अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदार्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
शै॑शि॒रावे॑नं॒मासा॑वू॒र्ध्वाया॑ दि॒शो गो॑पायतो॒ द्यौश्चा॑दि॒त्यश्चानु॑ तिष्ठतो॒ य ए॒वं वेद॑॥
स्वर सहित पद पाठशै॒शि॒रौ । ए॒न॒म् । मासौ॑ । ऊ॒र्ध्वाया॑: । दि॒श: । गो॒पा॒य॒त॒: । द्यौ: । च॒ । आ॒दि॒त्य: । च॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒त॒: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
शैशिरावेनंमासावूर्ध्वाया दिशो गोपायतो द्यौश्चादित्यश्चानु तिष्ठतो य एवं वेद॥
स्वर रहित पद पाठशैशिरौ । एनम् । मासौ । ऊर्ध्वाया: । दिश: । गोपायत: । द्यौ: । च । आदित्य: । च । अनु । तिष्ठत: । य: । एवम् । वेद ॥४.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के रक्षा गुण का उपदेश।
पदार्थ
(शैशिरौ) शिशिरवाले (मासौ) दोनों महीने (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊँची दिशा से (एनम्) उस [विद्वान्] की (गोपायतः) रक्षा करते हैं, (च) और [दोनों] (द्यौः) आकाश (च) और (आदित्यः) सूर्य [उसके लिये] (अनु तिष्ठतः) विहित कर्म करते हैं, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्)व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥१८॥
भावार्थ
मन्त्र १-३ के समान है॥१६-१८॥
टिप्पणी
१७, १८−(शिशिरौ) शिशिरअण्। शिशिरसम्बन्धिनौ माघफाल्गुनौ (दिवम्) आकाशम् (आदित्यम्) आदीप्यमानंसूर्यम्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
ऊर्ध्वाया: दिशः
पदार्थ
१. (तस्मै) = उस व्रात्य विद्वान् के लिए (ऊर्ध्वाया: दिश:) = ऊर्ध्वा दिशा से सब देवों ने (शैशिरौ मासौ) = शिशिर ऋतु के दो मासों को (गोप्तारौ अकुर्वन्) = रक्षक बनाया। (दिवं च आदित्यं च) = मस्तिष्करूप धुलोक को तथा ज्ञानरूप आदित्य को (अनुष्ठातारौ) = विहित कार्यसाधक बनाया। (यः) = जो विद्वान् (एवं वेद) = इसप्रकार ज्ञानसम्पन्न मस्तिष्क के महत्त्व को समझता है (एनम्) = इस व्रात्य को (शैशिरौ मासौ) = शिशिर ऋतु के दो मास (ऊर्ध्वाया: दिश:) = ऊर्ध्वा दिक् से (गोपायत:) = रक्षित करते हैं (च) = तथा (द्यौः आदित्यः च) = मस्तिष्क तथा ज्ञान [धी:-विद्या] (अनुतिष्ठत:) = इसके सब विहित कार्यों को सिद्ध करते है। यह ज्ञान-सम्पन्न मस्तिष्क से पवित्र कार्यों का ही सम्पादन करनेवाला होता है।
भावार्थ
ऊर्ध्वा दिक् से शिशिर के दो मास व्रात्य विद्वान् की रक्षा करते हैं और यह व्रात्य विद्वान् ज्ञानसम्पन्न मस्तिष्क से विहित कार्यों का सम्पादन करता है।
विशेष
सम्पूर्ण सूक्त का सार यह है कि व्रात्य विद्वान् सब कालों में स्वस्थ जीवनवाला होता हुआ अपने जीवन में 'ज्ञान, कर्म व उपासना' का समन्वय करता हुआ शास्त्रविहित कर्तव्यों के अनुष्ठान में तत्पर रहता है।
भाषार्थ
(शैशिरौ) शिशिर ऋतुसम्बन्धी (मासौ) दो मास (एनम्) इस श्रद्धालु की (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊपर की दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं, (द्यौः च) और द्युलोक (आदित्यः च) तथा आदित्य (अनु तिष्ठतः) इस के अनुष्ठानों में सहायक होते हैं (यः) जो व्यक्ति कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार जीवनचर्या करता है।
टिप्पणी
