ०) द्विपदा प्राजापत्या जगती, २ (द्वि०) प्राजापत्या पंक्तिः, २ (तृ०) आर्ची जगती, ३ (तृ०) भौमार्ची त्रिष्टुप, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, ५ (द्वि०) प्राजापत्या बृहती, ५ (तृ०), ६ (तु०) द्विपदा आर्ची पंक्तिः, ६ (द्वि०) आर्ची उष्णिक्। अष्टादशर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The Devas made the two spring months his security guards, and Brhat and Rathantara Samans, his assistants to carry out his will and command.
Translation
They made the two spring-months protectors and the brhat and the rathantara Samans attendants.
Translation
Make two months of spring season the protectors and Brihat and Rathantara Saman superintends.
Translation
The two spring months protect from the eastern region, and atmosphere and the world conquerable through noble traits serve the man who possesses this knowledge of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(वासन्तौ)वसन्तसम्बन्धिनौ चैत्रवैशाखौ (मासौ) (गोप्तारौ) रक्षकौ (अकुर्वन्) ते विद्वांसःकृतवन्तः (बृहत्) प्रवृद्धमाकाशम् (च) (रथन्तरम्) रमणीयगुणैस्तरणीयं जगत् (च) (अनुष्ठातारौ) सहवर्तमानौ। विहितकर्मसाधकौ ॥
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