[दिवम्, द्यौः, आदित्यः= व्रती और परहितकारी संन्यासी, -रात्रि काल में नक्षत्रताराजटित द्युलोक की परमेश्वरीय विभूतियों का, तथा दिन में ताप-प्रकाश द्वारा जीवनशक्ति के प्रदाता आदित्यरूपी परमेश्वरीय विभूति का ध्यान तथा चिन्तन करता है। इस प्रकार द्यौः और आदित्य अनुष्ठान में सहायक होते हैं। शिशिर ऋतु में चन्द्रमा और द्युलोक तथा आदित्य प्रायः मेघावृत न होने से अधिक विभूतिमान् प्रतीत होते हैं। यह ऋतु वर्षकाल की अन्तिम ऋतु है। इस ऋतु में संन्यासी परमेश्वर की अन्तिम वार्षिक विभूतियों का दर्शन करता है।] [विशेष वक्तव्य-सूक्त २ के अनुसार संवत्सरभर प्रचारार्थ उत्थान के पश्चात् सूक्त ३ के अनुसार संवत्सर भर व्रात्य ने स्वाध्यायार्थ आसन्दी पर विश्राम किया। सूक्त ४ में पुनः व्रात्य ने संवत्सरभर प्रचारार्थ उत्थान किया। अतः सम्भवतः एक संवत्सर पुनः विश्राम करना वेदाभिप्राय के अनुकूल हो।]
विषय
व्रात्य प्रजापति का राजतन्त्र।
भावार्थ
(उर्ध्वायाः दिशः) ऊपर की दिशा से (तस्मै) उसके लिये (शैशिरौ मासौ) शिशिर ऋतु के दोनों मासों को (गोप्तारौ) रक्षक (अकुर्वन्) कल्पित किया। और (दिवं च आदित्यं च) द्यौ = आकाश और सूर्य को (अनुष्ठातारौ) कर्मकर भृत्य कल्पित किया। १७॥ (यः एवं वेद) जो व्रात्य प्रजापति के इस प्रकार के स्वरूप को साक्षात् करता है (एनं) उसकी (शैशिरौ मासौ) शिशिर काल के दोनों मास (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊपर की दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं और (द्यौः च आदित्यः च) आकाश और सूर्य (अनु तिष्ठतः) उसका नृत्य के समान काम करते हैं॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ५, ६ (द्वि०) दैवी जगती, २, ३, ४ (प्र०) प्राजापत्या गायत्र्य, १ (द्वि०), ३ (द्वि०) आर्च्यनुष्टुभौ, १ (तृ०), ४ (तृ०) द्विपदा प्राजापत्या जगती, २ (द्वि०) प्राजापत्या पंक्तिः, २ (तृ०) आर्ची जगती, ३ (तृ०) भौमार्ची त्रिष्टुप, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, ५ (द्वि०) प्राजापत्या बृहती, ५ (तृ०), ६ (तु०) द्विपदा आर्ची पंक्तिः, ६ (द्वि०) आर्ची उष्णिक्। अष्टादशर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The two freezing cold months, from the upper direction, protect him, and the heaven and the sun fulfil his wish and will, whoever knows this.
Translation
The two frosty months protect (him) from the zenith quarter and sky and the sun attend him, who knows it thus.
Translation
From the region above respectively protect and superintendent the two Dewy months and heavenly region and sun the man who knows this.
Translation
For him they made God, the foe of violence, his Guardian, from the intermediate space of the eastern region.
Footnote
(1,2,3) Him: The learned Brahmchari. Bhava, Sarva, Isana are the names of God, denoting His different attributes. Made: Imagined. In this hymn seven different names according to His attributes have been mentioned, i.e., Bhava, Sarva, Isana, Pashupati, Ugra, Rudra, and Mahadeva. God is Omnipresent. He pervades all regions and sub-regions and guards mankind. They; The sages, Rishis, learned persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७, १८−(शिशिरौ) शिशिरअण्। शिशिरसम्बन्धिनौ माघफाल्गुनौ (दिवम्) आकाशम् (आदित्यम्) आदीप्यमानंसूर्यम्। अन्यद् गतम् ॥
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